Thursday, December 19, 2019

NRC और CAB/CAA पर इस तरह भी विचारें

भारतीय राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (NRC) और संशोधित नागरिकता कानून (CAB/CAA) को लेकर इसे संविधान विरोधी कहते हुए जहां विद्यार्थी आन्दोलित हैं, वहीं भारतीय मुस्लिम नागरिकता की दोयम हैसियत की आशंका में आक्रोश जता रहे हैं। वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अन्तर्गत दूसरे देशों से आये लोगों को प्रतिवर्ष दी जाने वाली नागरिकता के आंकड़े आश्वस्त करते है कि संशोधित नागरिकता कानून की जरूरत थी ही नहीं, ये कवायद राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ही की गई है। केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश, और अफगानिस्तान से मुस्लिमों के अलावा आने वाले व्यक्तियों को नागरिकता देने पर विचार बजाय 11 के अब 5 वर्ष में ही किया जा सकता है। 5 वर्ष वाले बदलाव पर क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन धर्मविशेष के व्यक्तियों को इस प्रावधान से बाहर करना, उसी धर्म के स्थानीय नागरिकों में हीनता और असुरक्षा का भाव जगाना भर है, ताकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के वर्तमान माहौल का लाभ उठाया जा सके। तथ्य यह भी है कि उल्लेखित तीनों ही देशों के नागरिकता के लिए आने वाले व्यक्तियों में मुसलमानों की संख्या न्यून होती है। पिछली सदी के सातवें दशक के अन्त और आठवें-नौवें दशक की राजनीतिक अस्थिरता के चलते पूर्वी-पाकिस्तान/बांग्लादेश से आने वाले लोगों में मुस्लिम जरूर ज्यादा थेलेकिन उनमें हिन्दू भी कम नहीं थे। स्थितियां सामान्य होते ही अधिकांश बांग्लादेशी मुस्लिम अपने देश लौट गये थे। वे कुछ मुस्लिम जिन्होंने अपनी नियति मजदूरी ही मान ली थी, उन्हें लौटना जरूरी इसलिए नहीं लगा होगा कि यहां करो चाहे वहां, करनी तो उन्हें मजदूरी ही है, ज्यादातर ऐसे ही बांग्लादेशी यहां रुक गये। वर्तमान में भारत से ज्यादा सुदृढ़ होती अर्थव्यवस्था और भोजन के अधिकार के बाद बांग्लादेश के हिन्दू नागरिक भी यहां क्यों आना चाहेंगे? रही बात पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले लोगों की तो आंकड़े देख लें, बीते वर्षों में इन देशों से नागरिकता हासिल करने वालों में मुस्लिम समुदाय का अनुपात बहुत कम मिलेगा। अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता के चलते मुसलमानों का पलायन जरूर हुआ लेकिन उन्हें यहां नागरिकता आसानी से नहीं दी गई। वैसे भी किसी विपत्ति में आए लोगों को जब शरणार्थी कहने में भी संकोच होता है तो उन्हें घुसपैठिया कैसे कह सकते हैं? उनका धर्म देखना तो अमानवीय है।
संविधान के अनुच्छेद 14 की भावना के विपरीत इस कानून का विरोध करने वालों में जिन्हें मुसलमान ज्यादा दीखते है उन्हें राजस्थान के गुर्जर और हरियाणा के जाटों के आरक्षण आन्दोलनों में भी ऐसा ही लगा हो, कह नहीं सकते। हमें यह समझना होगा कि प्रभावित होने वाला कोई समूह विशेष तौर से उद्वेलित तो होगा ही। बल्कि सीएबी/सीएए कानून विरोधी आन्दोलन और गुर्जर-जाटों के आरक्षण वाले आन्दोलनों में बड़ा अन्तर यह है कि गुर्जर-जाटों के आन्दोलन में गैर गुर्जर और गैर जाट शामिल नहीं थे जबकि एनआरसी व सीएबी/सीएए विरोधी आन्दोलन में प्रभावित मुसलमानों के अलावा जागरूक नागरिक और विद्यार्थियों को बड़ी संख्या में शामिल देखा जा सकता है। संविधान विरोधी इस कानून के खिलाफ आन्दोलन को केवल इसीलिए मुसलमानों का आन्दोलन नहीं कह सकते।
नागरिकता संशोधन कानून पर हमें दूसरे तरीके से भी विचार करना चाहिए। आज के युग में दुनिया ग्लोबल विलेज में परिवर्तित हो रही है और अनुकूल रोजगार की तलाश में लोगों का दुनिया के सभी देशों में ना केवल आना-जाना होता है बल्कि ऐसे लोग अमेरिका-कनाडा या यूरोपीय देशों की नागरिकता लेने की फिराक में भी रहते हैं। ऐसे में एक धर्मविशेष के लोगों को राजनीतिक लाभ मात्र की नीयत से या कहें अकारण किसी कानून से बाहर रखना कितना नैतिक और उचित है?
इस संदर्भ में कुछ और बातें भी स्पष्ट करना जरूरी हैकिसी फेसबुक मित्र की पोस्ट मैंने साझा की जिसमें एनआरसी/सीएए कानून के आलोक में बताया गया था कि केवल 8 मुस्लिम देशों में लगभग 80 लाख भारतीय नागरिक रोजगार में लगे हैं, जिनसे भारत को प्रतिवर्ष विदेशी मुद्रा में 2.5 लाख करोड़ की सालाना आय होती है। इस पोस्ट पर मित्र आशाराम शर्मा ने फेसबुक पर ऐसे आंकड़े वाली पोस्ट का मकसद जानना चाहा। पहला मकसद जैसा कि ऊपर जिक्र कियायही है कि ग्लोबल गांव में परिवर्तित हो रही दुनिया में ना केवल आवागमन बल्कि दूसरे देशों में बिना ऐसे भेदभाव के स्थाई-अस्थाई वास लगातार बढ़ रहे हैंऐसे में राजनीतिक लाभ के लालच में इस तरह के कानून मनुष्यत्व को नीचा दिखाने की चेष्टा है। एक अनुमान के अनुसार करीब पौने दो करोड़ भारतीय दुनियां के अन्य देशों में रह रहे हैं, इसमें वे 'घुसपैठिये' शामिल नहीं हैं जो यूरोप और अमेरिका में अवैध तौर पर रह रहे हैं और जिन्हें न केवल जब-तब निकाला जाता है बल्कि कभी भी निकाला जा सकता है। नागरिकता के लिए धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाली मानसिकता रखने वाले ये जान लें कि दूसरे देशों में रहने वालों में किसी एक देश के सबसे ज्यादा नागरिक हैं तो वह भारतीय ही हैं। और यह भी कि नागरिकता संशोधन कानून के उद्वेलन के बाद बांग्लादेश ने अपने नागरिक वापस लेने की मंशा से जो सूची चाही है, उसमें उन्होंने धर्म और जातिविशेष की कोई शर्त नहीं लगाई। उदारता से विचारना मानवीयता से विचारना है। कानून और व्यवस्था अमानवीय तौर तरीकों से साधी नहीं जा सकती। विदेशी आकर कोई गड़बड़ करते हैं तो उसके लिये पर्याप्त कानून हैं। जरूरत उन्हें मुस्तैदी से लागू करने की है, ना कि जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव करने की।
—दीपचन्द सांखला
19 दिसम्बर, 2019

Thursday, December 12, 2019

नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) का विरोध इसलिए

हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के लोग रह सकते हैं; उससे यह राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नये लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे प्रजा को तोड़ नहीं सकते; वे यहां की प्रजा में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जायेगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों के समावेश का गुण होना चाहिए। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है।
यूं तो जितने आदमी उतने धर्म, ऐसा मान सकते हैं। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग  एक-दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने लायक नहीं हैं।               महात्मा गांधी-हिन्द स्वराज

केन्द्र में काबिज मोदी-शाह की सरकार दूसरी बार चुन कर आयी तब से वह मान बैठी है कि जनता ने उन्हें कुछ भी करने की छूट दे दी, संविधान विरोधी निर्णय भी। ऐसा मानते हुए नरेन्द्र मोदी और अमित शाह भूल कर रहे हैं कि वे उसी संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के तहत शासन में आये हैं, जिसकी धज्जियां उड़ाते हुए उन्होंने ना केवल जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को खुर्द-बुर्द किया बल्कि धारा 35-ए के प्रावधानों को खत्म कर दिया, जबकि ऐसे ही प्रावधान हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम और उत्तर-पश्चिम के सातों राज्यों सहित पहाड़ी राज्यों में तो लागू हैं। अलावा इसके विभिन्न शेष राज्यों के कुछ क्षेत्रों में 35-ए जैसे प्रावधान आज भी लागू हैं। जम्मू कश्मीर के साथ इस सौतेले व्यवहार को धर्म आधारित भेदभाव इसलिए ही कहा जा रहा है।
इसी तरह दूसरे देशों से आए लोगों को भारत की नागरिकता देने के पर्याप्त कानून-कायदे होने के बावजूद नागरिकता संशोधन विधेयक CAB लाना सरकार की धर्म आधारित भेदभाव की मंशा को जाहिर करता है। नागरिकता देने के वर्तमान प्रावधानों में समय जरूर लगता है, जो सावचेती के लिए जरूरी भी है। लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक में जिस तरह मुसलमानों को अलग रखकर केवल अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले लोगों के लिए ही प्रावधान करना सरकार की नीयत पर सन्देह उत्पन्न करता है। लोकसभा में इस संशोधन पर अपना पक्ष रखते समय चालाकी बरतते हुए अमित शाह का यह कहना कि मुसलमानों का तो मैंने नाम ही नहीं लिया, उनकी धूर्तता ही जाहिर करता है।
गांधीजी को ऊपर उद्धृत करते हुए मैंने बात शुरू की है। भारत की तासीर वही है और गांधी की उसी बात के आधार पर संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक समता/समानता के अधिकारों का प्रावधान किया है। इसमें अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत विधि के समक्ष समानता की प्रस्तावना की गई है। अनुच्छेद-15 में उसे स्पष्ट करते हुए लिखा गया कि धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा। इसे इस आधार वाक्य के साथ और स्पष्ट किया गया है कि—'सभी व्यक्तियों से समान बर्ताव किया जाना चाहिए'
यद्यपि उक्त उल्लेखित अनुच्छेद भारतीय नागरिकों के लिए हैइसलिए कहा जा सकता है कि जो नागरिक नहीं हैं उनके साथ भेदभाव कैसा? तर्कसंगत ढंग से विचारने पर यह बात सही लग सकती है। लेकिन नैतिक तौर पर नहीं, क्योंकि अन्तत: जिन्हें भी नागरिकता दी जानी है उन्हें धर्म के आधार पर भेदभाव के साथ दी जायेगी और एक धर्म के लोगों को वंचित करना उसी धर्म के भारत के अल्पसंख्यक नागरिकों के बराबरी के अहसास को कमतर करना है।
इन्हीं सन्दर्भों के साथ इतिहास की ओर चलें तो हाल ही की शताब्दियों में बने नियम कायदों से पहले भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न देशों के ही नहीं, दूर के देशोंयूरोप चीन के नागरिकों का आवागमन हमारे यहां ना केवल निर्बाध होता रहा है, बल्कि इन देशों के नागरिकों की कई पीढिय़ों का यहां बस जाना मनुष्य की इस प्रकृति की पुष्टि भी करता है कि वह अपनी जरूरतों के अनुसार स्थान बदलता रहा है। अपने ही देश में एक राज्य के नागरिकों का अन्य राज्य में जा बसना भी इसी प्रकृति का प्रमाण है।
उक्त उल्लेख के मानी यह कतई नहीं है कि वर्तमान की अन्तरराष्ट्रीय पेचीदगियों में पूर्व की तरह नागरिकता बदलने की निर्बाध छूट दे दी जाय। जैसा ऊपर बताया गया है कि नागरिकता देने के पर्याप्त कानून-कायदे अपने देश में जो भी हैं, उनसे किसी को एतराज नहीं है।
दरअस्ल जिस ऐजेंडे पर सरकार काम कर रही है वह धर्म के नाम पर विशुद्ध राजनीतिक कृत्य है और धर्म की आड़ में राजनीतिक ऐजेंडों को साधना संविधान सम्मत नहीं है।
मुसलिम समुदाय को लेकर जिस कांग्रेस पर वोट बैंक की राजनीति करने के आरोप लगाए जाते है, कुछ वैसी ही मंशा अपनी पार्टी के लिए ऐसे गैर संवैधानिक कानूनों से साधने की मोदी-शाह की भी है। इसे हम उत्तर-पश्चिमी राज्यों यथा असम, त्रिपुरा आदि में नागरिकता संशोधन विधेयक CAB के पुरजोर विरोध में समझ सकते हैं। इन राज्यों के नागरिकों ने जब भारतीय राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर NRC का स्वागत किया तब उन्हें CAB की आशंका कतई नहीं थी। हालांकि मोदी-शाह जिस ऐजेंडे पर काम कर रहे हैंउनके यहां यह पहले से ही तय था। उत्तर-पश्चिमी राज्यों के विरोध की वजह शेष भारत में हो रहे विरोध से भिन्न इसीलिए है कि उन्हें CAB से अपनी पहचान पर संकट लग रहा है। जैसे ही गैर मुस्लिम घुसपैठियों को नागरिकता दी जायेगी, वहां के मूल निवासियों पर ना केवल अल्पसंख्यक होने का खतरा मंडराने लगेगा बल्कि प्रकारांतर से वहां की संस्कृति भी खतरे में पड़ जायेगी। राजनैतिक वर्चस्व खत्म होगा वह अलग, क्योंकि अच्छी तादाद में होने के बावजूद नागरिक ना होने के चलते जो तथाकथित घुसपैठिये फिलहाल मुखर नहीं हैं, वे CAB से मिली नागरिकता के बाद हावी और मुखर होने लगेंगे। वहीं मोदी-शाह की मंशा यह है कि इन उत्तर-पूर्वी राज्यों में अब तक भाजपा को जो समर्थन नहीं मिला वहां गैर-मुस्लिम घुसपैठियों से नागरिक बने लोग उसके वोट बैंक हो लेंगे। भाजपा ने फिलहाल जिस तरह जोड़-तोड़ से वहां सरकारें बना रखी हैं, उसकी जरूरत फिर नहीं रहेगी।
सदियों से भारत की तासीर जिस तरह उदारता की रही है, भारत की असल प्रतिष्ठा वही है और ताकत भी। मोदी-शाह और उनके विचारक पितृी-संगठन धर्म की आड़ में जिन राजनीतिक मंसूबों को साधना चाहते हैं, NRC और CAB उसी के जतन हैं। ये ना संवैधानिक हैं और ना ही नैतिक, इसलिए इस तरह के प्रयासों को मानवीय भी नहीं कह सकते।
NRC के विरोध की वजह भी वाजिब है। भारतीय नागरिक के तौर पर पंजीकृत होने के लिए जिस तरह के दस्तावेजों की मांग की जा रही है, उन्हें जुटाना अधिकांश भारतीयों के लिए संभव नहीं होगा। अभी इसे जहां असम में लागू किया है वहां बांगलादेशियों के अलावा बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और उत्तरप्रदेश के ऐसे लाखों नागरिक हैं जो रोजगार की तलाश में कई पीढिय़ों से वहां जा बसे हैं। अब उनसे अपने मूल गांव के प्रामाणिक दस्तावेज चाहे जा रहे हैं। इसी के चलते इस काम में भ्रष्टाचार के बड़े आरोप तो लगे ही हैं, अलावा इसे अंजाम तक पहुंचाने में वहां के सरकारी कर्मचारियों के जुटने से सरकार के रोजमर्रा काम का भी भारी नुकसान हुआ है। जबकि इस सबकी जरूरत नहीं थी। संघानुगामियों के फैलाये उस झूठ की पोल जरूर खुल गई जिसमें उनका वर्षों से किया जा रहा दुष्प्रचार कि उतर-पश्चिमी राज्यों में 3 करोड़ बांगलादेशी मुसलमानों की घुसपैठ हो चुकी है, जबकि उन सातों राज्यों की आबादी आज भी सवा चार करोड़ ही है। जबकि NRC की कवायद में मात्र 19 लाख घुसपैठिएं निकले हैं जिनमें से मात्र सात लाख मुसलमान तथा शेष सब गैर-मुसलिम यानी अधिकांश हिन्दू धर्मावलम्बी बताये जा रहे हैं। मोदी-शाह की सरकार ने घोषणा कर रखी है कि NRC पूरे देश में लागू की जायेगी जबकि इस बेहद खर्चीली और पेचीदी कवायद की कोई जरूरत नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
12 दिसम्बर, 2019

Thursday, December 5, 2019

राज्यों में भाजपा से मोहभंग के बावजूद संघ और मोदी का भ्रमजाल कायम

पत्रकार नेताओं की भाषा बोलते हैं
नेता गुंडों की,
धर्म-गुरु धनाढ्यों की भाषा बोलते हैं
और धनाढ्यï......
युवा लेखक दुष्यंत ने अपनी इस फेसबुक पोस्ट का अंत.....के साथ किया, जिसे मैं पूरी किये देता हूं.....सयाने धनाढ्य मौन हैं।
मित्र दुष्यंत की पोस्ट संभवत: उद्योगपति राहुल बजाज के उस वक्तव्य के बाद आयी जिसमें उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण और रेलवे मंत्री पीयूष गोयल के सामने देश में माहौल ठीक न होने को कुछ इस तरह जाहिर किया
'यूपीए के टाइम में हम किसी को भी गाली दे सकते थे, मगर आज किसी की हिम्मत नहीं है कि वह सरकार की आलोचना कर सके...मैं जानता हूं कि सारे उद्योगपति चुप लगाये बैठे हैं। कोई नहीं बोलेगा...सब हंस रहे हैं....मतलब कह रहे हैं.....चढ़ जा बेटा सूली पे।'
अवसर था देश के प्रसिद्ध आर्थिक समाचार पत्र 'द इकॉनोमिक टाइम्स' द्वारा आयोजित सम्मिट का। यूट्यूब पर इसका वीडियो उपलब्ध है, चाहे तो देख सकते हैं। देश के बड़े उद्योगपतियों में शुमार 81 वर्षीय राहुल बजाज जैसों की भाव भंगिमा भी उक्त वक्तव्य के दौरान निर्भयता से ओत-प्रोत नहीं रही। लग रहा था कि उन्होंने ऐसा कहना ना केवल जरूरी माना बल्कि अपनी ड्यूटी भी माना और बड़ी हिम्मत जुटाकर कह भी गये। उनके वक्तव्य से लग रहा है कि इस 'दुस्साहस' की जानकारी उन्होंने अपने भरोसे के मित्रों से भी साझा की।
जिन परिस्थितियों का जिक्र राहुल बजाज अपने वक्तव्य में कर रहे हैं उसकी जानकारी क्या सरकार में बैठे लोगों को नहीं? बिल्कुल है, अधिकांश बौद्धिक, जमीर वाले पत्रकार-सम्पादक और अर्थशास्त्रियों सहित हम जैसे हजारों ब्लॉगर, फेसबुकिये, ट्वीटरिस्ट ऐसा लगातार कह ही रहे हैं कि यह सरकार अपने विशेष ऐजेंडे के तहत सत्ता में आई है, देश की अर्थव्यवस्था, देश का माहौल, आमजन की जरूरतें और रोजगार उनकी प्राथमिकता में नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जिस ऐजेंडे को लागू करना उनका मकसद है, उसमें ऐसे मानवीय तत्त्वों की जरूरतों की कोई अहमियत नहीं।
इसलिए इस तरह की परिस्थिति से गृहमंत्री अमित शाह ने यह कहकर तत्काल नकार दिया कि भय होता तो आप बोल नहीं पाते औरऔर भी बहुत लोग ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इतना ही नहीं, राहुल बजाज ने अपनी बात प्रज्ञा ठाकुर के लोकसभा में गोडसे पर दिये जिस वक्तव्य से शुरू की उसमें अमित शाह साफ-साफ झूठ बोल गये कि 'प्रज्ञा के वक्तव्य को भ्रान्तिपूर्ण लिया गया। वह राष्ट्रभक्त ऊधमसिंह को बता रही थी या गोडसे को? बावजूद इस सबके पार्टी ने उन पर एक्शन लिया है।'प्रज्ञा ठाकुर के बयान को शहीद ऊधमसिंह की आड़ देना ढिठाई ही माना जायेगा।
अमित शाह की यह बात सही है कि जो राहुल बजाज ने कहा, ऐसा बहुत लोग और भी कह रहे हैं। शाह को पता है जो और लोग कह रहे हैं, उनको काउन्टर करने के लिए उनके पास व्यवस्थित ट्रोलपार्टी है जो सब संभाल लेगी लेकिन राहुल बजाज ने जो दुस्साहस किया वह उनके गले कम उतर रहा है। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधा रहे जमनालाल बजाज के सुपौत्र राहुल बजाज वही हैं जो उद्योगपतियों में ना केवल साफगोई के लिए जाने जाते हैं बल्कि जरूरत समझने पर जिन्होंने कांग्रेस की सरकारों के समय भी उनकी खुल कर आलोचना की है। यही वजह है कि राहुल बजाज के उक्त वक्तव्य पर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को भी लोकसभा में ना केवल सफाई देनी पड़ी बल्कि यहां तक कहना पड़ा कि राहुल बजाज का ऐसा कुछ बोलना राष्ट्रहित में नहीं है।
क्यों मुहतरमा राष्ट्रहित में क्यों नहीं है? देश की अर्थव्यवस्था लगातार डूबती जा रही हैरोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। राहुल बजाज इन स्थितियों की एक वजह देश में वातावरण सही नहीं होना भी मानते हैंभय का वातावरण आर्थिक प्रगति के लिए अनुकूल नहीं माना जाता। अर्थशास्त्रियों का भी अनुभूत सत्य यही है।
लोकसभा में मोदी-शाह को पर्याप्त बहुमत के बावजूद बीते एक वर्ष में लोकसभा के बाद हुए विधानसभा चुनावों में राज्यों में सत्तारुढ़ भाजपा का सत्ताच्युत होना पार्टी के लिए तो चिन्ता की बात हो सकती है लेकिन क्या देश को संभालने का मादा नरेन्द्र मोदी में निहित है ऐसा जो मान लिया गयावह भ्रम भी अब क्या छंट रहा है? पिछले वर्ष हुए राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के चुनावों में भाजपा का सत्ताच्युत होना, इस वर्ष हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलना और महाराष्ट्र में सत्ता खोने के बाद भी ऐसा लगता है कि जनता केन्द्र में शाह-मोदी को सत्ताच्युत करने का मन नहीं बना पा रही है। विभिन्न राज्यों में भाजपा के सत्ताच्युत होने, केन्द्र की मोदी-शाह सरकार के सभी मोर्चों पर असफल होने और घोर नाकारा शासन देने के बावजूद केन्द्रीय नेतृत्व के तौर पर नरेन्द्र मोदी से भरोसा कम होता नहीं लग रहा है। इसकी वजह यही लगती है कि हिन्दुत्वी प्रलोभन और शाह-मोदी के दुस्साहसपूर्ण लेकिन संविधान विरोधी निर्णय जनता को प्रभावित कर रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है कि गत नब्बे वर्षों से संघानुगामियों द्वारा व्यवस्थित तौर पर बिछाया जाता रहा भ्रमजाल अभी भी असरकारी है।
—दीपचन्द सांखला
05 दिसम्बर, 2019

Thursday, November 28, 2019

हर बहुमत जनादेश नहीं होता

आधुनिक मीडिया नयी-नयी उक्तियां, नये-नये शब्द व्यवहारता तो है, लेकिन क्या उन्हें भाषाई आधार पर सटीक और तथ्यों के आधार पर प्रमाणित किया जा सकता हैं? जनादेश जैसा शब्द मीडिया लम्बे समय से उस 'पार्टी' या 'नेता' के लिए प्रयोग करता रहा है, जिसे सदन का बहुमत हासिल होता है। क्या प्राप्त हर बहुमत को जनादेश कहा जा सकता है?
बीते एक वर्ष में हुए तीन चुनावों के माध्यम से इस तथ्य पर विचार करते हैं। 2018 के राजस्थान विधानसभा के चुनाव परिणामों की पड़ताल करें तो कुल 4.77 करोड़ मतदाताओं में से 3.57 करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इस आंकड़े के आधार पर सूबे में कांग्रेस की सरकार को कुल मतदाताओं में से मात्र 29.35 प्रतिशत का ही विश्वास हासिल है। शेष ने या तो अन्य किसी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दिया या किसी को भी अपने वोट के योग्य नहीं (NOTA) माना या फिर किसी को भी वोट देना तक जरूरी नहीं समझा। इसे हम सदन में कांग्रेस का बहुमत तो कह सकते हैं लेकिन कांग्रेस को यह जनादेश मिला है, नहीं माना जा सकता।
इसी तरह मई, 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को वर्तमान शासक ना केवल जनादेश बताते रहे हैं बल्कि इसे ऐतिहासिक कहने से भी नहीं चूकते। अब जरा उस चुनाव के गणित की भी पड़ताल कर लेते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारत के कुल 90 करोड़ मतदाता थे जिनमें से 60.3 करोड़ (67 प्रतिशत) मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। जिन्होंने मतदान किया उनमें से मात्र 22.5 करोड़ मतदाताओं ने ही वर्तमान शासकों—भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया यानी कि केन्द्र के वर्तमान राज को कुल मतदाताओं के मात्र 25 प्रतिशत का विश्वास हासिल है, जबकि केन्द्र की ये सरकार कड़े फैसले इस हेकड़ी के साथ ले रही है कि इन्हें जनता ने चुना ही इसीलिए है।
बीकानेर में हाल ही में सम्पन्न नगर निगम चुनाव के परिणामों पर भी हम एक नजर डालते हैं। 4.41 लाख कुल मतदाताओं में से 2.95 लाख ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इनमें से कांग्रेस को 1.06 लाख (36 प्रतिशत) और भाजपा को 1.03 लाख (35 प्रतिशत) मतदाताओं ने वोट दिया। यानी कुल 80 पार्षदों में जो भाजपा के 38 पार्षद जीते हैं, उन्हें कांग्रेस से वोट तो 1 प्रतिशत कम हासिल हुए लेकिन पार्षद कांग्रेस के 30 के मुकाबले 8 ज्यादा जीत गये। विरोधी कांग्रेस से 1 प्रतिशत वोट कम लेकर भी नगर निगम में भाजपा का बहुमत है, इसमें दो राय नहीं, लेकिन क्या इसे जनादेश भी मान सकते हैं, गहन विचारणीय मसला यही है।
इस कवायद का मकसद भारतीय निर्वाचन प्रणाली को खारिज करना हरगिज नहीं है। दुनिया में कोई भी प्रणाली 'फुलप्रूफÓ साबित नहीं हुई है। हमारे जैसे विशाल देश की जैसी भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि है उसके हिसाब से वर्तमान निर्वाचन प्रणाली अपनी कुछ कमियों के बावजूद सर्वथा व्यावहारिक मानी गई है।
इस तरह विचार करने का मकसद यही है कि हमें बहुमत और जनादेश के अन्तर को गहरे से समझना चाहिए ताकि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर हम ना केवल तार्किक होकर बल्कि व्यावहारिक होकर भी अपनी महती जिम्मेदारियों का निर्वहन हम कर सकें।
(आलेख में उल्लेखित सभी आंकड़े पूर्णांक की अनुकूलता के साथ दिये गये, इसलिए लगभग हैं।)
—दीपचन्द सांखला
28 नवम्बर, 2019

Thursday, November 21, 2019

बीकानेर : निगम चुनाव नतीजों के बहाने अर्जुन, कल्ला, भाटी की बात

स्थानीय राजनीति को समझना हो तो बजाय लोकसभा-विधानसभा चुनावों के, निकाय और पंचायत-जिला परिषद चुनावों से ज्यादा अच्छे से समझ सकते हैं। बीकानेर शहर की राजनीति को हाल ही में सम्पन्न नगर निकाय के चुनाव परिणामों से समझने की कोशिश करते हैं।
बीकानेर नगर निगम में तीन पार्षद कम होने के बावजूद भाजपा ने निर्दलीयों के सहयोग से बहुमत जुटा लिया है। इसलिए पहले पड़ताल भाजपा की ही कर लेते हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्ति लेकर मात्र 11 वर्ष पहले ही सक्रिय राजनीति में आये अर्जुनराम मेघवाल ने इन चुनावों के बाद क्षेत्र की भाजपा राजनीति में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। पूर्व विधायक गोपाल जोशी की निष्क्रियता और कभी पार्टी में क्षेत्रीय वर्चस्वी रहे देवीसिंह भाटी के पार्टी छोडऩे के बाद फिलहाल उन्हें चुनौती देने की हैसियत वाला कोई दूसरा नेता नजर नहीं आ रहा। अर्जुनराम मेघवाल की बनी इस हैसियत से दूसरी पंक्ति के किसी नेता की राजनीति को खतरा हो सकता है तो वे हैं खाजूवाला के पूर्व विधायक डॉ. विश्वनाथ मेघवाल। डॉ. विश्वनाथ से अर्जुनराम की और अर्जुनराम से डॉ. विश्वनाथ की कभी अनुकूलता नहीं रही। इस बीच अर्जुनराम के पुत्र रविशेखर ने भी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है और उनकी नजर खाजूवाला सीट पर है। पिछला विधानसभा चुनाव हारना डॉ. विश्वनाथ के लिए बड़ी प्रतिकूलता साबित होगा। रविशेखर को खाजूवाला से 2023 के चुनाव में उम्मीदवारी नहीं भी मिली तो भी अर्जुनराम डॉ. विश्वनाथ की उम्मीदवारी में आड़े आयेंगे ही। दलित वर्ग से आए अर्जुनराम मेघवाल ने अपनी हैसियत के इस मुकाम को बड़ी जद्दोजहद से हासिल किया है।
अर्जुनराम के लिए पार्टी में बड़ी चुनौती रहे देवीसिंह भाटी अपनी राजनीतिक असफलताओं की परिणति के तौर पार्टी से बाहर हैं। यह नौबत खुद उनके कारण से कम और उनके सलाहकारों और नजदीकी लोगों की वजह से ज्यादा आयी है। संजीदगी और समझदारी की राजनीति करने वाले भाटी के पुत्र पूर्व सांसद महेन्द्रसिंह के देहान्त बाद से ही देवीसिंह भाटी की ना केवल राजनीतिक निर्णयों में बल्कि क्षेत्र पर भी पकड़ ढीली होती गयी। भाटी जिन सलाहकारों और तथाकथित अपनों से घिरे रहते हैं उनमें कोई एक भी शुभचिन्तक होते तो भाटी इस हश्र को हासिल नहीं होते। ये सबके-सब बजाय भाटी की साख को साधने के, अपने स्वार्थों को साधते रहे हैं। यही वजह है कभी मगरे के शेर के नाम से पहचाने जाने वाले देवीसिंह भाटी बूढ़े शेर की उस नियति को ही हासिल हो गये जिसमें उसको उसके जंगल से ही खदेड़ दिया जाता है। भाटी के लिए अब भी समय है, वे चाहें तो अपनी राजनीतिक विरासत को पल्लवित होता देख सकते हैं। लेकिन उन्हें इसके लिए समझना यह होगा कि वे जिन पर अब तक भरोसा करते आए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। होते तो लगातार तीन चुनावों में भाटी की भद ऐसी नहीं पिटती जैसी विधानसभा चुनावों के बाद फिर लोकसभा के चुनावों में पिटी और स्थानीय निकाय चुनावों में उसका कुछ अब बचा ही नहीं! 
कांग्रेस की बात करें तो अपनी अपरिपक्वता के चलते क्षेत्रीय क्षत्रप बनने की असफल कोशिश में लगे एक रामेश्वर डूडी फिलहाल हाशिये पर हैं और उतर भीखा म्हारी बारी की तर्ज पर दूसरे डॉ. बीडी कल्ला हाशिये से मुख्यधारा की राजनीति में लौट आए हैं। वैसे डॉ. कल्ला के बारे में यह माना जाता है कि वे प्रतिद्वंद्वियों की जरूरत नहीं रखते, राजनीति करने के उनके तौर तरीके खुद ही उनके प्रतिद्वंद्वी हो लेते हैं। 2018 का विधानसभा चुनाव जीत कर सूबे की सत्ता में नम्बर तीन भले ही वे हो लिए हों, पर राजनीति और शासन करने के उनके तरीके पहले से बदतर हुए हैं। इसकी बानगी के तौर पर बीकानेर नगर निगम के चुनाव परिणामों को देख सकते हैं। चुनाव की घोषणा के साथ ही यह माना जाता रहा कि बीकानेर नगर निगम में कांग्रेस अपना बहुमत जैसे-तैसे भी बना लेगी। लेकिन मिले परिणामों से महापौरी दूर की कोड़ी हो गई। 80 पार्षदों के निगम में कांग्रेस अपने मात्र 30 पार्षद ही जिता पायी जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा अपने 38 पार्षद जितवा कर बेहतर स्थितियों में आ गयी। परिणामों के फौरी विश्लेषण से लगता है कि देवीसिंह भाटी बाधा नहीं बनते तो भाजपा बहुमत का आंकड़ा आसानी से पा लेती।
कांग्रेस के पिछडऩे की बड़ी वजह चुनाव संचालन कार्य डॉ. बीडी कल्ला और कन्हैयालाल झवंर को देना रहाझंवर ने रुचि नहीं दिखायी, अपने कुछ हितों की पैरवी कर बाकी सब-कुछ उन्होंने डॉ. बीडी कल्ला पर छोड़ दिया। डॉ. कल्ला राजनीति को जिस तरह साधते रहे हैं उसमें उनके निजी स्वार्थ, व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द पार्टी हित पर हावी रहते हैं। बीते चालीस वर्षों में शहर कांग्रेस की राजनीति में दूसरी पंक्ति तक पहुंचे कितने ही कार्यकर्ताओं को इन्होंने इस कदर निराश किया कि वे कहीं के नहीं रहे। वहीं डॉ. कल्ला के अधिकांश कार्यकर्ता आरएसएस के प्रकल्प हिन्दू जागरण मंच द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित जागरण यात्रा में मुखर भूमिका में देखे जा सकते हैं। ऐसे में एक पार्टी के तौर पर स्थानीय कांग्रेस के अस्तित्व को बचाकर कैसे रखा जा सकेगा, यह विचारणीय है। यही वजह है कि कई उम्मीदवार तो कांग्रेस ने ऐसे दिये जिनका और जिनके परिवार का कांग्रेस से कभी नाता तक नहीं रहा। कांग्रेस के टिकट बंटवारे में कई कर्मठ कार्यकर्ता तो इतना निराश हुए कि उन्हें बगावत करनी पड़ी और वे जीते भी गए। कांग्रेस के वर्तमान हश्र की बड़ी वजह संगठन पर भरोसा ना करके सत्तासीनों पर आश्रित रहना भी रहा। जिसका खमियाजा यह भुगत रही है।
हालांकि टिकट बंटवारे पर असंतोष भाजपा में भी रहा लेकिन इसे बड़ी चतुराई से मैनेज कर लिया गया। सूबे में सरकार के न होते भी इसके सुखद परिणाम इन्हें मिले। बिना उम्मीद नगर निगम में उसने बहुमत हासिल कर लिया है। डॉ. कल्ला अपनी राजनीति की शैली से उलट के उलटकर सक्रियता दिखाते तो कांग्रेस को बहुमत हासिल होना टेढ़ी खीर नहीं थी। बावजूद बुरे परिणामों के, डॉ. कल्ला राजनीति के अपने तौर-तरीकों को बदल पायेंगे, लगता नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
21 नवम्बर, 2019

Thursday, November 7, 2019

नगर निगम चुनावों के बहाने स्थानीय दिग्गजों और राजनीति की पड़ताल

प्रदेश में राजधानी जयपुर, जोधपुर व कोटा को छोड़ स्थानीय निकायों के चुनाव इसी माह हैं। बीकानेर में भी हैं। चुनाव पूर्व माहौल जो कांग्रेस के पक्ष में लग रहा था, वह देवीसिंह भाटी के ताल ठोकने के बावजूद और टिकटों के वितरण के बाद से भाजपा के पक्ष में जाता लग रहा है।
क्षेत्रीय राजनीति के चार दिग्गजों में दो भाजपा से तो दो कांग्रेस के गिने जाते रहे हैं। एक कांग्रेसी दिग्गज रामेश्वर डूडी रूठ कर रणछोड़दास हो लिए तो भाजपाई दिग्गज रहे देवीसिंह भाटी ने अपने को रिटायर्ड मानने का मन अभी नहीं बनाया है, जबकि जनता ने 2013 में ही उन्हें विदाई दे दी थी। अन्य बचे दिग्गजों में एक कांग्रेसी डॉ. बीडी कल्ला हैं, स्वामी भक्ति के चलते अशोक गहलोत के 'पट्टों में' अभी सिरमौर हैं लेकिन राजनीति करने का इनका तौर-तरीका वही चार दशक पुराना है। डॉ. कल्ला के लिए वही कांग्रेसी है जो बजाय पार्टी के उनमें निष्ठा रखता हो। भाजपाई दिग्गज और अब तो क्षेत्र में एकमात्र भी कह सकते हैंसांसद और केन्द्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवालअपनी राजनीति को ब्यूरोक्रैटिक हेकड़ी और परम्परागत सामाजिक हैसियतनुसार ठकुरसुहाती की जुगलबंदी से साधते हैं। सफल होते-होते ना केवल दिग्गज हो लिए बल्कि क्षेत्र के दूसरे दिग्गज देवीसिंह भाटी को पार्टी राजनीति से बाहर होने को मजबूर कर दिया।
दोनों पार्टियों के इन चारों ही दिग्गजों की राजनीति करने के तौर-तरीकों की गर पड़ताल करें तो साफ झलकता है कि इनके सलाहकार कोई खास होशियार नहीं हैं। इन दिग्गजों को जो कुछ भी हासिल होता रहा, वह खुद की वजह से कम और परिस्थितिजन्य अनुकूल मौकों से ज्यादा हासिल हुआ है।
देवीसिंह भाटी ने 1980 से 2008 तक कोलायत से लगातार सात चुनाव जीते। वह इसलिए भी कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई खास सामने नहीं था, ना कि अपनी या सलाहकारों की कूव्वत से। ज्यों ही 2013 में सलीके की चुनौती देने वाला सामने आया उस चुनाव में वे धड़ाम हो गये, जबकि भाजपा की उस बम्पर लहर में हर कोई जीत गया था। भाटी को अपनी पारी समाप्ति की घोषणा उस हार के साथ ही कर देनी थी, शायद ऐसा ही वे चाहते भी थे, तभी नीम-हकीमी में लग गये। लेकिन लगता है सलाहकार और तथाकथित नजदीकी नहीं चाहते होंगे कि ऐसा हो, क्योंकि अब तक उनके स्वार्थों की पूर्ति जिस नाम से होती रही, उसकी 'कली' वे बनाये रखना चाहते होंगे। लेकिन भाटी के हाल ही के हर फैसले के बाद उनकी 'कली' उतरती गयी, फिर वह चाहे 2018 का चुनाव हो, भाजपा छोडऩे का निर्णय हो या लोकसभा चुनाव में रही उनकी नकारात्मक सक्रियता। देवीसिंह भाटी को ठिठककर सोचना चाहिए थाये जो उनके शुभचिंतक उन्हें घेरे रहते हैं, वे अपने हितों के लिए उनकी साख तो कहीं दावं पर नहीं लगा रहे हैं, ठिठक कर सोचते तो सामाजिक न्याय मंच को पुनरुज्जीवित कर नगर निगम के चुनावों में कूदने की मंशा नहीं बनाते। नहीं लगता कि इन चुनावों में वे कुछ खास हासिल कर पाएंगे। हां, वे भाजपा का खेल बिगाड़ जरूर सकते हैं। लेकिन कांग्रेस और भाजपा ने जिस तरह से टिकटों का बंटवारा किया है उससे लगता है कि वे इस चुनाव में भाजपा का कुछ खास नहीं बिगाड़ सकेंगे बावजूद इसके कि मोदी और शाह का जादू लगातार कम हो रहा है। बीकानेर में बोर्ड जैसे-तैसे भी यदि भाजपा का बनता है तो उसका श्रेय केवल और केवल भाटी की रड़कन रहे अर्जुनराम मेघवाल को ही जायेगा।
जैसा कि ऊपर जिक्र किया, पिछले लोकसभा चुनाव के बाद मोदी और शाह का जादू लगातार कम हो रहा है। लेकिन ना कांग्रेसी हाइकमान और ना ही सूबाई नेतृत्व इसका लाभ उठाने की कोई कोशिश में हैं। दोनों जगह असमंजस की स्थिति है, तभी स्थानीय संगठनों को दरकिनार कर विधायकों और विधानसभा चुनाव के हारे नेताओं को इन स्थानीय निकायों के चुनावी निर्णयों के सभी अधिकार देने जैसा प्रतिकूल निर्णय हुआ है। बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो टिकट बंटवारे का और चुनाव संचालन का अधिकार बीकानेर पूर्व से चुनाव हारे कन्हैयालाल झंवर और पश्चिम से विधायक और मंत्री डॉ. बीडी कल्ला को दिये गये हैं। सुनते हैं झंवर ने कोई खास रुचि नहीं ली। इस तरह सब कुछ तय कल्ला परिवार ने ही किया है, उस कल्ला परिवार ने, जिसे पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं से ऊपर हमेशा अपना कार्यकर्ता ही प्रिय लगता रहा है। उम्मीदवारों की सूची और विद्रोह को देखें तो यह सब साफ लगता है। जबकि पार्टी जिस दौर से गुजर रही है और विपरीत परिस्थितियों में भी पार्टी के लिए जो कार्यकर्ता जूझते रहे हैं, तवज्जुह उन्हें मिलनी चाहिए थी ना कि परिवारविशेष के निजी लोगों को।
खैर, टिकट बंटवारे को लेकर कुछ असंतोष भाजपा में भी है। लेकिन फिर भी यहां जिन्हें टिकट दिया गया, उससे लगता है कि अधिकांश सक्रिय कार्यकर्ताओं को संतुष्ट किया गया।
हमें इसे नजर अन्दाज नहीं करना चाहिए कि इन चुनावों से पूर्व सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या पर निर्णय आने वाला है। यह ऐसा निर्णय है जो संघ के पक्ष में जाए तब भी संघ-भाजपा को लाभ होगा और विरोध में जाए तब भी। पक्ष में गया तो हिन्दुत्वी ऐजेन्डे का या कहें बहुसंख्यकों का तुष्टीकरण होगा और विपरीत में गया तो बहुसंख्यकों का धुव्रीकरण, यानी संघ के दोनों हाथों में लड्डू हैं। तब पूरे विपक्ष के लिए ठगा सा खड़े रहने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसी परिस्थिति के लिए विपक्ष खुद भी जिम्मेदार कम नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
07 नवम्बर, 2019