Thursday, January 31, 2013

वसुन्धरा राजे


कल की बड़ी सुर्खियां है भाजपा आलाकमान ने यह तय कर लिया है कि इसी वर्ष होने वाले राजस्थान विधान सभा के चुनावों की कमान पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे को सौंपी जायेगी खबर यह भी है कि दो-एक दिन में इसकी औपचारिक घोषणा हो जायेगी
आगामी चुनावों के बाद सूबे में अपनी सरकार बनने से आशंकित कांग्रेसियों को इस खबर से सी-कंपा या झुरझुरी महसूस हो सकती है क्योंकि उन्होंने इससे बचने के कोई जतन नहीं किये
विनायक अपने 4 अक्टूबर 2012 के सम्पादकीय के कुछ अंश मौके की बात समझ यहां पुनः पढ़ाना चाहते हैं
‘2003 के विधानसभा चुनावों से कुछ पहले आत्मविश्वास से लबरेज वसुन्धरा राजे राजस्थान आईं और कांग्रेस की 56 के मुकाबले भाजपा को 120 सीट जितवा मुख्यमंत्री बन गई| चुनाव पहले की परिवर्तन यात्रा में वसुन्धरा के साथ ब्यूटिशियन, ड्रेस डिजाइनर और इवेन्ट मैनेजरों की पूरी टीम चलती थी पूरी यात्रा को प्लान और डिजाइन किया गया था वसुन्धरा इससे पहले केन्द्र में अपनी विरासती राजनीति मेंकूलतरीके से मशगूल थीं तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सुराज के मामले में तब मीडिया की शीर्ष सूची में थे| शासन और प्रशासन में कुछ नवाचार भी किये इसी बूते गहलोत भी कम आत्मविश्वास में नहीं थे लेकिन सामन्ती ठाठ के साथ लगभग हमलावर रूप में आई वसुन्धरा ने बहुत थोड़े समय में राजनीतिक बिसात और चुनावी रंगत, दोनों बदल दी अपनी जनता भी आजादी के पैंसठ साल बाद आज भी सामन्ती मानसिकता से कहां निकली है?
वसुन्धरा का पिछले चार वर्षों में अधिकांशतः विदेश या राज्य से बाहर रहना और राज्य की राजनीति में लगातार हाथ-पैर मारते रहना उनके इस आत्मविश्वास को दर्शाता है कि जब भी आयेंगी राजस्थान लूटने के अन्दाज से ही आयेंगी-भाजपा में शीर्ष नेतृत्व या कहें आलाकमान लगभग नहीं है-जितना कुछ बिखरा-बचा है, उस बिखरे-बचे को लगता है कि इस देशव्यापी कांग्रेस विरोधी माहौल को भुनाने की क्षमता राजस्थान में केवल वसुन्धरा के पास है और यह आकलन लगभग सही भी है-तभी वसुन्धरा राजनाथसिंह से लेकर नितिन गडकरी तक किसी को भाव नहीं देती, अरुण चतुर्वेदी जैसे तो उनकी गिनती में आते ही नहीं हैं
गहलोत का राज ज्यादा मानवीय, लोकतान्त्रिक है और यह भी कि लोककल्याणकारी योजनाएं लाने वाले राज्यों में राजस्थान हाल-फिलहाल अग्रणी है
वसुन्धरा राजनीति को जहां केवल हेकड़ी से साधती हैं वहीं गहलोत इस मामले में राजस्थान के अब तक के सबसे शातिर राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित हो चुके हैं वे राजनीति को चतुराई से साध तो लेते हैं-लेकिन उनके पास जनता को लुभाने के वसुन्धरा के जैसे लटके-झटके हैं और इस नौकरशाही से काम लेने की साम-दाम-दण्ड-भेद की कुव्वत वसुन्धरा राज में खर्च किया एक-एक रुपया भी वसुन्धरा के गुणगान के साथ खनका है-गहलोत के उससे कई गुना खर्च की खनक खोटे सिक्के की सी आवाज भी पैदा नहीं कर पा रही है इसके लिए जिम्मेदार कांग्रेसी हैं-जो सभी धाए-धापे से रहते हैं इनके ठीक विपरीत भाजपाई कार्यकर्ता चुनाव आते और चामत्कारिक नेतृत्व मिलते ही पूरे जोश-खरोश के साथ छींके तक पहुंचने की जुगत में लग जाते हैं
31 जनवरी, 2013

Wednesday, January 30, 2013

गंगाशहर में कब्जा


पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) नागरिक अधिकारों के लिए सतत प्रयासरत देश का बड़ा संगठन है। पीयूसीएल की बीकानेर इकाई ने कल मुख्य सचिव, राजस्थान और विधायक देवीसिंह भाटी के नाम दो अलग-अलग पत्रों की प्रतियां अखबारों को भिजवाई हैं। पत्र में बताया गया है कि गंगाशहर के वार्ड नं. 22 में स्थित चांदमलजी के बाग के पास की सार्वजनिक भूमि पर 18-19-20 जनवरी को सरकारी और कोर्ट की छुट्टियों का मौका देख कर किन्हीं ने चारदीवारी बना कब्जा कर लिया है। यह भूमि सन् 1935 के रिकार्ड के अनुसार 11312 बीकानेरी गज है और पट्टे पर साफ लिखा है कियह जमीन खुली रहेगी, सिर्फ पेड़ लगाएं जा सकते हैं, गायें अन्य जानवर बैठ सकते हैं।इसके बावजूद छुट्टियों का मौका देखकर इस पर चारदीवारी कर दी गई। गांववासियों ने पुलिस को सूचित भी किया। पुलिस ने एक बार काम रुकवा भी दिया लेकिन गांववासी छुट्टियों के चलते कागजात पेश नहीं कर पाए और कब्जाधारी ने अपना मकसद पूरा कर लिया। यह तो पुलिस ही बता सकती है कि विवाद के चलते किस आधार पर चारदीवारी का काम उन्होंने चलने दिया। क्या चारदीवारी का निर्माण करवाने वालों ने अपने पक्ष में कुछ कागजात पेश किये ?
पीयूसीएल वालों ने पत्र में लिखा है कि इस कब्जे को अंजाम देने वाले अपने को गंगाशहर गोचर समिति का कोषाध्यक्ष बताते हैं। पहली बात तो यह कि शहर की सभी समितियां, संघ और न्यास क्या सरकारी नियम कायदों के अनुसार पंजीकृत हैं। अन्वेषण करेंगे तो पाएंगे कि अधिकांशलैटर हेडतक ही सीमित हैं और कम्प्यूटर आने के बाद लैटर हेड का यह गोरखधंधा और भी आसान हो गया है। दूसरा अगर पंजीकृत भी हैं तो क्या इन समितियों के चुनाव और कार्यकलाप पंजीकरण के नियमों के अनुसार चल रहे हैं? इनसे सम्बन्धित सरकारी महकमे यदि इसकी जांच करवाएं तो अधिकांश संघ, समिति और न्यास इस पर खरे नहीं उतरेंगे। पता नहीं सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार और देवस्थान विभाग इस व्यवस्था पर अकर्मण्य क्यों बने हुए हैं।
इसके अलावा सरकार को यह व्यवस्था भी करनी चाहिए कि छुट्टियों के दिन ऐसी सुनवाइयों के लिए एक कोर्ट भी खुला रहे और स्थानीय निकायों का एक सैल इन दिनों में मुस्तैद रहे। छुट्टियों के दिनों में कार्यरत कोर्ट और सैल के जजों अधिकारियों-कर्मचारियों को अन्य दिन छुट्टी दी जा सकती है।
वापस मुद्दे पर लौटते हैं, पीयूसीएल के उक्त उल्लेखित पत्रों में मुख्य सचिव को वस्तुस्थिति से अवगत करवाया है। यह पत्र जैसे-तैसे उन तक पहुँच भी गया तो यह उसी गति को प्राप्त होगा जो सरकारी चाल-चलन का हिस्सा बन गयी है। दूसरा पत्र उन देवीसिंह भाटी के नाम है जो उम्र के इस पड़ाव पर आकर अपने बल पड़ते हिसाब से गोभक्त हो गये हैं। भाटी की गोभक्ति भी उन अधिकांश गो भक्तों जैसी ही है जो गाय को गरुड पुराण कीकपिलामानते हैं, कपिला मोक्ष के द्वार तक ले जाती है और यह गो-भक्ति भक्तों का कोई कोई सिट्टा सिंकवा देती है।
इसलिए जो भी न्याय पाने की या न्याय दिलाने की बळत रखते हैं उन्हें चौकस होकर सतत लगे रहना होगा। जो मुश्किल जरूर है पर ऐसा नहीं है कि परिणाम मिले।भगवान के घर देर है अंधेर नहींकी तर्ज पर यह तो कई बार साबित हो चुका है कि जो पीछे लगा रहता है वह इस सरकारी अव्यवस्था में भी सफल होता है!
30 जनवरी, 2013