Thursday, January 21, 2021

राहुल गांधी : उम्मीद की एक किरण

 'किसी नेता की प्रशंसा करना पत्रकार का काम नहीं है लेकिन इस घोर अंधकार में एक धवलबिन्दु की पहचान करना भी अपराध है।'

फेसबुक मित्र पत्रकार पंकज श्रीवास्तव की ये टीप राहुल गांधी की हाल ही के संवाददाता सम्मेलन के बाद की है। उस पूरी टिप्पणी को नीचे उद्धृत करने से पहले उसके आखिरी पैरे की उक्त दो लाइनों से अपनी बात शुरू करना जरूरी लगा।

मानव के सर्वाधिक अनुकूल शासन व्यवस्था अभी तक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली ही मानी गयी है। और शासक के योग्य उसे ही माना गया है जिसका विश्वास लोकतांत्रिक मूल्यों में अधिकतम हो। फिलहाल जो शासन समूह केन्द्र में है, वह जिस संघ परिवार से संबंध रखता है उसके इतिहास, उसके विचार और उसके कार्यकलापों पर नजर डालें तो स्पष्ट है कि उनका लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास नहीं है। ऐसे में पत्रकारों का दायित्व बनता है कि वह जनता को उसके बारे में अवगत करवाएं। मीडिया का एक प्रमुख कर्तव्य है कि वह शासक समूह का बेहतर विकल्प लगातार तलाशे और उससे जनता को अवगत करवाए, लेकिन इसके उलट अधिकांश मीडिया सरकार और प्रकारांतर से संघ की गोदी पर बैठा नजर रहा है, इसे नजरअन्दाज करके कि मीडिया के अस्तित्व की पहली शर्त लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। 

लेकिन हो यह रहा है कि 2004 में सत्ताच्युत होने के बाद से संघानुगामी इकाइयां छटपटाने लगीं और अपने विरोधियों, खासकर कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ झूठ के प्रचार को कई गुणा कर दिया।

2011 की वह सुबह याद है जब बीकानेर के वृद्धजन भ्रमण पथ पर दो बुकलेट जमीन पर बिखरी हुई मिलीं, जिनमें से एक में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का झूठा चरित्र हनन था तो दूसरी में राहुल गांधी का। बहुरंगी आवरण के साथ 12-12 पृष्ठों की यह पुस्तिकाएं संस्कृति रक्षक संघ नाम के किसी संगठन द्वारा प्रकाशित थीं, जिन पर संस्कृति रक्षक संघ का पता भी छपा था। 2004 और 2009 का चुनाव हारने के बाद इस विचारधारा के लोग ऐसे ही झूठे प्रचार में लगे हैं जिसमें वे बीते 90 वर्षों से जुटे हैं। 2014 के आम चुनाव से पहले तो वे पूरी मुस्तैदी से लग गये थे। 

तब केन्द्र में उसी कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार थी जिसे आपातकाल के नाम पर लोकतंत्र की कसौटी पर कसा जाता रहा है। उसी सरकार के होते संघानुगामी इकाइयां उसके शीर्ष नेताओं का देशव्यापी झूठा चरित्र हनन कर रही थी, और वह सरकार अभिव्यक्ति और लोकतंत्र के नाम पर नजरअंदाज थी। 

तब भी और आज भी कांग्रेसी सरकारों की नीतियों का प्रबल विरोधी होने के बावजूद यह सब बताने का मकसद यही है कि मैं स्वयं बीकानेर में उन 9-10 लोगों में शामिल था जो कांग्रेस शासन के भ्रष्टाचार के खिलाफ 2011 में बीकानेर में एक दिन के सांकेतिक अनशन पर बैठे थे।

पत्रकार के लिए निष्पक्ष होना और लोकतंत्र को साध्य मानना जरूरी है। उसका एक कर्तव्य लोकतंत्र विरोधी कारनामों को जनता तक पहुंचाते रहना भी है। शासन फिर किसी भी दल या विचारधारा का हो। उसी कर्तव्य का निर्वहन करते हुए कांग्रेसनीत सरकार थी तब कांग्रेस और उसके शीर्ष नेताओं को अपने लेखन में कठघरे में खड़ा करता रहा, जिनमें सोनिया गांधी, मनमोहनसिंह और राहुल गांधी तक शामिल हैं। इतना ही नहीं, राहुल की हिन्दी के प्रति और अपनी अंग्रेजी के प्रति अनुकूलता ना होने के चलते राहुल के व्यक्तित्व को खारिज भी कम नहीं किया है। इसे भूलते हुए कि इस बहुभाषी देश में कोई गैर हिन्दी भाषी भी देश की बागडोर संभाल सकता है, अंग्रेजी या किसी अन्य माहौल में पले-पढ़े और बढ़े भी। भाषागत यही सीमा राहुल गांधी की रही है, जिसकी वजह से वे हिन्दी पट्टी में अपनी प्रतिभा को अच्छी तरह से सम्प्रेषित नहीं कर पाये। उनके विरोधियों ने बकायादा लम्बा और महंगा अभियान चला कर उन्हें 'पप्पू' के तौर पर लगभग स्थापित भी कर दिया। ऐसा करना लोकतांत्रिक मूल्यों के सर्वथा खिलाफ है।

लेकिन बीते चार-पांच वर्षों से जब से राहुल को समझने की विशेष कोशिश की तो लगा कि वे ना केवल प्रतिभाशाली हैं बल्कि राष्ट्रीय मुद्दों और आमजन की देशव्यापी जरूरतों को समझने की उनकी कोशिश लगातार रही है। इतना ही नहीं, संवेदनशीलता के चलते राहुल अन्यों से ना केवल ज्यादा मानवीय हैं बल्कि अपनी दादी इंदिरा गांधी और पिता राहुल गांधी से ज्यादा लोकतांत्रिक दृष्टि-सम्पन्न भी हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि प्रचार के इस युग में झूठ से भ्रमित होकर जनता राहुल को सत्ता सौंपती है या नहीं, लेकिन उसे खारिज नहीं किया जा सकता है। उनकी और उनकी पार्टी कांग्रेस की कैसी भी हैसियत के बावजूद उन्होंने अपने को भारतीय राजनीति के अपरिहार्य व्यक्तित्व के तौर पर स्थापित कर लिया।

वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भरोसा ना करने वाले भी जो लोग राहुल  को यह कहकर खारिज कर देते हैं कि मोदी से मुकाबले के लिए मोदी के तरीकों से बेहतर प्रदर्शन करने वाला नेता चाहिए, ऐसा कहते वे यह भूल जाते हैं कि फिर तो उससे मोदी ही ठीक हैं। हमारे देश की जैसी बनावट और बसावट है उसके लिए आदर्श शासक ना केवल लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला हो बल्कि मानवीय संवेदना वाला भी हो। निर्णय तो जनता को करना है। 

आज की बात लिखने को जिस टिप्पणी से प्रेरित हुआ, फेसबुक मित्र पत्रकार पंकज श्रीवास्तव की वह पूरी टिप्पणी साझा कर रहा हूं

'कांग्रेस पार्टी से तमाम शिकायतें हो सकती हैं, पर राहुल गांधी के मुंह से कल यह सुनकर मन भीग गया कि चाहे पूरा देश एक तरफ हो जाये वे सच बताते रहेंगे। उन्हें गोली मारी जा सकती है, पर चुप नहीं कराया जा सकता। कितनी भी निंदा हो, उन्हें परवाह नहीं।

'सत्यमेव जयते' को ध्येय वाक्य बनाने वाले भारत की नेतृत्वकारी पांत से ऐसे ही साहस की उम्मीद की जाती है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का 'एकला चलो रेÓ...इसी भाव को भरता है। महात्मा गांधी ने इसी भाव की रक्षा करते हुए शहादत दी थी।

...राहुल गांधी को महात्मा या गुरुदेव के समकक्ष नहीं रख रहा हूं, पर $खुश हूं कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के पास एक ऐसा नेता है जिसे सत्ता का आतंक और धनबल भी अपनी बात से डिगा नहीं पा रहा है। बेहद कमजोर स्थिति में भी वह राजनीतिक सफलता के लिए 'कुछ भीÓ करने को तैयार नहीं है।

इस भीषण ठंड में 56 दिन से दिल्ली की घेराबंदी किये बैठे जो किसान, आंदोलन के इतिहास का एक महान दृश्य रच रहे हैं, वे राहुल गांधी की बात की तस्दीक हैं। कृषि कानून, चीन और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए वे जो कह रहे हैं, वह वैसा ही है जैसा उनका कोरोना को लेकर समय रहते चेताना। तब उनका मजाक उड़ाया गया था। देश के स्वास्थ्यमंत्री ने संसद में खड़े होकर बेवजह भय फैलाने से बाज आने को कहा था।

काश, राहुल जैसे नेता हर पार्टी के पास हों। एक नहीं हजार हों ताकि पैसे और कुर्सी को देखकर होने वाली उछलकूद ही 'लोकतंत्र' के नाम पर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो। ये कि जेल जाने के डर से एक से एक समाजवादी और बहुजनवादी अपने बनाये किले में कैद होकर रह गये। 

खून बहाकर सत्ता हासिल करना तारीख में बहुत आम रहा है, पर आने वाली पीढिय़ों को गर्व वही देते हैं जो सिद्धांत के लिए सत्ता ठुकराते हैं। असफल होने की  कीमत चुकाकर भी सच का दामन नहीं छोड़ते। कामयाबी से ज़्यादा मनुष्य की प्रेरणा 'नाकामी' रही है।

किसी नेता की प्रशंसा करना पत्रकार का काम नहीं है लेकिन इस घोर अंधकार में एक धवलबिंदु की पहचान करना भी अपराध है। सो, समय के अदृश्य समाचारपत्र के लिए यह सिंगल कॉलम ख़बर भेज रहा हूँ। इस उम्मीद से कि आंख वाले जरूर पढ़ पायेंगे।'

दीपचंद सांखला

21 जनवरी, 2021