कल की बड़ी सुर्खियां है भाजपा आलाकमान ने यह तय कर लिया है कि इसी वर्ष होने वाले राजस्थान विधान सभा के चुनावों की कमान पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे को सौंपी जायेगी। खबर यह भी है कि दो-एक दिन में इसकी औपचारिक घोषणा हो जायेगी।
आगामी चुनावों के बाद सूबे में अपनी सरकार न बनने से आशंकित कांग्रेसियों को इस खबर से सी-कंपा या झुरझुरी महसूस हो सकती है क्योंकि उन्होंने इससे बचने के कोई जतन नहीं किये।
विनायक अपने 4 अक्टूबर 2012 के सम्पादकीय के कुछ अंश मौके की बात समझ यहां पुनः पढ़ाना चाहते हैं।
‘2003 के विधानसभा चुनावों से कुछ पहले आत्मविश्वास से लबरेज वसुन्धरा राजे राजस्थान आईं और कांग्रेस की 56 के मुकाबले भाजपा को 120 सीट जितवा मुख्यमंत्री बन गई| चुनाव पहले की परिवर्तन यात्रा में वसुन्धरा के साथ ब्यूटिशियन, ड्रेस डिजाइनर और इवेन्ट मैनेजरों की पूरी टीम चलती थी। पूरी यात्रा को प्लान और डिजाइन किया गया था। वसुन्धरा इससे पहले केन्द्र में अपनी विरासती राजनीति में ‘कूल’ तरीके से मशगूल थीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सुराज के मामले में तब मीडिया की शीर्ष सूची में थे| शासन और प्रशासन में कुछ नवाचार भी किये। इसी बूते गहलोत भी कम आत्मविश्वास में नहीं थे लेकिन सामन्ती ठाठ के साथ लगभग हमलावर रूप में आई वसुन्धरा ने बहुत थोड़े समय में राजनीतिक बिसात और चुनावी रंगत, दोनों बदल दी। अपनी जनता भी आजादी के पैंसठ साल बाद आज भी सामन्ती मानसिकता से कहां निकली है?
वसुन्धरा का पिछले चार वर्षों में अधिकांशतः विदेश या राज्य से बाहर रहना और राज्य की राजनीति में लगातार हाथ-पैर न मारते रहना उनके इस आत्मविश्वास को दर्शाता है कि जब भी आयेंगी राजस्थान लूटने के अन्दाज से ही आयेंगी-भाजपा में शीर्ष नेतृत्व या कहें आलाकमान लगभग नहीं है-जितना कुछ बिखरा-बचा है, उस बिखरे-बचे को लगता है कि इस देशव्यापी कांग्रेस विरोधी माहौल को भुनाने की क्षमता राजस्थान में केवल वसुन्धरा के पास है। और यह आकलन लगभग सही भी है-तभी वसुन्धरा राजनाथसिंह से लेकर नितिन गडकरी तक किसी को भाव नहीं देती, अरुण चतुर्वेदी जैसे तो उनकी गिनती में आते ही नहीं हैं।
गहलोत का राज ज्यादा मानवीय, लोकतान्त्रिक है और यह भी कि लोककल्याणकारी योजनाएं लाने वाले राज्यों में राजस्थान हाल-फिलहाल अग्रणी है।
वसुन्धरा राजनीति को जहां केवल हेकड़ी से साधती हैं वहीं गहलोत इस मामले में राजस्थान के अब तक के सबसे शातिर राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित हो चुके हैं। वे राजनीति को चतुराई से साध तो लेते हैं-लेकिन उनके पास जनता को लुभाने के वसुन्धरा के जैसे न लटके-झटके हैं और न इस नौकरशाही से काम लेने की साम-दाम-दण्ड-भेद की कुव्वत। वसुन्धरा राज में खर्च किया एक-एक रुपया भी वसुन्धरा के गुणगान के साथ खनका है-गहलोत के उससे कई गुना खर्च की खनक खोटे सिक्के की सी आवाज भी पैदा नहीं कर पा रही है। इसके लिए जिम्मेदार कांग्रेसी हैं-जो सभी धाए-धापे से रहते हैं। इनके ठीक विपरीत भाजपाई कार्यकर्ता चुनाव आते और चामत्कारिक नेतृत्व मिलते ही पूरे जोश-खरोश के साथ छींके तक पहुंचने की जुगत में लग जाते हैं।’
31 जनवरी, 2013