Thursday, January 31, 2019

बाल सुलभ बीकानेरियों को बहलाने के लिए कल्ला-अर्जुन ही काफी थे......


देश के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी 28 जनवरी को बीकानेर में थे, अवसर था सांसद और मेघवाल समाज के अर्जुनराम मेघवाल खेमे के सामूहिक विवाह समारोह का। किसी निजी मकसद से भी अच्छा काम हो रहा हो तो आलोचना कैसी। अर्जुनराम मेघवाल प्रतिवर्ष यह एक अच्छा सामाजिक काम कर रहे हैं। इस आयोजन में प्रतिवर्ष साथी केन्द्रीय मंत्रियों को बुलाते हैं। इस बार नितिन गडकरी और संतोष गंगावार दो केन्द्रीय मंत्री आए। चूंकि दोनों की यात्रा को सरकारी यात्रा बनाना था सो ना केवल इसके लिए शिलान्यास-उद्घाटन के काम निकलवाए गए बल्कि गडकरी द्वारा किये जाने वाले शिलान्यास को उसी पॉलिटेक्निक कॉलेज के मैदान में रखा जहां सामूहिक विवाह आयोज्य था। इस मैदान तक पहुंचने में हवाई अड्डे के रास्ते में गंगासिंह विश्वविद्यालय परिसर पड़ता है, हालांकि छात्रसंघ चुनाव हुए कई महीने बीत गये, छात्रसंघ कार्यालय का उद्घाटन अब तक बाकी था, अत: लगे हाथ पदाधिकारियों ने वह भी करवा लिया। आधे से भी कम बचे इस सत्र में विश्वविद्यालय के लिए छात्रसंघ अब कितना कुछ कर पाएगा कह नहीं सकते। लेकिन मगरे के शेर देवीसिंह भाटी को गडकरी आईना जरूर दिखा गये। हुआ यह कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् प्रभावी छात्रसंघ के प्रभावी पदाधिकारी देवीसिंह खेमे से हैं सो अर्जुनराम मेघवाल का अतिथियों में नाम तक नहीं था, ऐसे में मंच पर जगह मिलने का प्रश्न ही कहां? देवीसिंह भाटी और अर्जुनराम मेघवाल के बीच के छत्तीस के आंकड़े की जानकारी बीकानेर में सभी को और सूबे में अनेक को होगी। केन्द्र के नेताओं को नहीं होगी, ऐसी जानकारी होने की कोई वजह भी नहीं है। देवीसिंह पार्टी सरकार के केन्द्रीय परिदृश्य में लगभग नदारद हैं। कहते है अर्जुनराम मेघवाल से आयोजकों की 'छुआछूतÓ का गडकरी को जैसे ही पता चला, छात्रसंघ कार्यालय का फीता मात्र काटकर, समारोह के मंच पर गये बिना अगले कार्यक्रम के लिए वे वहां से प्रस्थान कर गये। इस सब में किरकिरी किनकी हुई कयास लगाते रहें।
यह तो हो ली निन्दा सुख की बात, अब जो शहर को गडकरी चांद दिखलाकर गये हैं, उस रोप-वे यातायात की बात कर लेते हैं। अभी से नकारात्मक क्यों होवें, हमारा शहर कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या समाधान के लिए गत उनतीस वर्षों से रेल बायपास की बाट जिस तरह जोह रहा है, उम्मीद करें कि यातायात के रोप-वे जैसे नये साधन की शुरुआत देश में हमारे ही शहर से हो। हालांकि शहर के जो संकरे मार्ग प्रस्तावित हैं वहां टू-वे तो क्या सिंगल-वे ट्रॉली चलाना भी तकनीकी रूप से संभव है क्या? दूसरा संशय यह है कि केन्द्र सरकार इसके लिए कोई आर्थिक मदद नहीं करेगी। ऐसी नाउम्मीदगी में गडकरी इस सब्जबाग की माला को उस नगर निगम के गले में डाल गये हैं जिसके पास रोजमर्रा के सामान्य कामों के लिए ही आर्थिक संसाधन नहीं होते। हालांकि गडकरी ने यह सुझाव दिया है कि निगम इस योजना को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत किसी निजी कंपनी को सौंप दे। कोई निजी कम्पनी तैयार तभी होगी जब उसे इसमें आर्थिक लाभ दिखेगा। मतलब यही कि राधा नाचेगी तभी जब तेल नौ मण होगा। सिटीबस सेवा यहां एक से अधिक बार आर्थिक कारणों से दम तोड़ चुकी है। केन्द्र की सरकार में वर्क डिलीवर करने वाले एकमात्र मंत्री की छवि वाले गडकरी की जल परिवहन योजना नदियों में पर्याप्त पानी का इंतजार कर रही है। निर्मित सड़कों की लंबाई का आंकड़ा डबल बताने में इस सरकार को सड़क की लम्बाई नापने के उस अन्तरराष्ट्रीय मानक का सहारा मिल गया जिसमें टू-लेन सड़क की लम्बाई डबल, थ्री लेन को तीन गुना और इसी तरह फोर और सिक्स लेन की सड़कों की लम्बाई चार और छह गुना बताई जाने लगी है। मोदी सरकार से पूर्व भारत में सड़कों की लम्बाई इकहरी मापी जाती थी। गडकरी जगह-जगह सड़कें डबल करने का जो दावा करते फिर रहे हैं उसका राज अन्तरराष्ट्रीय मापक प्रणाली ही है।
खैर! गडकरी पराये हैं, बहलाकर गये कोई बात नहीं। विकास के मामले में राजस्थान के उपेक्षित इस क्षेत्र की तकलीफ यही है कि कल्ला, भाटी और मेघवाल यहां की बदौलत जो राज भोगते रहे हैं, गिनाने को उनके पास भी उपलब्धियां खास नहीं हैं। कल्ला और देवीसिंह भाटी 1980 से नुमाइंदगी कर रहे हैं, पूछिए इस क्षेत्र के लिए उन्होंने उल्लेखनीय क्या किया। कल्ला तो फिर चतुर हैं, वे इस दौरान शहर में हुए रूटीन के कामों की फेहरिस्त अपनी उपलब्धियों में गिनाते रहे हैं वहीं देवीसिंह भाटी के पास शहर की छोड़ें, कोलायत ग्रामीण के लिए गिनाने को भी कुछ उपलब्धियां नहीं हैं। सिद्धिकुमारी का इस शहर से लेना-देना चुनाव तक ही रहता आया है, चुनाव के बाद वे कहीं नजर आयीं हो तो बताएं। केन्द्र की सरकार में क्षेत्र को अर्जुनराम मेघवाल के तौर पर बीते सत्तर वर्षों में पहली बार नुमाइंदगी मिली, बहुत उम्मीदें थीं। मेघवाल भी कुछ खास करवा नहीं पाए। ले-दे के हवाई सेवा को गिनवाते रहते हैं या ईएसआई अस्पताल जिसका शिलान्यास कल हुआ, वह भी बनकर चालू हो जाए तब मानें। लेकिन ये दोनों उपलब्धियां क्या इतनी बड़ी हैं? यह दोनों भी रूटीन की हैं, हवाई सेवा तो देशव्यापी योजना में मिलनी ही थी। हां, ईएसआई अस्पताल मान सकते हैं, इनकी घोषणाएं सीमित होती है, अर्जुनराम मेघवाल कोशिश नहीं करते तो किसी अन्य शहर में जा सकती थी।
अपने को सन्तोषी मानें या मासूम हमारी नियति क्या इन नेता-जनप्रतिनिधियों से छले जाने या बहलने भर ही है। कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान की गाड़ी को कल्ला बायपास जैसी डेड रेलवे लाइन की ओर शटिंग कराने में फिर से जुट गये हैं। कल्ला को शायद यह भान नहीं है कि पांच वर्ष का समय कितना छोटा होता है। पूर्व विधायक गोपाल जोशी ने भी अपने दस वर्षों की विधायकी में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं करवाया-बल्कि जो कुछ हो रहा था उसे स्वार्थवश उन्होंने होने नहीं दिया।
दीपचन्द सांखला
31 जनवरी, 2019

Tuesday, January 29, 2019

बीकानेर : बिछती चुनावी बिसात--तीन (26 मार्च, 2012)

एक तो यह कि किसी भी राजनीतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, वामपंथी दल जरूर कभी-कभार इस आंतरिक लोकतंत्र की बरामदगी अपने यहां दिखाते हैं पर कितना और किस रूप में लोकतंत्र वहां है यह अन्वेषण का हेतु हो सकता है। दूसरा यह कि इन पार्टियों में सबसे नीचे से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष तक के पद नियुक्ति और मनोनयन की प्रक्रिया के अन्तर्गत ही तय होते हैं। और, यह शहर अध्यक्ष और देहात अध्यक्ष जो होते हैं, उनकी थोड़ी अहमियत तभी होती है जब उस पार्टी का विधायक वहां से नहीं जीतता। ठीक ऐसे ही प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत भी प्रदेश में अपनी सरकार होने के चलते दोयम ही रहती है। खैर! यह सबकुछ नया नहीं बता रहे हैं, राजनीति में थोड़ी-बहुत टांग फंसाये हुओं में से अधिकांश को मालूम है।
उक्त भूमिका की रोशनी में आज बात हम भाजपा से शुरू करते हैं, वह भी मानिकचन्द सुराना, किशनाराम नाई, नन्दलाल व्यास और गोविन्दराम मेघवाल के सन्दर्भ से। इन चारों में पहले तीन क्रमशः लूनकरणसर, श्रीडूंगरगढ़ और बीकानेर (बीकानेर तब एक ही सीट थी) से 2003 के चुनावों में हारे थे और चौथे गोविन्दराम नोखा से जीते थे। इन चारों को ही भाजपा ने 2008 के चुनावों में टिकट नहीं दिया। कहने को तो पहले तीन के लिए कहा जा सकता है कि वे 2003 के चुनावों में हारे हुए थे। दूसरा, लूनकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ की सीटें चुनावी समझौते में चौटाला की इनलोद को देनी पड़ी। वहीं परिसीमन के बाद नोखा वाली सीट सामान्य हो गई थी इसी बहाने गोविन्दराम को किनारे कर दिया गया जबकि इसी जिले में नई बनी खाजूवाला (सु.) से उन्होंने टिकट मांगा था। लेकिन वहां से शालीन से लगने वाले डॉ. विश्वनाथ को सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिलवा टिकट दिया गया।
रही बीकानेर (प.) की बात जो परिसीमन के बाद बीकानेर की दो बनी सीटों में पूर्व और पश्चिम में से एक है। पुरानी बीकानेर विधानसभा सीट का अधिकतम हिस्सा बीकानेर पश्चिम में रहा तो भाजपा से नन्दलाल व्यास की पार्टी टिकट की दावेदारी तार्किक थी और यदि गोपाल जोशी पार्टी में न आते तो लगभग चुनौतीविहीन भी।
लेकिन क्या इन चारों को किनारे किये जाने के केवल वही कारण थे जो ऊपर गिनाये गये हैं, शायद नहीं। मानिकचन्द सुराना, किशनाराम नाई, नन्दलाल व्यास और गोविन्दराम मेघवाल--इन चारों ने अपने-अपने क्षेत्र में भिन्न-भिन्न कारणों से अपनी हैसियत बनाई और इस हैसियत के चलते ही इनमें से किसी के व्यवहार में अहम् और किसी के स्वभाव में अक्खड़पन देखने को मिलता है। इनमें से गोविन्दराम मेघवाल विधायक रहते लगातार अपनी पार्टी की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के लिए परेशानी का सबब भी बने रहे। 2008 के चुनावों में तब की मुख्यमंत्री वसुंधरा ने अपने सामंती मिजाज के चलते प्रदेश में लगभग पार्टी सुप्रीमों की हैसियत पा ली थी। वसुंधरा के सामंती मिजाज में सुराना, नाई, व्यास और मेघवाल विभिन्न कारणों से रड़क रहे थे।
आत्मविश्वास से लबरेज मोहतरमा ने सुराना और नाई को इनलोद के बहाने तो मेघवाल को परिसीमन के बहाने किनारे किया और नन्दलाल व्यास के आड़े गोपाल जोशी आ गये। लेकिन इसके यह मानी नहीं है कि गोपाल जोशी में अहम् नहीं है! कांग्रेस से नाउम्मीदगी का एक कारण अशोक गहलोत से उनके अहम् का टकराव भी था लेकिन यहां वसुंधरा के सामने अपने अहम् को इसलिए पुचकारे रखा कि उन्हें पुराना हिसाब चुकता करने का एक अवसर दीख रहा था। कहते हैं जीभ का घाव जल्दी भरता है पर जीभ का दिया घाव शायद ही कभी भरता हो। शहर की सीट एक और कांग्रेस से दावेदार दो। एक रिश्ते में बहनोई (गोपाल जोशी) तो दूसरे रिश्ते में साले डॉ. बीडी कल्ला।
क्रमशः
दीपचंद सांखला
26 मार्च, 2012

बीकानेर : बिछती चुनावी बिसात--दो (24 मार्च, 2012)

उन्नीस सौ पचहत्तर में देश में लगे आपातकाल के बाद उन्नीस सौ सतहत्तर में हुए आम चुनाव ऐसे थे जिसमें कम से कम उत्तर भारत में हर नागरिक की उत्साहजनक भूमिका देखी गई। हो सकता है उन्नीस सौ बावन में हुए पहले आम चुनाव भी ऐसे ही माहौल में हुए हों।
सतहत्तर के इन चुनावों में लोकसभा के पहले चुनाव से क्षेत्र की नुमाइंदगी कर रहे पूर्वशासक घराने के डॉ. करणीसिंह आपातकाल में राजघरानों के खिलाफ हुई कार्यवाहियों से सहम गये थे और उन्होंने चुनाव ना लड़ना तय कर लिया था। उधर बीकानेर लोकसभा सीट से कई पार्टियों के विलय से बनी जनता पार्टी के उम्मीदवार हरीराम मक्कासर हुए और कांग्रेस से चौ. रामचन्द्र। ये दोनों ही इस लोकसभा क्षेत्र के उस आधे भाग से आये थे जो पंजाब और हरियाणा की तरफ था। इस चुनाव में जनता पार्टी का चुनाव कार्यालय महात्मा गांधी रोड स्थित 5, डागा बिल्डिंग को बनाया गया। पांच-सात दिन में ही माहौल ऐसा बना कि जनता के मन से आपातकाल का भय काफूर हो गया था। दिन-ब-दिन डागा बिल्डिंग के आगे लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। इसी माहौल में एक युवक जिस शाम भी अपनी खुली जीप में यहां पहुंचता लोगबाग उसे घेर लेते। यह युवक देवीसिंह भाटी थे जो उस समय हरीराम के लिए लगे हुए थे और बाद में उन्नीस सौ अस्सी के चुनावों से आज तक कोलायत विधानसभा क्षेत्र से अजेय ही बने हुए हैं।
लोकसभा चुनावों के बाद उन्नीस सौ सतहत्तर में ही हुए विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी से कोलायत से रामकृष्ण दास गुप्ता को टिकट दिया गया, तब उनकी जीत तय थी। इसी तरह बीकानेर विधानसभा सीट से जनता पार्टी प्रत्याशी महबूब अली की जीत भी तय मानी जा रही थी। इसीके चलते इन दोनों ही क्षेत्रों के सीटिंग कांग्रेसी एमएलए गोपाल जोशी और कान्ता खतूरिया--दोनों ही दीखती हार का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। स्थितियां ऐसी बनी कि कांग्रेस को प्रत्याशी ढूंढ़े नहीं मिल रहे थे। तब बीकानेर से वही गोकुलप्रसाद पुरोहित कांग्रेसी उम्मीदवार बने जिनको गोपाल जोशी ने उन्नीस सौ बहत्तर के चुनावों में टिकट की दौड़ से बाहर कर दिया था। लेकिन कोलायत का मामला दूसरा था वहां इस चुनौती को स्वीकार करने को कांग्रेसी युवक विजयसिंह आगे आ गये थे। लेकिन उन्नीस सौ अस्सी के चुनावों में जब माहौल कांग्रेस के अनुकूल होता लगा तो अपने सम्बन्धों के बल पर कान्ता खतूरिया मैदान में पुनः लौट आयीं। तब से अब तक बार-बार उम्मीदवार बदलने के बावजूद कांग्रेस इस क्षेत्र से जीत नहीं पायी। कांग्रेस यदि उन्नीस सौ अस्सी के चुनावों में विजयसिंह को पुनः उतारती तो हो सकता है कोलायत में फिज़ा दूसरी होती, नहीं भी होती तो भी देवीसिंह भाटी आज की तरह चुनौतीविहीन नहीं ही होते। हालांकि उन्नीस सौ अस्सी में मांगने पर भी टिकट न दिये जाने के बाद विजयसिंह भी राजनीति में सक्रिय नहीं देखे गये। बाद में उन्नीस सौ इक्यानवें में तो उनका असमय निधन भी हो गया।
कांग्रेस ने उन्नीस सौ अस्सी से दो बार कान्ता खतूरिया, एक बार गोपाल जोशी, दो बार रघुनाथसिंह भाटी और दो बार हुकमाराम बिश्नोई को उतार कर सारे पैंतरे आजमा कर देख लिए। पिछले चुनाव में परिसीमन से अलग हुए शहरी क्षेत्र के बाद कांग्रेस ने हुकमाराम पर पुनः दावं लगाया पर पार नहीं पड़ी। यह तो स्थिति तब है जब देवीसिंह के पास विकास के नाम पर डॉ. बीडी कल्ला द्वारा बना रखी जैसी कोई फेहरिस्त भी नहीं है। देवीसिंह भाटी अब तक सार्वजनिक कामों पर नहीं, व्यक्तिगत किये गये कामों के बल पर ही क्षेत्र में अपने सम्बन्ध बनाये हुए हैं। इसी के चलते गाहे-बगाहे न केवल वे अपनी पार्टी को आंख दिखाते हैं बल्कि अलग पार्टी बना चुनाव जीत कर शीशा भी दिखा दिया। देवीसिंह भाटी के इसी माहौल के चलते न केवल उनकी पार्टी में बल्कि कांग्रेस में भी कोलायत क्षेत्र में चुनावी राजनीति करने की कोई नहीं सोचता। देवीसिंह के बाद उनके बनाये इस माहौल की विरासत सम्हालने वाला फिलहाल कोई नहीं दिख रहा। परिसीमन से पहले हुए दो हजार तीन के चुनावों में गोपाल गहलोत ने एक बार जरूर साहस दिखाया था लेकिन परिसीमन बाद फिर पुरानी स्थिति बन गई है।
दोनों ही पार्टियों से कोई संभावनाशील बिश्नोई या राजपूत नवयुवक यदि राजनीति को प्रोफेशन के रूप में अपनाकर कोलायत में उतरे तो भविष्य उसका हो सकता है। क्योंकि यह जाति आधारित राजनीति अभी तो कई चुनाव और चलनी है।
क्रमशः
दीपचंद सांखला
24 मार्च, 2012

बीकानेर : बिछती चुनावी बिसात--एक (23 मार्च, 2012)

राज्य के अगले विधानसभा चुनाव में दो साल से कुछ कम और लोकसभा चुनाव में इससे कुछ ज्यादा समय अभी बाकी है। विधानसभा और लोकसभा की दूसरी सीटों का तो हमें पता नहीं लेकिन बीकानेर लोकसभा और इस जिले की कुछ विधानसभा सीटों पर गहमा-गहमी परवान पर है!
डॉ. बीडी कल्ला के बीकानेर पश्चिम से पिछला चुनाव हारने के बाद लगता है उनका इस सीट से मन फट गया है, हालांकि इसे जाहिर करने से वे बचते रहे हैं। लेकिन उनकी हरकतें लगातार इसकी चुगली करती दिखती हैं। बिना सींग-पूंछ के ही सही शहर की राजनीति की हवाओं में एक बात तारी है कि कल्ला कभी भी पाळा बदल सकते हैं। बातें करने वालों के अपने तर्क होते हैं चाहे उन तर्कों की हैसियत पुछल्ले जैसी ही हो। कहा जाता है कि डॉ. कल्ला का मन अपनी पार्टी से ज्यादा पश्चिमी सीट के मतदाताओं से फटा है। दूसरी कोई सुरक्षित सीट उनको दिखती नहीं है। कहने वाले कहते हैं कि भाजपा यदि उन्हें किसी निश्चित जीत वाली सीट से टिकट देने के साथ पार्टी में कोई प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित करे तो वे पाळा बदल सकते हैं। कल्ला के लिए इस तरह की सुरक्षित सीटों में से एक फलौदी सीट का नाम भी लिया जाता है जहां फिलहाल उन्हीं की पार्टी और उन्हीं के समुदाय के विधायक हैं। कांग्रेस में रहते कल्ला इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि पार्टी फलौदी विधायक ओम जोशी का टिकट काट कर उन्हें देगी। एक बात यह भी चल रही है कि डॉ. कल्ला अब सीधे चुनाव से बचने की फिराक में भी लगते हैं। तभी हाल ही में संपन्न राज्यसभा के चुनावों में सर्वथा नाउम्मीद होते हुए भी उन्होंने टिकट पाने के पुरजोर प्रयास किये। राजनीतिक हल्कों में सभी यह जानते थे कि राज्यसभा की कुल तीन सीटों के लिए चुनाव होने थे और वोटों के गणित के हिसाब से एक सीट भाजपा को और दो कांग्रेस को जानी थी, जो गई भी। कांग्रेस को जाने वाली दो में से एक पर अभिषेक मनु सिंघवी का चुनाव निश्चित था। रही दूसरी सीट जिस पर नरेन्द्र बुढानियां काबिज थे। इसीलिए मान लिया गया था कि यह सीट भी जानी किसी जाट नेता को ही है--अशोक गहलोत और कांग्रेस दोनों ही ग्यारहवीं विधानसभा के चुनाव (2003) में अपनी हार के बाद जाटों के मामले में कदम कुछ ज्यादा ही फूंक-फूंक कर रखने लगे हैं। कल्ला की ही तरह सीधे चुनाव से बचने की जुगत में लगे बुढानियां को उनके अपने ही कुछ कारणों के चलते टिकट ना भी मिलता तो फिर स्वयं डॉ. चन्द्रभान तेल चढ़ाये जो बैठे थे। इन सबको जानते-समझते हुए भी डॉ. कल्ला के राज्यसभा में जाने के प्रयास उनकी राजनैतिक जिजीविषा को ही दर्शाते हैं।
डॉ. कल्ला की तरह जिले में एक और कांग्रेसी राजनीतिज्ञ हैं रामेश्वर डूडी। उनके बारे में यह बात जोरों से चल रही है कि वे कभी भी भाजपा में पगलिये कर सकते हैं। कहने वालों के पास इसके भी अपने पुख्ता तर्क हैं। डूडी का पैतृक राजनैतिक क्षेत्र नोखा रहा है, नोखा में हाल फिलहाल निर्दलीय कन्हैयालाल झंवर नुमाइंदगी कर रहे हैं। झंवर परम्परागत रूप से कांग्रेसी रहे हैं और अशोक गहलोत के नजदीकी भी। इसी के चलते गहलोत ने उन्हें संसदीय सचिव बनाकर लालबत्ती की गाड़ी दी है।  बहुत संभव है कि अगले चुनाव में पार्टी उन्हें इसी क्षेत्र से टिकट भी दे दे। लेकिन नोखा में झंवर और डूडी का छत्तीस का आंकड़ा है। इस आंकड़े को साधने के चक्कर में ही झंवर कांग्रेस में घुसते-निकलते रहे हैं। कानाफूसी यह कि यह घुसने-निकलने की बारी अब रामेश्वर डूडी की है। डूडी के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे संबंध बनाने की बजाय बिगाड़ने में ज्यादा माहिर हैं। नतीजतन जिस विधानसभा क्षेत्र में डूडी के पिता जेठाराम डूडी का कार्यक्षेत्र रहा, उसी जाट बहुल विधानसभा क्षेत्र में झंवर से हारना डूडी पचा नहीं पा रहे हैं, इसी अपच और फटे मन को लेकर उनकी नजरें अब लूनकरणसर क्षेत्र पर टिकी है। उधर लूनकरणसर क्षेत्र में अपने पैतृक प्रतिद्वंद्वी मानिकचन्द सुराना को गुरु द्रोणाचार्य मान बैठे एकलव्य--विरेन्द्र बेनीवाल अपने इन गुरु की तर्ज पर राजनीति करने और साधने का प्रयास करते दीखते हैं। इन्हीं बेनीवाल के लिए भंवरी प्रकरण भाग्य से टूटे छींके की तरह आया और जाट महिपाल मदेरणा के सरकार से बाहर होते ही शालीन जाट की छवि के चलते बेनीवाल न केवल सरकार के अन्दर हो लिए बल्कि गृह राज्यमंत्री होने के नाते पायलट जीप के साथ दौड़ने भी लगे हैं। इस तरह की परिस्थितियां में कांग्रेस में रहते हुए रामेश्वर डूडी लूनकरणसर से भी नाउम्मीद होते दिखने लगे हैं, उनके कांग्रेस छोड़ने की अफवाहों को हवा मिलने का एक कारण यह भी माना जाता है। बातेरी बताते हैं कि डूडी ने भाजपा के राज्य क्षत्रपों के सामने पार्टी में आने की एक शर्त लूनकरणसर से टिकट की गारंटी की भी रखी है। इस बात की पुख्तगी इससे भी होने लगी है कि राजस्थान में आदर्श जनप्रतिनिधि के रूप में पहचान बना चुके अस्सी पार के मानिकचन्द सुराना इस उम्र में भी उसी लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र में ताल ठोंकते हुए यह कहने लगे हैं कि डूडी के भाजपा में आ जाने की स्थिति में पार्टी यदि उन्हें टिकट नहीं भी देती है तो भी वे चुनाव तो लूनकरणसर से ही लड़ेंगे!
उधर डूडी को जानने-समझने वाले कांग्रेसियों की राय यही है कि डूडी के स्वभाव से सब परिचित हो गये हैं। उन्हें कहीं ठौर नहीं मिलेगी, उनके यह पगपीटे इसलिए ही हैं कि कांग्रेस में उनको मनचाही तवज्जोह मिले।
क्रमशः
दीपचंद सांखला
23 मार्च, 2012

नक्सलवाद, सरकारी स्कूल और रविशंकर (21 मार्च, 2012)

पंडित रविशंकर ने सितार को धर्म के रूप में धारण किया तो वे पं. रविशंकर कहलाए। संगीत में पारंगत व्यक्ति के नाम के आगे पंडित लगाने की परम्परा अपने यहां रही है। एक रविशंकर और हैं जिन्होंने धर्म को प्रोफेशन के रूप में अपनाया और अपने नाम के आगे दो श्री लगा लिए-श्रीश्री रविशंकर! आस्था तर्कातीत होती है इसलिए इन रविशंकर में जिन लोगों की आस्था है उन पर सवाल नहीं उठाएंंगे लेकिन जयपुर के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में इन्होंने कल जो भी कहा है वो न केवल प्रश्नों के घेरे में है बल्कि उससे यह भी जाहिर होता है कि रविशंकर योग और अपने सम्प्रदाय के बारे में तो जानते होंगे लेकिन भारतीय समाज और उसके सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक ताने-बाने के बारे में उनकी जानकारी अधकचरी है, इस पर अब संदेह नहीं है। इन्होंने वहां कहा कि सरकारी स्कूलों और कॉलेज को निजी हाथों में सौंप देना चाहिए क्योंकि यह नक्सलवादी इन सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे ही बनते हैं। रविशंकर यदि अखबार नियमित भी पढ़ते होते और देश की इन गंभीर समस्याओं के बारे में विचार कर रहे होते तो कल जो जयपुर में उन्होंने कहा वो शायद नहीं कहते!
यह सामान्य दस्तूर सा हो गया है कि कोई बड़ा व्यक्ति किसी संस्थान के समारोह में मुख्य या विशिष्ट होकर जाता है तो कृतज्ञ भाव से इतना भावुक हो जाता है कि वह अतिशयोक्ति का प्रयोग किये बिना नहीं रहता। उच्चतम, उच्च और उच्च मध्यम वर्ग के गुरु माने जाने वाले इन रविशंकर द्वारा कहे उक्त वाक्य को अतिशयोक्ति तो नहीं कह सकते।
विकास और सभ्य बनाने के नाम पर जिन आदिवासी लोगों को बिना उनकी सहमति के बे-घर, बे-जमीन और बे-जंगल किया जा रहा है, उनके विरोध के नक्सलवादी तरीके से असहमति के बावजूद पूरी सहानुभूति उनके साथ है!
रविशंकर को शायद यह मालूम ही नहीं होगा कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आजादी बाद की सरकारों के लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के चलते कहीं-कहीं सरकारी स्कूल जरूर खुल गये होंगे लेकिन उन दुरूह बयाबानों में निजी स्कूल तो क्या बाजार का अन्य कोई बीज भी नहीं पहुंचा। अब उन इलाकों के नक्सलियों के प्रोफाइल में पढ़े-लिखे होने के प्रमाण और उसी स्कूल का उल्लेख मिलेगा जो वहां होगा इसी तथ्य को रविशंकर के ध्यान में लाया गया होगा। लेकिन उनके ध्यान में यह नहीं लाया गया कि इन्हीं सरकारी स्कूलों में पढ़े उन वैज्ञानिकों, समाजविज्ञानियों, चिन्तकों  और तो और् जिन आइएएसों और आइपीएसों के आगे इन्हीं रविशंकर के शिष्य हाथ बांधे खड़े रहते पाये जाते होंगे उनमें से भी आधे से अधिक निजी स्कूलों से नहीं इन सरकारी स्कूलों से पढ़ कर आये होते हैं।
जिस वैचारिकता की उपज यह आदर्श विद्या मन्दिर हैं जहां कल वे भाषण दे रहे थे, उसी वैचारिक स्कूल की राजनीतिक इकाई के विधायक पहले कर्नाटक विधानसभा में और कल गुजरात विधानसभा में अश्लील फिल्म देखते पाये गये। कांग्रेस अपसंस्कृति को काउंटर करने का तरीका उन्होेंने शायद यही अपनाया हो। यह लोग भी भ्रष्टाचार में, अनैतिक कार्यों में और दबंगई में अपने काउंटर पार्ट से कम नहीं दीखते। इतना ही नहीं जिस कालेधन के बल पर आज के अधिकांश धर्मगुरुओं की दुकानें चलती हैं क्या उनमें से किसी ने भी चाहा है कि उनके अनुयाई अपना व्यापार और व्यवहार ईमानदारी और नैतिकता से करें। ऐसे ही धर्मगुरुओं की अपने अनुयायियों के इस कुतर्क में मौन स्वीकृति देखी गई है जिसमें यह कहा जाता है कि बिना बेईमानी करे आज व्यापार किया ही नहीं जा सकता। जब धन की हवस बढ़ती है तो सुख-चैन छिनता है और सुख-चैन लौटाने का आज बड़ा माध्यम योग बन गया है, इसी के चलते इन सब धर्मगुरुओं की दुकानें इस जमाने में रोशन हैं। रही बात सरकारी स्कूलों की तो उसको चलाने वाले अधिकांश अधिकारी और अध्यापक इस नई पनपी भ्रष्टाचारी संस्कृति का ही हिस्सा हैं जो छठे वेतन आयोग की तनख्वाह पाने के बावजूद पढ़ाने के अपने धर्म को नहीं निभाते हैं।
बीकानेर के निजी स्कूलों में मुश्किल से 10% ही ऐसे होंगे जिनमें अध्यापकों को पूरी तनख्वाह दी जाती होंगी या प्रशिक्षित अध्यापक पढ़ाने का काम कर रहे होेंगे। कम तनख्वाह से उपजी कुण्ठा के साथ वे बच्चों को कैसी शिक्षा देते होंगे इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। इन सरकारी और निजी स्कूलों में आई कमियों के चलते आज इनके पूरक के रूप में कोचिंग इंस्टिट्यूट पनप रहे हैं।
--दीपचंद सांखला
21 मार्च, 2012

बीकानेर : डागा चौक कांग्रेस बनाम मालावत कांग्रेस (19 मार्च, 2012)

मनीषी डॉ. छगन मोहता बीकानेर के शासक रहे सादुलसिंह के सन्दर्भ से एक घटना का जिक्र कई बार करते थे। बीकानेर रियासत के भारत गणराज्य में विलय के समय जो शर्तें रियासत की ओर से रखी जानी थी उनमें इस शर्त का भी जिक्र आता है कि राष्ट्रीय तिरंगे झंडे के साथ यहां बीकानेर रियासत का झंडा भी फहराया जायेगा। जिसे स्वीकार नहीं किया गया था। लेकिन इस शर्त की सूचना जब शहर में बाका-डाक से फैली तो इस पर तंज करते हुए डॉ. छगन मोहता ने तब तेलीवाड़ा चौक के बाशिन्दों की ओर से ‘तेलीवाड़ा चौक का झण्डा’ शीर्षक से एक पर्चा जारी किया जिसमें उन्होंने अपने कुछ तर्कों के साथ यह बात कही कि तेलीवाड़ा चौक में भी जब राष्ट्रीय झण्डा फहराया जायेगा तब उसके साथ तेलीवाड़ा चौक का झण्डा भी फहराया जाना चाहिए। इस पर्चे की सूचना जब सादुलसिंह तक पहुंची तो वे ना केवल असहज हुए बल्कि उन्होंने इस पर्चे को काउंटर करने की भी कोशिश की। पाठकों की सूचनार्थ यह बता दें कि डॉ. छगन मोहता उस समय तेलीवाड़ा चौक में ही रहा करते थे।
आज इस घटना का स्मरण तब हो आया जब अखबारों में तनवीर मालावत के हवाले से यह बयान आया कि बीकानेर में पूर्व और पश्चिम के अलग-अलग कांग्रेस अध्यक्ष होने चाहिए। हालांकि उक्त घटना से मालावत के बयान का मिलान जबरदस्ती ही कहलाएगा, लेकिन कहीं कोई अंतर्निहित बारीक तार उक्त दोनों के बीच जरूर है। उम्मीद है सुधी पाठक उसे देखने का प्रयास करेंगे। मालावत के बयान का स्रोत पार्टी की ए और बी ब्लॉक की कल की वह मीटिंग है, जो कांग्रेस के जिला प्रभारी ओम राजोरिया की उपस्थिति में रथखाना स्थित पार्टी कार्यालय में हुई जिसे डागा चौक कांग्रेस की तर्ज पर मालावत कांग्रेस का दफ्तर भी कहा जाता है। इस मीटिंग में उपस्थितों की नाराजगी का कारण था कि इस मीटिंग में नवनियुक्त शहर अध्यक्ष यशपाल गहलोत नहीं पहुंचे। उधर यशपाल की सफाई यह है कि उन्हें अचानक लूनकरणसर जाना पड़ गया था जिसकी सूचना उन्होंने पार्टी प्रभारी को दे दी थी। इस राजनीति में सन्तरे की फांकें तो समझ में आती हैं लेकिन अब उस पर छिलके-दर-छिलके भी होने लगे हैं जिन्हें उतारना कम ही लोगों के बस की बात लगती है।
फिर भी यशपाल गहलोत की शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नियुक्ति के मौके लिखी गई 10 मार्च की अपनी टिप्पणी के दो अंश आपसे साझा करने का मन है। इतना जल्दी उन्हें उद्धृत करने का कारण पाठकों की स्मृति पर भरोसा न करना ना मानें, इसे हमारे कहे की पुष्टि पर पुनर्कथन मान लें--जिसे अपने पुष्ट होने पर व्यक्ति बारम्बार कहने से भी संकोच नहीं करता :
‘राजनीति की लम्बी पारी अभी तनवीर मालावत को खेलनी है। उन्होंने इस अध्यक्षी मुद्दे पर भानीभाई का समर्थन न करके समस्याएं अपने लिए ही बोई हैं..... लेकिन तनवीर ने जो राजनीतिक अपरिपक्वता दिखाई उसे लम्बे समय तक खुद उन्हें ही भुगतना होगा।’
‘यशपाल युवा हैं, उत्साही हैं.......... ऐसी ही चतुराई उन्हें शहर अध्यक्षी करते दिखानी होगी जिसमें उन्हें डागा चौक के प्रति अपनी विश्वसनीयता भी बनाये रखनी है और डागा चौक के विरोधियों को सकारात्मक ढंग से साधना भी है।
दीपचंद सांखला
19 मार्च, 2012

सचिन तेंदुलकर के शतकों का शतक (17 मार्च, 2012)

सचिन तेंदुलकर ने कल जब बहुप्रतीक्षित 100वां शतक लगाया तो एकबारगी बजट की चर्चाएं भी ठिठक गई थीं, इस सौवें शतक के लिए न केवल सचिन बल्कि देश के खेलों के कमोबेश सभी प्रेमी भी चरमोत्सुक थे। लेकिन जब इसी मैच में भारत बांग्लादेश से हार गया तो टीवी आदि पर ऊल-जुलूल भी कुछ आने लगा, जैसे सचिन का चमत्कार भी देश के काम नहीं आया या यह भी कि सचिन की लगभग सभी बड़ी सफलताएं टीम के लिए शुभ नहीं रहीं यानी ऐसे मैच टीम ने हारे ही हैं या दबे मुंह यह कहने से भी नहीं चूके कि सचिन की सफलताओं में टीम का या टीम के खिलाड़ियों के किसी ना किसी प्रकार के बलिदान का योगदान होता है। इस तरह हम यह भूल जाते हैं कि जिस सचिन के लिए हम भारतरत्न देने की हिमायत करते हैं या भावावेश में भगवान तक कहने से भी नहीं चूकते उस प्रतिभा का हम कितना अपमान कर रहे होते हैं। देखा है कि छोटी-मोटी हार के बाद हम किस तरह उस खिलाड़ी के पुतले जलाने को उतारू हो जाते हैं। बल्कि उनके घरों पर पत्थरबाजी में भी शर्म नहीं करते। दरअसल, इन खेलों को खेल की भावना से खेलने और देखने की बजाय जुनून से यह सब करेंगे तो परिणाम खिलाड़ियों के पुतले जलाने, उनके घरों पर पत्थरबाजी करने, उन्हें सिर पर बैठाये घूमने और भगवान तक कह देने के रूप में ही सामने आयेंगे।
रही बात सचिन को भारतरत्न देने की वो तो देर-सबेर मिल ही जायेगा और यदि नहीं भी मिलता है तो कम कद के खिलाड़ी सचिन का कद न तो कम होगा ना ही ज्यादा। हां, यह जरूर हो सकता है नोबेल समिति की तरह एक से अधिक बार नामांकित होने के बावजूद गांधी को नोबेल न देने के मलाल का प्रकटीकरण पहले केवल वक्तव्यों से और फिर आधिकारिक दस्तावेजी बयान देकर भारत सरकार कभी सचिन के लिए भी करे।
--दीपचंद सांखला
17 मार्च, 2012

इन बजटों की चक्कर-घिन्नी और आमजन (17 मार्च, 2012)

‘आम लोगों’ का अर्थ उनसे है जिनकी आय का कोई निश्चित साधन नहीं है या जिन्हें जीवन यापन की न्यूनतम जरूरतों को हासिल करने के लिए न केवल भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बल्कि जरूरी सूचनाओं के अभाव में दिन-प्रतिदिन एक से अधिक बार छल और धोखे का शिकार भी होना पड़ता है।
उक्त उल्लेख इसलिए किया कि कल जब आम बजट पर  शहर के कर सलाहकार और शतरंज प्रतियोगिताओं के आयोजक शंकरलाल हर्ष का फोन आया कि बजट आम आदमी की और से बजट पर प्रतिक्रिया यह है कि जिस तरह आयकर छूट की सीमा 1,80,000 से दो लाख की गई है उसमें व्यक्ति को करों में मात्र 2,000 रुपये की ही राहत मिलेगी। उनके विचार से यही आम लोगों की श्रेणी है, जबकि जिस उच्च मध्यम श्रेणी के आयकर देने वालों की छूट की सीमा 8 लाख से 10 लाख की गई है उन्हें 10 प्रतिशत के हिसाब से 20,000 रुपये का फायदा होगा। हर्ष से हुई बात में हम दोनों ने उम्मीद जतायी थी कि शायद आज सुबह के अखबारों में विश्लेषणों या वक्तव्यों में इसे खोल दिया जायेगा लेकिन इस तरह से खुल कर समझने का मौका सुबह के अखबारों ने नहीं दिया।
हर्ष की यह प्रतिक्रिया तार्किक थी लेकिन जिसे वे आम मानते हैं उससे सहमति की गुंजाइश नहीं दिखती है। दरअसल आजादी के बाद से ही अपने देश में आम आदमी की परिभाषा भ्रमित करने वाली है। अपने देश में लगभग आधी से ज्यादा आबादी जीवन यापन की मूलभूत सुविधाओं यथा रोटी, कपड़ा, मकान से आंशिक या पूरी तरह वंचित है। अब आप ही बतायें कि आम आवाम इस आधी आबादी को कहें या 2 लाख की सालाना आय के साथ मासिक 16,500 रुपये कमाने वाले को। देश की कुल आबादी के लगभग 20% लोग ही इन बजटों से प्रभावित-अप्रभावित ज्यादा होते हैं ‘शेष’ 80% में से कुछ तो इनकी लपेट में आते हैं। शेष तो इसकी लपेट में आने जैसे हैसियत भी नहीं रखते! इसकी प्रतिक्रिया में आप कह सकते हैं कि देश की मनरेगा, बीपीएल और सब्सिडी जैसी सारी योजनाएं, जिनमें आम बजट की मोटी धनराशि खर्च होती है, के लाभान्वित इन्हीं ‘शेष’ 80% लोगों में से आते हैं। अब इन योजनाओं से प्रभावितों और लाभान्वितों के संबंध में देश के प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी द्वारा लगभग ढाई दशक पहले दिये उस बयान के सन्दर्भ में विचार कर लेना चाहिए जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि सरकार द्वारा इन वर्गों के लिए भेजे गये प्रति एक रुपये में से पंद्रह पैसे ही जरूरतमंदों तक पहुंचते हैं। लगभग वैसी ही स्थितियां अब भी हैं, तब हमें इस तरह भी देखना होगा कि बाकी की 85% रकम कालेधन के रूप में असल शेष 20% लोगों की तिजोरियों में या उन्हीं की बढ़ती सुख-सुविधाओं के एवज में बाजार में आती है। इस तरह आधुनिक अर्थशास्त्रियों के उस तर्क की पुष्टि होती है जिसमें वह कहते हैं कि उत्तरोत्तर और जैसे-जैसे बाजार रोशन होता रहेगा वैसे-वैसे खुशहाली भी बढ़ती जायेगी। इसी तरह के तर्कों के चलते न केवल छठे के बाद सातवें, आठवें...वेतन आयोग लागू होते रहेंगे बल्कि मनरेगा, बीपीएल और सब्सिडियों जैसी नई-नई लोककल्याणकारी योजनाएं आती रहेंगी और भ्रष्टाचार फलता-फूलता रहेगा।
अब आप ही बतायें कि उक्त सबके चलते सम्पन्नों और गरीबों के बीच बढ़ती इस खाई की दूसरी तरफ के उन असल आमजनों के लिए यह बजट चकर-घिन्नी से कम है क्या? रही बात हम टीवी-अखबार वालों की तो हमें टीआरपी, प्रसार संख्या, पाठक संख्या की घुड़दौड़ में उसी बाजार से मिलने वाले विज्ञापनों से समय मिलेगा तो इस पर भी विचार कर लेंगे!
--दीपचंद सांखला
17 मार्च, 2012

खेल भावना और क्रिकेट (16 मार्च, 2012)

खेलों के सकारात्मक पहलू पर जब भी बात होती है तो एक जुमला आम है ‘खेल को खेल की भावना से खेलना चाहिए’ बहुत ही आदर्श जुमला है यह और अब शायद आउटडेटेड भी। आधुनिक जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों की तरह ही येन-केन तरीके से सफलता को हासिल करने का हठ खेलों में देखा जाने लगा है। निरन्तर प्रैक्टिस और सहज शारीरिक क्षमता से भी अधिक परिणाम प्राप्त करने की भूख ने जहां खिलाड़ियों में ड्रग के सेवन को बढ़ाया वहीं धन की अनाप-शनाप लालसा ने सट्टेबाजी को। खिलाड़ी आये दिन डोपिंग टेस्टों में फेल होते पाये जाते हैं तो क्रिकेटर भी मैच फिक्सिंग के आरोपों से घिरे देखे जाते हैं।
अंग्रेजों के माध्यम से भारत में आये क्रिकेट के दीवानेपन ने यहां के लोकप्रिय रहे फुटबाल और हॉकी दोनों को उपेक्षित कर दिया। इन दिनों क्रिकेट को भी ज्यों-ज्यों खेल की बजाय इंटरटेनमेंट शो के रूप में देखा जाने लगा त्यों-त्यों उसके स्वरूप में उसी हिसाब से व्यापक बदलाव भी होने लगे। खेल के नियमों में छोटे और बारीक बदलाव तो लगभग सभी खेलों में होते रहे हैं लेकिन उन बदलावों के मूल में खेल भावना की मर्यादा का ध्यान जरूर रखा जाता है। लेकिन क्या क्रिकेट में हुए बदलावों के केन्द्र में कहीं खेल भावना रही है? क्रिकेट में विचलन की मोटा-मोट शुरुआत कैरी पैकर से मानी जाती है, उनके उद्देश्य में खोट तो कह सकते हैं लेकिन नीयत की नहीं क्योंकि कैरी पैकर्स ने तो सीधे ही सरकस नाम देकर शो शुरू किये थे। यह बात दीगर है कि उसमें वे कई कारणों से सफल नहीं हुए। पैकर तो ज्यों आये त्यों ही विदा हो लिए लेकिन क्रिकेट में पैसे की छूत छोड़ गये। अब चाहे क्रिकेटर हो या क्रिकेट संघ, सभी की नजर बॉल के ठीक पीछे चलती पैसे की थैली पर रहती है। इसी के चलते यह खेल पहले 50 ओवर में और फिर 20 ओवर में तबदील हुआ। अब आइपीएल तो उस खेल भावना का और भी बंटाधार करने पर तुला है। आइपीएल ने खेल भावना के प्रेरक सूत्र ही छिन्न-भिन्न कर दिये हैं। खिलाड़ियों की बोली ठीक वैसे ही लगती है जैसे किसी सरकारी ऑफिस में पड़े नाकारा सामान की या पशु मेलों में पशुओं की। कहते हैं इन टीमों के बनने से लेकर खेलों तक सटोरियों की भूमिका अन्तर्निहित रहती है, लाखों-करोड़ों के नहीं अरबों के वारे न्यारे होते हैं। क्रिकेट में आजकल दर्शकों में जुनून नहीं देखा जाता है। आयोजक जुनून और सनसनी पैदा करने की तिकड़में करते देखे गये हैं। यद्यपि जुनून को सकारात्मक नहीं माना जा सकता लेकिन यदि जुनून को खेल भावना की नकारात्मक चरम अभिव्यक्ति मानें तो क्रिकेट में यह इस बात का पैमाना है जिससे न केवल खिलाड़ियों में बल्कि उसके दर्शकों में भी खेल भावना की कमी देखी जाने लगी है। इन्ही सब कारणों के चलते क्रिकेट खेल का क्या हश्र होगा पता नहीं, क्योंकि गर्त में जाने की तय कर चुके के लिए बचाव के उपाय भी काम नहीं करते हैं। शायद इसी के चलते सकारात्मक परिणाम यह देखा जा रहा है कि अपने देश में हॉकी फिर से उम्मीदें जगाने लगी है।
दीपचंद सांखला
16 मार्च, 2012

Thursday, January 24, 2019

ममता बनर्जी : सनक या तानाशाही (15 मार्च, 2012)

हमारे एक मित्र चूकते नहीं हैं, जब भी उन्हें अवसर मिलता है एक जुमला उछाल देते है : ‘प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यक्ति के भीतर एक तानाशाह दुबका होता है।’ सुनने और गुनने पर उन्हें इसकी मौन स्वीकृति भी मिल जाती है।
इस का स्मरण कल तब हो आया जब तृणमूल कांग्रेस की सुप्रिमो ममता बनर्जी इस बिना पर बिफर गईं कि उनकी पार्टी के रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने बिना उनकी इजाजत के यात्री किराये में दो पैसे प्रति किलोमीटर की बढ़ोतरी क्यों कर दी, बढ़ोतरी तो त्रिवेदी ने तीस पैसे प्रति किलोमीटर तक की की है लेकिन जिस निर्धन के साथ होेने का दावा ममता करती रही हैं वे निर्धन तो जीवन में कभी-कभार जिस श्रेणी में यात्रा करते हैं उसमें तो दो पैसे प्रति किलोमीटर की बढ़ोतरी ही की गई है। हो सकता है या कहें ऐसा है भी कि जिस गरीब को सोने से पहले भर पेट खाना तक नसीब नहीं होता, उसके लिए शायद यह दो पैसे प्रति किलोमीटर की बढ़ोतरी यात्रा से वंचित करने वाली हो। शेष श्रेणियों में तो किराया बढ़ोतरी के विरोध को घड़ियाली आंसु से ज्यादा नहीं माना जा सकता।  हमारा यह टीवी मीडिया भी कल तब तक इस बढ़ोतरी को विकराल बताता रहा जब तक कि ममता बनर्जी खुद इस बढोतरी पर विकराल नहीं हो गईं। मीडिया की इस तरह की भूमिका विचार और चिंता दोनों का कारण बनती है।
दुनिया में अभी यह तय नहीं हो पाया है कि कोई लोकतांत्रिक देश बालिग कितने वर्षों में होता है। पर इन दिनों की घटनाएं यह जरूर बताती हैं कि ना केवल अपना यह भारत देश बल्कि इसके राजनेता और मतदाता तक आजादी के पैंसठ वर्षों बाद भी बालिग नहीं हुए हैं। संसद और विधानसभाओं में अयोग्य, भ्रष्ट और अपराधी किस्म के लोगों को जिता कर भेजना मतदाताओं के बालिग न होने का प्रमाण है तो कल की ममता बनर्जी की रेल बजट पर प्रतिक्रिया या नेताओं- राजनेताओं के ऐसे ही अन्य उदाहरण इनके बालिग न होेन के हैं।
ममता बनर्जी की कल की प्रतिक्रिया जिसमें रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी से हाथों-हाथ इस्तीफा मांग लेना उनके सनकी होने का चरम उदाहरण माना जा सकता है। वह भूल गईं कि जिस पश्चिम बंगाल में पूरे पांच साल उन्हें राज करना है और यह भी कि राज चलाने का जो भी सिस्टम अब बन गया है उसमें वे ऐसा पहले से कैसे मान बैठी हैं कि इन पांच वर्षों में उन्हें, चाहे विकास के नाम पर ही सही, दिनेश त्रिवेदी द्वारा मामूली किराया बढ़ाने जैसे निर्णय से गुजरना नहीं होगा।
रही बात यूपीए सरकार की तो उसके मुखिया का तर्क यह हो सकता है कि ऐसा घटक दल की मर्जी पर ही निर्भर करता है कि किसे कब तक मंत्री रखना है और कब हटाना है लेकिन सरकार की छवि को बनाये रखने को क्या प्रधानमंत्री द्वारा इसे शालीनता से अंजाम तक नहीं पहुंचाना चाहिए। इससे तो यूपीए सरकार और ममता बनर्जी दोनों की ही भद हो रही है। मनमोहन सिंह अपनी रीढ़ को काम में लें तो ऐसा सम्भव है। और यह आशंका तो बनी ही रहेगी कि कल आम बजट पर भी ममता बनर्जी या अन्य किसी घटक दल के क्षत्रप सिचले रहेंगे?
दीपचंद सांखला
15 मार्च, 2012

न्यायिक सक्रियता : तालाब, आगोर और हमारा शहर (14 मार्च, 2012)

अखबार में छपी खबर या ध्यान में आयी किसी अन्यायी बात का संज्ञान लेकर या स्वप्रेरणा से याचिका दर्ज कर कोर्ट द्वारा सुनवाई करने की उल्लेखनीय खबरें अब ज्यादा आने लगी हैं। ऐसा पहले भी होता आया है, लेकिन कभी-कभार ही। लेकिन पहले जब ऐसा होता था तो उसकी खबर सुर्खियां ज्यादा पाती थीं। इस तरह की घटनाएं अब ज्यादा होने लगी हैं तो उसकी दबे मुंह समीक्षा भी होती है और इधर-उधर की गलियां निकाल कर आलोचना भी। यहां तक कि न्यायपालिका के लिए लक्ष्मण रेखा लांघने तक की बात कर दी जाती है। व्यवस्था के सभी आयाम जब भ्रष्टाचार से तर होते जा रहे हों तो उम्मीद की एकमात्र किरण न्यायालयों से ही आती दीखती है। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि न्यायालय शत-प्रतिशत दूध के धुले हैं लेकिन फिर भी वहां धर्म अभी कायम है।
विद्वान न्यायाधीश मनीष भण्डारी की जयपुर की गंगोत्री रामगढ़ बंधे की आगोर को लेकर सक्रियता इन दिनों चर्चा में है। उनकी इस सक्रियता से सरकार, शासन और बिल्डरों में खलबली है।
हमारे बीकानेर के तालाब और तलाइयों पर काम कर चुके डॉ. ब्रजरतन जोशी के हवाले से बात करें तो उनका कहना है कि अपने इस शहर में कभी पन्द्रह तालाब और चौवन तलाइयां हुआ करती थीं जो इस शहर की पानी की लगभग सभी जरूरतें पूरी करने में सक्षम थीं। और यह भी कि इन तालाबों-तलाइयों में पानी की आगत केवल वर्षा से संभव थी। अब आप ही विचारें जिस थार रेगिस्तान में अपना शहर पसरा है उस थार में बारिश की कितनी अनिश्चितता है। कई-कई मानसून सूखे ही निकल जाते हैं। इस मावठ में भी एक बूंद का ना बरसना बारिश के गणित को समझने वालों के लिए चिन्ता का सबब अभी से ही बन गया है। जानकार कहते हैं कि मावठ का ना बरसना अगली फसल के लिए शुभ संकेत नहीं है। उनकी भाषा में बात करें तो अच्छे जमाने के आसार कम लगते हैं, उन्हें ‘काळ’ की संभावना दीखने लगी है।
बात तो बीकानेर के तालाब-तलाइयों की करनी थी, लग गये मावठ ना होने की चिन्ता में। तो शहर के वो पन्द्रह तालाब और चौवन तलाइयों में से अधिकांश के अवशेष तक अब नहीं है। कुछ हैं भी तो उनकी आगोर नहीं हैं, आगोर यानी आस-पास की वह जमीन जिसकी या तो ढाल तालाब की ओर हो या बरसे पानी को नाळों-खाळों से तालाब तक लाया जा सकता हो। शहर के बचे-खुचे तालाबों की लगभग सभी आगोरों पर कब्जे होकर निर्माण हो चुके हैं। कुतर्की यह भी कह देते हैं कि जब जलदाय विभाग पानी घरों तक पहुंचा ही रहा है तो अब इनकी जरूरत क्या है। वे तब जलदाय विभाग की उन हिदायतों को नजर अंदाज क्यों कर देते हैं जिनमें वे यानी जलदाय विभाग वाले यह भी बताते हैं कि जहां से लेकर पानी वे आप तक पहुंचाते हैं वे स्रोत भी अब सूख रहे हैं। हमें पता होना चाहिए कि यह तालाब और तलाइयां भी इन कुओं को चार्ज करते हैं और यह भी कि ये तालाब और तलाइयां स्थानीय संस्कृति के केन्द्र भी हुआ करते थे। बिना आगोर के अपने सूरसागर को कुओं और कैनाल से तीन वर्ष से ज्यादा समय तक पानी पहुंचाने के बावजूद एक बार भी चौथाई तक ना भर पाना हमारे सीख की प्रेरक नहीं बन सकती क्या?
दीपचंद सांखला
14 मार्च, 2012

एल्युमनी के बहाने सादुल पब्लिक स्कूल की बात (13 मार्च, 2012)

कहते हैं विद्यार्थी जीवन को लगभग सभी याद करते हैं, जिनमें इस याद की तीव्रता ज्यादा होती है और जो स्कूल या कॉलेज विशेष में बिताए लमहों को भूल नहीं पाते वे उस स्कूल-कॉलेज के जिक्र के बहाने भी ढूंढ़ते रहते हैं,  इन बहानों की अभिव्यक्ति का एक तरीका एल्युमनी एसोसिएशन यानी संस्थान विशेष के पूर्व छात्रों का संगठन भी होता है। बीकानेर के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के पूर्व छात्रों का संगठन पिछले पच्चीस से भी ज्यादा वर्षों से सक्रिय है, इसी तरह वेटेनरी कॉलेज, बीके स्कूल और स्पोर्ट्स स्कूल के छात्रों के संगठनों की सुर्खियां भी यदा-कदा देखने को मिलती हैं। मेडिकल कॉलेज, वेटेनरी कॉलेज और बीके स्कूल को छोड़ दें तो स्पोर्ट्स स्कूल के पूर्व छात्रों का दीवानापन समझ से बाहर है। इस स्कूल के इतिहास को देखें तो इसने अब तक तीन करवटें ली है। आजादी से पहले यह वाल्टर नोबल्स स्कूल कहलाता था जिसमें सामन्तों और सेठ-साहूकारों के किशोर ही पढ़ पाते थे। बाद में इसको थोड़ा व्यापक रूप देते हुए सादुल पब्लिक स्कूल नाम दिया गया जिसमें छात्रवृत्तियों के माध्यम से आये दलितों के कुछ किशोरों को छोड़ दें तो उच्च, उच्च मध्यम और जमींदार परिवारों के विद्यार्थियों की पहुंच ही इस संस्थान तक हो पाती थी।
पिछली सदी के आठवें दशक के मध्य में जब देश के प्रत्येक राज्य में एक स्पोर्ट्स स्कूल विकसित करने की घोषणा हुई तो राजस्थान सरकार को सादुल पब्लिक स्कूल का परिसर इसके लिए सबसे उपयुक्त लगा। क्योंकि इसमें न केवल एक से अधिक खेल मैदान थे बल्कि इन्डोर स्टेडियम, टेनिस कोर्ट, बास्केट बॉल  कोर्ट, बैडमिन्टन कोर्ट, वॉलीबॉल कोर्ट आदि-आदि सहित व्यवस्थित तीन छात्रावासों के साथ भव्य भवन भी था।
नोबल्स स्कूल और पब्लिक स्कूल के समय की बात करें तो जिन पारिवारिक अनुकूलताओं से विद्यार्थी आते थे उनको हासिल सुविधाओं और संसाधनों के चलते वे जीवन में अपने लिए कुछ ना कुछ उल्लेखनीय उपलब्ध कर ही लेते थे, इसी के चलते कई उल्लेखनीय व्यक्तित्व इस स्कूल की देन मान सकते हैं। लेकिन पिछले पैंतीस से ज्यादा वर्षों से, जबसे इसे स्पोर्ट्स स्कूल में परिवर्तित किया गया, तब से इस स्कूल की उपलब्धि-व्यक्तित्व अंगुलियों पर गिनने जितने भी नहीं कहे जा सकते। अन्य सरकारी संस्थानों की ही तरह यह स्कूल भी लगातार बद से बदतर स्थितियों में गुजर-बसर कर रहा है। इसके मानी यह नहीं है कि इसको फंड नहीं मिल रहे हैं। आज भी वहां लाखों रुपये मासिक के सार्वजनिक धन का दुरुपयोग हो रहा है। दुरुपयोग इसलिए कहा क्योंकि इस धन से कोई बहुत उल्लेखनीय परिणाम नहीं मिल रहे। खेलों में राज्य के दो-चार नाम कभी चमकते भी हैं तो उनमें इस स्कूल का कोई योगदान नहीं देखा गया।
उक्त सब लिखने के मानी केवल आलोचना करना मात्र नहीं है, एल्युमनी एसोसिएशन को सुझाव देना भर है कि केवल बिल्डिंगों को, मैदानों को ठीक करवाने से या इधर-उधर से फंड उपलब्ध करवाने मात्र से इन संस्थानों की दशा सुधरने वाली नहीं है। जरूरत आत्ममुग्धता छोड़ कर वहां के अध्यापकों की, खेल प्रशिक्षकों की और अन्य कर्मचारियों की मंशा बदलने की है ताकि वह अपनी ड्यूटी को– अपने धर्म को निभायें और यह भी कि किसी भी तरह की फैकल्टी और स्टाफ की यदि कमी है तो प्रदेश से ड्यूटी-फुल लोगों को चुन कर लगवाने के प्रयास कर इस संस्थान को पूर्णता प्रदान करें। नहीं तो इस स्पोर्ट्स स्कूल के सन्दर्भ में माना यही जायेगा कि इस के परिसर रूपी शरीर में स्पोर्ट्स स्कूल रूपी तीसरी आत्मा के रहते दूसरी आत्मा सादुल पब्लिक स्कूल के मोह रखने वाले  बौराये हुए हैं।
दीपचंद सांखला
13 मार्च, 2012

अवैध खनन में बीकानेर (12 मार्च, 2012)

बीकानेर में अवैध जिप्सम के दो डम्पर खान विभाग द्वारा कल तड़के पकड़े जाने के समाचार हैं। इसे अवैध इसलिए कहा गया कि बिना सरकारी रॉयल्टी चुकाये यह खनन किया गया था। अभी देश में जो व्यापार सबसे ज्यादा फल-फूल रहा है वह अवैध खनन का ही है, सभी जानते होंगे कि कर्नाटक की भाजपा सरकार इस अवैध खनन के चलते ही लगातार हिचकोले खा रही है और गोवा की कांग्रेस सरकार इसी तरह के आरोपों से बदनाम हुई और इन चुनावों में मतदाता ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया।
आंध्रप्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी की बगावत को भी कांग्रेस ने इसी अवैध खनन के आरोपों की चाबी से ही लॉक किया है। राजग में प्रधानमंत्री पद के कई दावेदारों में से एक सुषमा स्वराज की भी बोलती बंद उनके मुंह-बोले बेटों रेड्डी बंधुओं के कारण ही हुई, कर्नाटक के इन खनन माफिया रेड्डी बंधुओं के जिक्र भर से सुषमा स्वराज असहज हो जाती हैं। देखा जाय तो देश का कोई भी प्रदेश इस अवैध खनन से अछूता नहीं, क्योंकि यह ऐसा व्यापार है जिसमें माल का भुगतान आपको नहीं करना पड़ता और बेचने पर भुगतान आपको मिलेगा ही। अवैध कारोबार में खनन ही सबसे मुफीद माना जाने लगा है, बाकी चाहे आप किसी भी तरह का अवैध व्यापार करें उसमें माल खरीदने को कुछ ना कुछ चुकाना ही होता है। कहते हैं इसी के चलते पिछले सप्ताह मध्यप्रदेश में एक नौजवान आइपीएस अधिकारी नरेन्द्रकुमार को इसलिए मरना पड़ा, क्योंकि वे ईमानदार थे और अवैध खनन करने वालों को सहयोग करने के बजाय बाधा बने हुए थे। यह सब तो देश में इन दिनों चल रहे अवैध खनन के कच्चे चिट्ठे की बानगी भर है।
इस पर अब हम अपने जिले के संदर्भ में भी बात कर लेते हैं। पिछले कुछ वर्षों तक अपने जिले में अवैध खनन से सम्बन्धित खबरें बजरी को लेकर ही आती थीं जिस पर ज्यादा गौर इसलिए भी नहीं किया जाता था कि यह काम ऊँट गाड़ों से आजीविका चलाने वालों से सम्बन्धित था बल्कि उन गाड़े वालों पर कभी कोई कार्यवाही होती भी थी तो लोगों की उन्हें सहानुभूति ही हासिल होती थी, अलबत्ता गाड़ेवाले तो रॉयल्टी चुकाने से जी कम ही चुराते थे, क्योंकि इनकी भूख बड़े लोगों से कम थी।
जिप्सम की बढ़ी मांग और इस व्यापार में आई गलाकाट प्रतिस्पर्धा के चलते इसका व्यापार करने वाले अधिकतर उद्योगपति इसकी रॉयल्टी बचाने की पुरजोर जुगत में लगे रहते हैं। खनन और ढुलाई के अपने-अपने माफिया समूह काम करने लगे हैं। इसमें भी पकड़ा पकड़ी की खबरें तभी आती हैं जब या तो यह माफिया सरकारी नंबरदारों को अवैध कमाई में से उनका हिस्सा देने में नीयत खराब कर लेते हैं या फिर सरकारी नुमाइन्दों को अपने को सौगंध के सच्चे दिखाने को दो-एक मामलों की दर्जगी की रस्म अदायगी भर करते है।
धन को लेकर हवस इतनी बढ़ गई है कि सरकार को रॉयल्टी न देनी पड़े इसके लिए ये लोग अपनी आत्मा से लेकर मिनख तक मारने से भी गुरेज नहीं करते हैं। जबकि सभी सार्वजनिक सुविधाएं जनता द्वारा दी गई रेवेन्यु से संभव होती हैं। कह सकते हैं कि इन सार्वजनिक सुविधाओं में भारी गड़बड़ियां हैं तो उसे ठीक करने को इन्टरपोल की पुलिस तो आयेगी नहीं। इसके लिए तो हमें ही हमारी मंशा बदलनी होगी।
दीपचंद सांखला
12 मार्च, 2012

यशपाल गहलोत : मनोनयन के मायने (10 मार्च, 2012)

बीकानेर शहर और देहात कांग्रेस अध्यक्षों की नियुक्ति हो गई है। इस संदर्भ की अपनी पिछली टिप्पणियों में लिखी बातों का तारीखवार स्मरण करवाना चाहता है:
‘बीकानेर शहर कांग्रेस अध्यक्ष के मनोनयन की गुत्थी सुलझ नहीं रही है। दूध के जले कल्ला बन्धु अब किसी भी तरह की रिस्क नहीं लेना चाहते। एक बार पार्टी से निष्कासन की पीड़ा भोग चुके बीडी कल्ला और उनके अग्रज शहर कांग्रेस अध्यक्ष जनार्दन कल्ला इस पुरजोर जुगत में हैं कि पार्टी का चरित्र डागा चौक कांग्रेस का ही बना रहे। इसीलिए वे इस ताबड़तोड़ कोशिश में हैं कि उनका कोई पारिवारिक या दरबारी यूआइटी का चेयरमैन भले ही ना बने पर शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद पर उनके परिवार के या किसी विश्वस्त दरबारी का ही मनोनयन हो। इसके लिए जितने मुस्तैद कल्ला बन्धु हैं, उतने सक्रिय दूसरे गुट के नेता शायद अब नहीं हैं।
कल्ला बन्धु अगले विधानसभा चुनावों में बीकानेर शहर की दोनों सीटों के उम्मीदवारों के पैनल बनाने का काम किसी भी स्थिति में किसी और के हाथों में नहीं आने देना चाहते। 1998 के चुनावों से पहले बीडी कल्ला का पार्टी से निष्कासन और 1998 के उम्मीदवारों की सूची में नाम तक न होने की पीड़ा वो कभी भूल नहीं सकते!’ (6 दिसम्बर 2011)
‘न्यास में अध्यक्ष अल्पसंख्यक, महापौर ब्राह्मण के रहते ब्राह्मण बीडी कल्ला की पश्चिम सीट से दावेदारी तभी व्यावहारिक मानी जाएगी जब शहर कांग्रेस अध्यक्ष ओबीसी का या दलित हो।’ (10 फरवरी 2012)
‘शहर अध्यक्षी के लिए मोटा-मोट तीन गुट बने हुए हैं कल्ला गुट, भानीभाई गुट और राजूव्यास-तनवीर मालावत गुट। पहले दो गुटों की ताकत तो अपने दम पर है पर तीसरे गुट की ताकत के तार मोतीलाल बोरा और तनवीर के अपने बनाये रिश्तों के चलते है। हालांकि भानीभाई और तनवीर गुटों के बीच संवाद तो है लेकिन वे दोनों ही अपनों पर अड़े हैं। वह इस शाश्वत वाकिये को भूल जाते हैं कि दो की लड़ाई में तीसरा फायदा उठा ले जाता है। शहर राजनीति में पार्टी की अंदरूनी लड़ाई में फिलहाल इन दोनों गुटों की लड़ाई कल्ला गुट से है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त की कूटनीति पर चलते होना तो यह चाहिए था कि दोनों एक होकर अपना काम निकाल ले जाते। लेकिन कल्ला विरोधी दोनों गुटों में इस राजनीतिक चतुराई की कमी के चलते देखा गया है कि लाख विरोधों के बाद भी कल्ला अपनी चलाने में सफल हो जाते हैं।
जो परिस्थितियां बन रही है उसमें राजू व्यास-तनवीर गुट यदि भानीभाई गुट के लिए त्याग करें तो ऐसा लम्बी पारी में उनके हित में जायेगा और अगर वे अड़े रहते हैं तो कल्ला इतने सक्षम तो हैं ही कि वे अपने ही किसी को इस पद पर ले आयेंगे।’ (5 मार्च 2012)
उपरोक्त अपनी तीनों टिप्पणियों का पुनरोल्लेख यह बताने के लिये किया है कि इस अध्यक्षी प्रकरण में जैसा समझा और अनुमान लगाया वह सच निकला।
यशपाल गहलोत युवा हैं, उत्साही हैं, पिछड़ा वर्ग से हैं और कहते हैं सभी के काम आने वाले भी हैं तभी उन्होंने महिलाओं के लिए सुरक्षित वार्ड नं. 4, जिसमें जस्सूसर गेट क्षेत्र का वह हिस्सा आता है जिसमें भाजपा के तीन दिग्गजों देवीसिंह भाटी, नन्दलाल व्यास और गोपाल गहलोत के आवास है, अपनी पत्नी को कांग्रेसी उम्मीदवार के तौर पर पार्षद बना लाए। ऐसी ही चतुराई उन्हें शहर अध्यक्षी करते दिखानी होगी जिसमें उन्हें डागा चौक के प्रति अपनी विश्वसनीयता भी बनाये रखनी है और डागा चौक के विरोधियों को सकारात्मक ढंग से साधना भी है।
रही बात दूसरे दोनों गुटों के हाथ मलने की तो भानीभाई तो अपनी पारी लगभग खेल चुके हैं। राजनीति की लम्बी पारी अभी तनवीर मालावत को खेलनी है। उन्होंने इस अध्यक्षी मुद्दे पर भानीभाई का समर्थन ना करके समस्याएं अपने लिए ही बोई हैं--राजू व्यास तो केवल मोतीलाल वोरा के दामाद होने के नाते पनपे राजनीतिक शौक को पूरा करने के लिए सक्रिय हुए हैं, वे तो फिर भी कहीं कुछ ले पड़ेंगे। लेकिन तनवीर ने जो राजनीतिक अपरिपक्वता दिखाई उसे लम्बे समय तक खुद उन्हें ही भुगतना होगा।
रही बात देहात कांग्रेस की तो लक्ष्मण कड़वासरा को कायम रख कर आलाकमान ने रामेश्वर डूडी को अवसर दिया है कि वह परिपक्वता दिखायें। वीरेन्द्र बेनीवाल के किशनलाल गोदारा और रामेश्वर डूडी के गुमानाराम जाखड़ दोनों को दर किनार करने से दोनों के बीच शीतयुद्ध की तीव्रता बढ़ने से रोकने का काम कड़वासरा की पुनर्नियुक्ति करेगी ही।
-- दीपचंद सांखला
10 मार्च, 2012

कांग्रेस और भाजपा के लिए आत्म निरीक्षण का समय (7 मार्च, 2012)

कुलदीप नायर के साथ कल एनडीटीवी पर विनोद दुआ पांच राज्यों के चुनावी नतीजों पर बातचीत कर रहे थे। कुलदीप नायर देश के जाने-माने पत्रकार हैं, वे लगभग आजादी के समय से ही भारत और पड़ौसी मुल्कों की राजनीति और समाज को बहुत बारीकी से देखते समझते आये हैं। नायर व्यक्ति की अधिकतम और आदर्श स्वतंत्रता के हिमायती भी हैं।
भारत संघ के राज्यों में स्थानीय पार्टियों के उद्भव पर नायर का मानना था कि केन्द्र द्वारा राज्यों को अधिक अधिकार देने का समय आ गया है--वे मानते हैं कि केन्द्र के पास केवल रक्षा, विदेश और संचार सम्बन्धी अधिकार ही रहने चाहिए। शेष सभी मामलों में राज्यों को स्वायत्त कर दिया जाना चाहिए। विनोद दुआ जो स्वयं जाने माने टीवी-पत्रकार हैं, नायर से पूरी तरह सहमत नहीं लगे। दुआ ने इतिहास का हवाला देकर बताया कि जब जब केन्द्र कमजोर हुआ है, देश के टुकड़े हुए हैं। इसके उत्तर में नायर का यह कहना था कि उस समय सेना या रक्षा जैसे विभाग केन्द्र में केन्द्रीकृत नहीं थे इसलिए ऐसा हुआ था।
उक्त जानकारी तो यूहीं दी गई है ताकि पाठकों को इन मुद्दों पर भी विचार करना चाहिए। लेकिन इसी बहाने नागरिकों को और इन चुनावों के नतीजों के बहाने राष्ट्र स्तर की पार्टियां होने का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए आत्म निरीक्षण का समय है। कुल जमा दो पार्टियों में एक कांग्रेस, तीन चौथाई भाजपा और एक चौथाई वाम दलों को मान सकते हैं। कांग्रेस को स्थापित हुए सवा सौ से ज्यादा वर्ष हो गये हैं। इसी के चलते विपक्षी दल उस पर बूढ़ी हो जाने का तंज भी करते हैं, पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में कांग्रेस की जो स्थितियां बनी है वे विचारणीय तो थी ही इन चुनावी नतीजों के बाद तो चिन्ताजन्य भी हो गई हैं। ऐसे समय में किसी भी पार्टी में युवाओं से उम्मीदे बढ़ जाती हैं लेकिन कांग्रेस में घोषित युवा प्रतीक राहुल गांधी में कोई परिपक्वता अभी तक तो परिलक्षित नहीं हो रही है अन्य कोई योग्य युवा शायद इसलिए मुखर नहीं हो रहे है कि कहीं इसे उनका राहुल पर ओवरटेक नहीं मान लिया जाय।
दूसरी जो पार्टी अपने राष्ट्रीय होने का दम भरती है वह है भाजपा। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बात करें तो कांग्रेस और भाजपा दोनों का चरित्र एक-सा है लेकिन भाजपा के लिए दूसरा नकारात्मक पहलू है उसका साम्प्रदायिक होना। भाजपा के कई खेवणहार यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस सांप्रदायिक संकीर्णता के चलते वे भारत जैसे देश में अपनी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत को कभी भी तीन चौथाई से पूर्णता में परिवर्तित नहीं कर सकते लेकिन उनका सत्यासी वर्षीय मातृ संगठन आरएसएस बतीस वर्ष की युवा हो चुकी भाजपा की अंगुली छोड़ने का इच्छुक नहीं दीखता है। बीच-बीच में भाजपा ने जब-जब खुद मुख्त्यारी दिखाते हुए संगठन लाइन से अलग निर्णय लिए तो वह सफल होती दिखी। ताजा उदाहरण गोवा का है जहां पार्टी ने संगठन लाइन को छोड़ते हुए अधिकांश टिकट ईसाइयों को दिये और उनमें भरोसा दिखाया तो न केवल सफल हुई बल्कि वहां राज करती कांग्रेस को पछाड़ कर सरकार बनाने भी जा रही है। नहीं समझ आता कि भारत जैसे देश को  भाजपा कब समझेगी और अपने साम्प्रदायिक चोले को उतार फेंकेगी अन्यथा राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपनी तीन-चौथाई पार्टी की हैसियत से आगे वह कभी नहीं बढ़ पायेगी, रही बात भ्रष्टाचार की तो उसमें तो भाजपा भी कांग्रेस से कमतर नहीं है। बाकी सब मुद्दे तो वैश्वीकरण और बाजारवाद की शरण में पहले ही जा चुके हैं।
शेष चौथाई राष्ट्रीय पार्टियों (वामदलों) के बारे में फिर कभी बात करेंगे--लेकिन कुलदीप नायर और विनोद दुआ की बातचीत के परिप्रेक्ष्य में भाजपा और कांग्रेस दोनों से गहरे आत्म निरीक्षण की उम्मीद की जाती है।
-- दीपचंद सांखला
7 मार्च, 2012

बीकानेर से लोकसभा के लिए दावेदारी और भाटी, अर्जुन, गोविन्द+5 के दावं


सत्ता-राजनीति की बात ऋतु-चक्र के हवाले से करें तो अपने देश-प्रदेश में यह चक्र पांच वर्षों का है और उसमें भी राजस्थान का चुनावी-चतुर्मास लगभग 18 महीनों का। विधानसभा चुनाव से शुरू हो जाने वाला यह मौसम लोकसभा, पंचायतों, जिला परिषदों और स्थानीय निकायों के चुनावों सहित डेढ़ वर्ष चलता ही है। विधानसभा चुनावों की गर्माहट से निपटे तो लोकसभा चुनावों की झिरमिर शुरू हो गई। केन्द्र में और अब तक सूबे में राज भोग रही भाजपा जहां अभी ताजा हार से उबरने की कोशिश में ही है वहीं सूबे की सत्ता पर काबिज हुई कांग्रेस लोकसभा चुनावों की तैयारी में लग गई है। प्रदेश कांग्रेस संगठन की कमान सचिन पायलट के हाथ भले ही हो लेकिन चुनावी घोड़े दौड़ाते व्यावहारिक राजनीति के शातिर अशोक गहलोत नजर आ रहे हैं। मुख्यमंत्री का पद संभालते ही जहां वे शासन-प्रशासन को दौड़ाते दिखे, वहीं इस व्यस्तता में भी गहलोत संगठन को चेतन रखने से भी नहीं चूक रहे।

शासन संभाले महीना होने से पहले ही लोकसभा चुनाव की तैयारी में लग कर अशोक गहलोत ने एक अच्छे संगठनकर्ता होने की एक बानगी और दे दी है। प्रदेश के विभिन्न लोकसभा क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की अलग-अलग बैठकें लेकर उन्होंने फीडबैक लेना शुरू कर दिया है। इन बैठकों में अशोक गहलोत ने अपने इर्द-गिर्द प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे के साथ-साथ क्षेत्रीय क्षत्रपों को भी बिठाकर बखूबी अहसास करवा दिया कि राजस्थान में कांग्रेस की आकाशगंगा में कौन किस स्थिति में है।

बात अब बीकानेर लोकसभा क्षेत्र की कर लेते हैं। भाजपा से शुरू करें तो वर्तमान सांसद और केन्द्रीय राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल की उम्मीदवारी बावजूद देवीसिंह भाटी की चुनौती के सुरक्षित है। एक तो पार्टी में अर्जुनराम के लिए किसी अन्य दावेदार ने चुनौती देने जैसी हैसियत अभी तक नहीं बनायी है। इधर खुद देवीसिंह की हैसियत 2003-04 वाली तो दूर की बात 2013 में खुद—2018 में पुत्रवधू के हार जाने और पार्टी वरिष्ठों के साथ अपने व्यवहार के चलते उनके रुतबे की गत ऐसी हो ली कि पार्टी हाइकमान में भी अब उनकी सुनी जाएगी, नहीं लगता। हां, देवीसिंह भाटी मेघवाल की हार में कुछ योगदान जरूर दे सकते हैं यदि वे हार रहे हैं तो! कुल जमा बात यही कि हराना-जीतना तो जनमत के अधीन है लेकिन बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से अर्जुनराम मेघवाल की भाजपा से उम्मीदवारी को लेकर संशय नहीं लगता। इतनी चतुराई तो मेघवाल भी बरत रहे हैं कि कुल जमा दो जनों की हो चुकी भाजपा हाइकमाननरेन्द्र मोदी और अमित शाह दोनों के वे अन्दर तक घुस लिए हैं।

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र में उम्मीदवारी का असल पेच है तो वह कांग्रेस के लिए है। उसमें कुछ राहत इस बात की है कि क्षेत्र के स्वयंभू क्षत्रप रामेश्वर डूडी ने अपना रुतबा अपनी ही कारगुजारियों से कम कर लिया जिसके चलते आगामी लोकसभा चुनाव में अपनी बात डूडी खम ठोककर मनवा पाएंगेऐसा दम उनका अब लग नहीं रहा। हालांकि डूडी अपने लाभ के लिए उम्मीदवारी का लॉलीपोप दिखा कर लगातार इधर-उधर जाकर अप्रासंगिक हो चुके रेवंतराम को पार्टी में चाहे ले आए हों, डूडी उनके टिकट के लिए कुछ कर पाएंगे भी, नहीं लगता। भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे मदनलाल मेघवाल को भी डूडी ने खाजूवाला से उम्मीदवारी दिला देने का आश्वासन जता समयपूर्व सेवानिवृत्ति दिलवा दी थी।  मदन मेघवाल को खाजूवाला से टिकट जब नहीं दिलवा पाये तो आश्वस्त किया कि बीकानेर क्षेत्र से लोकसभा की उम्मीदवारी दिलवा देंगे। देखना यही है कि डूडी रेंवतराम और मदन मेघवाल में से किसके लिए कोशिश करेंगे। कांग्रेस से एक उम्मीदवार शंकर पन्नू भी पुन: हो सकते हैं लेकिन ज्यादा मुफीद उनके लिए गंगानगर लोकसभा क्षेत्र ही रहेगा।

बीकानेर में कांग्रेस से उम्मीदवार कौन हो सकता है? इसकी भूमिका पिछले विधानसभा चुनावों में ही बन चुकी। रामेश्वर डूडी ने जिले की टिकटों के वितरण में जिस तरह हस्तक्षेप किया और मतदान पूर्व जो कारस्तानियां की उसके चलते वे ना केवल जिले में अकेले पड़ गये बल्कि लोकसभा क्षेत्र के आठवें विधानसभा क्षेत्र अनूपगढ़ से कांग्रेसी उम्मीदवार रहे कुलदीप इन्दौरा भी उनके साथ नहीं हैंं। 21 हजार से ज्यादा वोटों से चुनाव हारने के बावजूद कुलदीप इन्दौरा बीकानेर से लोकसभा के टिकट की दावेदारी कर रहे हैं। हाल ही में जयपुर में मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और पार्टी प्रभारी की उपस्थिति में जो बैठक हुई उसमें क्षेत्र के कुल आठ में से दो विधानसभाई क्षेत्रों से रहे कांग्रेसी प्रत्याशियों ने आश्चर्यजनक ढंग से गोविन्द मेघवाल की उम्मीदवारी का पक्ष लिया है। ऐसे में पार्टी के लिए किसी अन्य को उम्मीदवार बनाना मुश्किल होगाचाहे इसके लिए खाजूवाला में उपचुनाव ही क्यों ना करवाना पड़े क्योंकि गोविन्द मेघवाल वर्तमान में खाजूवाला से विधायक हैं, उन्होंने वहां लोकसभा क्षेत्र की आठों विधानसभा क्षेत्रों में से सर्वाधिक 31 हजार वोटों से अपनी जीत दर्ज की है। गोविन्द मेघवाल को उम्मीदवारी देने में कोई रणनीतिक अड़चन आए तो उनकी बेटी सरिता चौहान उम्मीदवार हो सकती है। सरिता चौहान ना केवल खाजूवाला पंचायत समिति की प्रधान हैं बल्कि पूरे खाजूवाला विधानसभा क्षेत्र में अपने पिता के साथ सक्रिय भी रहती हैं। कांग्रेस यदि महिला उम्मीदवारी का कोटा तय करती है तो उस स्थिति में भी सरिता को प्राथमिकता मिल सकती है।

अंत में बात रामेश्वर डूडी की फिर कर लेते हैं। ऐसा सुनते हैं कि डूडी चूरू लोकसभा सीट से उम्मीदवारी पाने की कोशिश में लगे हैं। संबंधों को परोटने में डूडी का जो तरीका रहा है, उसके चलते चूरू तो क्या प्रदेश के किसी भी लोकसभा क्षेत्र में डूडी की दाल गलती नहीं लग रही है, चूरू में तो हरगिज नहीं। चूरू के प्रभावी जाट नेता नरेन्द्र बुडानिया की हाइकमान तक अंतरंग पहुंच है और जहां तक हो जिसे वे चाहेंगे, संभाग के इस दूसरे जाट प्रभावी क्षेत्र से उम्मीदवारी भी उसी को हासिल होगी।
दीपचन्द सांखला
24 जनवरी, 2019