Tuesday, April 30, 2013

मुलायम के बहाने समाजवाद


आचार्य नरेन्द्रदेव, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की विरासत कब्जाए मुलायमसिंह यादव और उनकी पार्टी के नेता आए दिन कुछ कुछ ऐसा करते और कहते रहते हैं जिससे उनका तो तमाशा बनता ही है, समाजवाद का भी मखौल उड़ता है। वैसे समाजवाद अब केवल महाविद्यालयी पाठ्य पुस्तकों और पुस्तकालयों में सन्दर्भित पुस्तकों की जरूरत भर रह गया है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायमसिंह चीनी घुसपैठ पर सैनिक कार्रवाई की बात कहते हैं, लहजा उनका ऐसा है कि 1996-97-98 में उनके रक्षामंत्री रहते यह घुसपैठ हुई होती तो शायद वे बिना प्रधानमंत्री से पूछे ही चीन पर हमला बोल देते। मुलायमसिंह क्या भारत-चीन सीमा विवाद की पेचीदगियों से वाकिफ नहीं हैं? लोहिया ने भारत चीन पर बहुत लिखा है, मुलायमसिंह लोहिया को अपना गुरु मानते हैं। ऐसा तो नहीं मान सकते हैं कि मुलायम विचारहीन नेता हैं। तब क्या आम चुनावों के दहलीजी साल पर खड़े मुलायमसिंह ऐसे बयान वोट बटोरू मकसद से ही दे रहे हैं? लगता तो यही है।
समाजवादी पार्टी के एक दिग्गज और हैं आजम खां। कहते हैं वे पार्टी का मुसलिम चेहरा हैं। लोहिया, नरेन्द्रदेव होते तो इस उपमा पर सिर पीट लेते। अमरीकी हवाई अड्डे पर आजम खां ने अपने साथ हुए व्यवहार के लिए विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद को जिम्मेदार ठहराया है। उनका कहना है कि वहां उनके साथ जो कुछ हुआ वह सलमान खुर्शीद के इशारे पर हुआ है। आजम खां को ऐसा कहते इतना एहसास भी नहीं हुआ कि इस तरह वे उत्तरप्रदेश की मुसलिम राजनीति में अपने धुर विरोधी को कुछ ज्यादा ही भाव दे रहे हैं। यानी सलमान खुर्शीद इतने प्रभावी हो गये हैं कि अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था भी उनके कहे चलने लगी है। सलमान और आजम के सन्दर्भ से पिछले अर्से का पुनरावलोकन किया जाय तो दोनों एक ही माजने के लगते हैं। सलमान अपनी पत्नी की स्वयंसेवी संस्था पर लगे आरोपों की सफाई में नंगे हुए तो आजम जब से अखिलेश की सरकार मेंशक्तिशालीमंत्री बने तब से अजब-गजब सुर्खियां पाते रहे हैं।
और समाजवादियों पर भी
समाजवादियों के बारे में दो बातें प्रचलित हैं--एक तो यह कि ये घोर आलसी होते हैं, चिन्तन-मंथन तो करते रहते हैं, आमजन की चिन्ता भी करते हैं और उनके लिए चिन्तन भी। लेकिन उसके क्रियान्वयन की बात होते ही या तो आलस्य आड़े जाता है या उनका जरूरत से ज्यादा लोकतान्त्रिक होना। लोकतान्त्रिक होना इसलिए कि प्रत्येक की लोकतान्त्रिक धारणाएं अपनी होती हैं इसलिए ना तो यह एक-दूसरे के विचार से सहमत होते हैं और असहमत। और यदि किसी मुद्दे को लेकर मतैक्य नहीं है तो विचार सिर से जमीन पर या तो आयेगा नहीं और आएगा तो बिखर कर। इसी के चलते समाजवाद जैसी मानवीय विचारधारा मानवीय अनुकूलता बनाने में सफल नहीं हो पायी। पिछली सदी के आठवें दशक की शुरुआत में इन्दिरा गांधी को भी समाजवाद में गुंजाइश दिखी तो उन्होंने इसे लागू भी करना चाहा। कुछ कदम चलीं भी। लेकिन समाजवाद के सहोदर वामपंथियों की ट्रेड यूनियनों ने कर्तव्यों को दरकिनार कर सिर्फ हकों की बात करके समाजवादी संकल्पनाओं की हवा निकाल दी तो धंधा समझ कर राजनीति में आए नेताओं ने भ्रष्टाचार के चलते समाजवाद को पूरी तरह असफल करार दिलवा दिया। व्यावहारिक राजनीति में अब कोई उसका नामलेवा भी नहीं बचा है। समाजवादी नाम से पार्टी चला रहे मुलायमसिंह भी नहीं!
30 अप्रैल, 2013