लोकायुक्त नियुक्ति के विरोध में दायर मुकदमे में गुजरात सरकार को हार का सामना करना पड़ा। गुजरात हाइकोर्ट के फैसले में लोकायुक्त की नियुक्ति को वैध ठहराया गया है। इस फैसले में जजों ने वहां के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के अलोकतान्त्रिक रवैये के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां भी की हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था में यद्यपि यह अन्तिम फैसला नहीं है, क्योंकि सुप्रीमकोर्ट में जाने का गुजरात सरकार के पास विकल्प बाकी है। इसीलिए इसे अन्तिम फैसला नहीं कहा जा सकता। तब भी सामान्यतः देखा गया है कि हाइकोर्ट के अधिकांश फैसलों पर सुप्रीमकोर्ट सहमत होता है।
इसी मुद्दे पर कल एनडीटीवी इण्डिया के प्राइमटाइम में बहस हो रही थी जिसकी एंकरिंग रवीशकुमार कर रहे थे। इस बहस में भारतीय जनता महिला मोर्चा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मीनाक्षी लेखी भाजपा की ओर से शिरकत कर रहीं थीं। लेखी ने बीच बहस एक विवादास्पद और लगभग खीज भरी टिप्पणी करते हुए जो कहा उसका मोटा-मोट मतलब यही था कि हाइकोर्ट के जजों की नियुक्ति चूंकि केन्द्र सरकार करती है इसीलिए इस तरह के फैसलों की संभावना बनी रहती है। रवीशकुमार को एक सजग और सटीक जवाब देने वाले एंकर के रूप में देखा-सुना जाता है लेकिन, इस तरह की विवादास्पद टिप्पणी पर न तो रवीशकुमार ने कोई टिप्पणी की ना ही बहस में शामिल वरिष्ठ माने जाने वाले दो कानूनी सलाहकारों ने ही कोई प्रतिक्रिया जाहिर की। देखा गया है कि इस तरह की बहसें अकसर समय के दबाव की शिकार हो जाती हैं। मीनाक्षी लेखी जो स्वयं एक वरिष्ठ कानूनी सलाहकार के रूप में जानी जाती हैं और यह कतई नई माना जा सकता कि उन्हें हाइकोर्ट जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया का कोई ज्ञान नहीं होगा। इसीलिए हमने उनकी टिप्पणी को खीज भरी कहा है।
हाइकोर्ट जजों की नियुक्ति प्रक्रिया यह है कि सुप्रीम कोर्ट नाम तय करके केवल औपचारिक स्वीकृति के लिए विधि मंत्रालय को भेजता है जो एक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा भर है, ऐसा होना भी चाहिए। केवल इसी प्रक्रिया के आधार पर लेखी का यह कहना कि हाइकोर्ट जजों की नियुक्ति केन्द्र की यूपीए सरकार द्वारा की गई, इसीलिए ऐसे फैसले की उम्मीद बनी रहती है--क्या सचमुच ऐसा है? न केवल भारतीय शासन प्रणाली पर बल्कि उससे भी ज्यादा भारतीय न्याय प्रणाली पर यह टिप्पणी बेहद गंभीर है जिसे कल बहस में शामिल पूरे पैनल ने अनसुना कर दिया था। क्या सुप्रीम कोर्ट इस टिप्पणी पर कोई संज्ञान लेगा?
-- दीपचंद सांखला
19 जनवरी, 2012
इसी मुद्दे पर कल एनडीटीवी इण्डिया के प्राइमटाइम में बहस हो रही थी जिसकी एंकरिंग रवीशकुमार कर रहे थे। इस बहस में भारतीय जनता महिला मोर्चा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मीनाक्षी लेखी भाजपा की ओर से शिरकत कर रहीं थीं। लेखी ने बीच बहस एक विवादास्पद और लगभग खीज भरी टिप्पणी करते हुए जो कहा उसका मोटा-मोट मतलब यही था कि हाइकोर्ट के जजों की नियुक्ति चूंकि केन्द्र सरकार करती है इसीलिए इस तरह के फैसलों की संभावना बनी रहती है। रवीशकुमार को एक सजग और सटीक जवाब देने वाले एंकर के रूप में देखा-सुना जाता है लेकिन, इस तरह की विवादास्पद टिप्पणी पर न तो रवीशकुमार ने कोई टिप्पणी की ना ही बहस में शामिल वरिष्ठ माने जाने वाले दो कानूनी सलाहकारों ने ही कोई प्रतिक्रिया जाहिर की। देखा गया है कि इस तरह की बहसें अकसर समय के दबाव की शिकार हो जाती हैं। मीनाक्षी लेखी जो स्वयं एक वरिष्ठ कानूनी सलाहकार के रूप में जानी जाती हैं और यह कतई नई माना जा सकता कि उन्हें हाइकोर्ट जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया का कोई ज्ञान नहीं होगा। इसीलिए हमने उनकी टिप्पणी को खीज भरी कहा है।
हाइकोर्ट जजों की नियुक्ति प्रक्रिया यह है कि सुप्रीम कोर्ट नाम तय करके केवल औपचारिक स्वीकृति के लिए विधि मंत्रालय को भेजता है जो एक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा भर है, ऐसा होना भी चाहिए। केवल इसी प्रक्रिया के आधार पर लेखी का यह कहना कि हाइकोर्ट जजों की नियुक्ति केन्द्र की यूपीए सरकार द्वारा की गई, इसीलिए ऐसे फैसले की उम्मीद बनी रहती है--क्या सचमुच ऐसा है? न केवल भारतीय शासन प्रणाली पर बल्कि उससे भी ज्यादा भारतीय न्याय प्रणाली पर यह टिप्पणी बेहद गंभीर है जिसे कल बहस में शामिल पूरे पैनल ने अनसुना कर दिया था। क्या सुप्रीम कोर्ट इस टिप्पणी पर कोई संज्ञान लेगा?
-- दीपचंद सांखला
19 जनवरी, 2012
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