Thursday, August 27, 2020

वंशवाद-परिवारवाद : कांग्रेस और उसका वर्तमान

 जिस भारत में संस्कृति, परम्परा और शासन के साथ आजीविका भी वंश से तय होती रही है, वहां वंशवाद पर अंगुली उठाना ढकोसला लगता है। इस बात की प्रतिक्रिया में यह कहा जा सकता है कि राजनीति में वंशवाद कब था। तो राजनीति शुरू ही आजादी बाद हुई है। आजादी के आन्दोलन के दौरान समर्पण की राजनीति थी, आजादी बाद वह नेहरू-शास्त्री तक कायम रही। इन्दिरा गांधी के समय को इसका संक्रान्ति-काल कह सकते हैं। बाद इसके राजनीति को जब पेशे के तौर पर अपनाया जाने लगा तो वंशवाद से बचते कैसे। अपवाद के तौर पर वामपंथियों और संघ पोषित जनसंघ-भाजपा के उदाहरण दिये जा सकते हैं। लेकिन इन दोनों धाराओं में विचार-वंश की परम्परा तो रही ही है। जिसे वामपंथियों ने हाल तक निभाया है, लेकिन संघ पोषित भाजपा में जब से विचारहीनता ने जगह बनायी, वंशवाद तब से वहां भी कांग्रेस से होड़ लेता दिखने लगा।

बात कांग्रेस की कर रहे हैं, जिसमें सबसे ज्यादा टारगेट नेहरू-गांधी परिवार के वंशवाद को किया जाता रहा है। इसलिए उसका विहंगावलोकन एक बारगी जरूरी है। आजादी का आन्दोलन शुरुआत में वैसा नहीं था जैसा बाद में गांधी के नेतृत्व में था और ना ही तब पूर्ण आजादी उद्देश्य था। लगभग क्लब की तरह गठित कांग्रेस में समाज का उच्च वर्ग ही शामिल था। शुरुआत में उनकी मंशा अपनी विशेष जरूरतों को पूरा करना और साथ ही शौकिया समाज सेवा करना भर था। बाद में जब तिलक-गोखले और मोतीलाल नेहरू जैसे नेता आये तो उसका केनवास बढ़ता गया। अपनी खुद की भिन्न सोच और गांधी से प्रभावित जवाहरलाल नेहरू की सार्वजनिक सक्रियता पिता मोतीलाल नेहरू से भिन्न थी। जवाहरलाल को अनुकूलता चाहे परिवार और पिता की हैसियत से मिली हो, लेकिन अपनी राजनीतिक हैसियत उन्होंने अपने बूते ही बनायी। लगभग ऐसा ही इन्दिरा गांधी के लिए भी कह सकते हैं। जवाहरलाल नेहरू जब तक जिन्दा थे, वे सावचेत रहे कि उनकी बेटी होने की वजह से इन्दिरा को पात्रता से अधिक हैसियत ना मिले। नेहरू के होते इन्दिरा गांधी ने कोई चुनाव नहीं लड़ा और एक वर्ष की कांग्रेस अध्यक्षी के अलावा ना ही उन्हें कोई बड़ा पद मिला। नेहरू ने ना शासन में और ना ही पार्टी संगठन में इन्दिरा को बढ़ावा दिया। अध्यक्षी की कथा भी उल्लेखनीय है। कहा जाता है, 1959 में जब कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना था, कुछ नेताओं ने इन्दिरा गांधी को अध्यक्ष बनवा दिया, नेहरू इससे खुश नहीं थे। यही वजह थी कि इन्दिरा गांधी पार्टी अध्यक्ष मात्र एक वर्ष के लिए ही रह पायी।

नेहरू के निधन के बाद इन्दिरा गांधी को राज्यसभा में लाकर लालबहादुर शास्त्री ने सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया। शास्त्रीजी के निधन के बाद जब इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी तो उन्होंने राजनीति और शासन के तौर-तरीके अपने पिता से भिन्न अपनाये और अलग तरह की छाप भी छोड़ी-जिसमें आपातकाल और आपरेशन बल्यू स्टार जैसे बदनुमा दाग भी हैं।

जैसा कि ऊपर कहा है कि इन्दिरा गांधी का समय भारतीय राजनीति का संक्राति-काल था, राजनीति और शासन के तौर-तरीकों में बदलाव का काल था। इन्दिरा के समय कांग्रेस में हुए दो फाड़ में कई दिग्गजों के अलग होने के बाद भी बड़े कद के अनेक नेता कांग्रेस में थे। लेकिन अपना राजनीतिक उत्तराधिकार सौंपने के भरोसे लाइक इन्दिरा गांधी को कोई नहीं दिखा। जबकि नेहरू को अपना उत्तराधिकार सौंपने की चिंता थी ही नहीं, तब कांग्रेस एक आकाशगंगा की भांति थी।

इन्दिरा गांधी के दो पुत्रों में बड़े राजीव गांधी पायलट के अपने पेशे से खुश थे तो छोटे संजय गांधी राजसी मिजाज के थे, मां की हैसियत को भोगने की लालसा थी। इन्दिरा गांधी भी पुत्रमोह में संजय में अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी देखने लगी। कहा जाता है आपातकाल से पूर्व और उसके दौरान की इन्दिरा गांधी की सारी बदनामियों की वजह संजय ही थे।

आपातकाल में हुए 1977 के चुनाव में उत्तर भारत में करारी हार और बदनामियों के बाद इन्दिरा गांधी राजनीति अपने बूते फिर से करने लगी थी। अनेक दलों से बनी जनता पार्टी का प्रयोग ज्यों-ज्यों असफल होता गया, त्यों-त्यों इन्दिरा गांधी की राजनीति पुन: परवान चढ़ने लगी। जनवरी 1980 में इन्दिरा गांधी ने चुनाव जीत कर सत्ता पुन: हासिल कर ली। संजय गांधी हाशिये पर चले गये और इसी बीच जून, 1980 में हुई हवाई दुर्घटना में उनका देहान्त हो गया।

संजय गांधी के असामयिक निधन से इन्दिरा गांधी को बड़ा धक्का लगा। प्रधानमंत्री के इस कार्यकाल में संजय गांधी की राजनीतिक सक्रियता खास ना होने के बावजूद उनका जाना इन्दिरा को अकेला कर गया।

इन्दिरा गांधी का उत्तराधिकार का लोभ राजीव को राजनीति में लाने का आग्रह बन गया। राजीव और उनकी पत्नी सोनिया इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। लेकिन राजीव मां के आग्रह के सामने फिसलने लगे। यही वह दौर था जब भारतीय संस्कारों में रच-बस गई सोनिया गांधी पहली बार अपनी सास इंदिरा गांधी से असहमत दिखीं, लेकिन सास के मान में उन्होंने अपने को जप्त कर लिया। 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के समय जब राजीव को प्रधानमंत्री बनाने की बात चली तब भी सोनिया अनइच्छुक थी। लेकिन पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में उसकी आवाज तात्कालिक परिस्थितियों में दब कर रह गयी। सोनिया की नजरों के सामने इन्दिरा गांधी की हत्या ने सोनिया को अन्दर तक हिला दिया था। वह चाहने लगी थी कि अपनी गृहस्थी के साथ शान्ति से जीवनयापन करें। लेकिन हमारे समाज में स्त्रियों की सुनी कहां जाती है। उसकी आशंकाएं सच साबित हुईं, पहले बोफोर्स की बदनामी से पार्टी की हार और बाद उसके 1991 में राजीव की हत्या ने उसे एक बार फिर सूना कर दिया। सोनिया भारतीय संस्कारों में रची-बसी ना होती तो अपने दोनों बच्चों को लेकर यूरोप लौट जाती। राजनीति से दूर सोनिया अपने बच्चों के पालन-पोषण में लग गयी। पालन-पोषण भी ऐसा कि उनके बच्चों को राजनीति की हवा भी ना लगे। ऐसी परवरिश की वजह ने ही अच्छे-भले, पढ़े-लिखे राहुल पर पप्पू होने की छाप को अनुकूलता दी। राजनीति को ध्यान में रखकर राहुल-प्रियंका की परवरिश होती तो दोनों का व्यक्तित्व आज दूसरा होता।

चामत्कारिक व्यक्तित्व की आदी हो चुकी कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं ने सोनिया के राजनीतिक वैराग को ज्यादा दिन नहीं रहने दिया। कांग्रेस की विरासत को बचाये रखने के नाम पर कांग्रेसियों की ब्लैकमेलिंग आखिर काम कर गयी। लुंज-पुंज होती कांग्रेस को संभालने के लिए सोनिया को मजबूर किया गया। वे आयीं और 2004 और 2009 के चुनावों में कांग्रेस को सत्ता में लौटाया। राजनीति के प्रति सोनिया वाला अनमनापन राहुल में भी था और प्रियंका में भी। लेकिन इन दोनों के साथ भी कांग्रेसियों ने सोनिया वाली युक्ति ही दोहरायी। राहुल और प्रियंका वर्तमान राजनीति के झूठ-फरेब और दंद-फंद वाले दौर में एकदम अनफिट हैं, बावजूद इसके जैसे और जितने भी हैं, डटे हुए हैं, यह जानते हुए भी कि राजनीति भले लोगों की नहीं रही।

वंशवाद या परिवारवाद की बात छोड़िये, ना केवल नेहरू और इन्दिरा बल्कि खुद सोनिया और राहुल के बारे में अनाप-शनाप गप्पें गढ़ के फैलाने और उनकी छवि खराब करने में विपक्षियों द्वारा करोड़ों खर्च किये जा रहे हैं। इस झूठी बदनामी की परवाह कियेे बिना ये तीनों जैसे-तैसे भी, कांग्रेस को बचाने में लगे हैं।

यह सब लिखने की जरूरत इसलिए लगी कि अभी हाल ही में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कांग्रेस में जान फूंकने के नाम पर सोनिया को पत्र लिखा है। बिना अपने गिरेबान में झांके उनमें से अधिकांश ऐसे हैं, जिनकी ना तो जमीनी सक्रियता है, और ना ही मुखरता।

दीपचन्द सांखला

27 अगस्त 2020

Thursday, August 13, 2020

राजस्थान : राजनीतिक उठापटक और पटाक्षेप

 राजस्थान की विधायिका के छुट्टियां मनाकर लौटने का समय गया है, चूंकि सरकार भी विधायिका से बनी है, सो छुट्टियां उसने भी मनाई लेकिन बीच-बीच में लौट कर जरूरी काम भी निपटाए। संभव है 14 अगस्त को छुट्टियां खत्म हो जाएं।

सत्तारूढ विधायक दल में असन्तोष था, केन्द्र सरकार के प्रबन्धकों को हवा देने का अवसर मिल गया। केन्द्र की वर्तमान सरकार दस्तावेजी तौर से है तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की लेकिन वह संसद में सबसे बड़े दल भाजपा की भी नहीं है। मात्र दो लोगनरेन्द्र मोदी और अमित शाह उसे अपनी 'नागाई' से हांक रहे हैं। हमारी बहुदलीय जनतांत्रिक प्रणाली उन्हें रास नहीं रही, वे इसे एक दलीय शासन प्रणाली के नाम पर व्यक्ति विशेष की जागीर बनाने पर तुले हैं। प्रदेशों में जहां भी थोड़ी गुंजाइश दिखती है, वहीं वे अपना प्यादा बिठाने के जुगाड़ में लग जाते हैं।

राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार है, लगभग पूर्ण बहुमत से बनी सरकार को गहलोत ने और विधायक जुगाड़ कर अपने को सुरक्षित कर लिया था। लेकिन गलतफहमी ने अपना काम किया, प्रदेश अध्यक्ष रहे सचिन पायलट को वहम हो गया कि मुख्यमंत्री बनने का उनका हक मारा गया है। हेकड़ी इतनी प्रबल कि उपमुख्यमंत्री जैसे शासकीय लेबल और पार्टी अध्यक्ष जैसी जिम्मेदारी के बावजूद मुख्यमंत्री से सामंजस्य बनाये रखना उन्हें अपनी हेठी लगती रही। घाघ गहलोत ऐसे व्यवहार को कब बर्दाश्त करने वाले थे। जबकि वे ये जानते हैं कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत में भाजपा के आंतरिक असंतोष के बाद सबसे ज्यादा योगदान खुद उनका है। पार्टी अध्यक्ष पायलट जरूर थे लेकिन स्वभाव में गहलोत से ठीक उलट भीड़ से सहमने और कार्यकर्ताओं के बीच असहज महसूस करने वाले पायलट की वजह से गुर्जर बहुल कुछेक विधानसभा क्षेत्रों में ही पार्टी उम्मीदवारों को जिताने में उनका योगदान मान सकते हैं। शेष विधानसभा क्षेत्रों में वसुन्धरा सरकार के खिलाफ भाजपाइयों के ही पैदा किये असंतोष को या तो गहलोत ने भुनाया या स्थानीय उम्मीदवार ने।

लेकिन समर्थक जब चापूलस हो लेते हैं तो नेता को फिर सचिन पायलट के हश्र को हासिल होना होता। जो पायलट 2023 तक राजस्थान में कांग्रेस के स्वभाविक नेता हो सकते थे, अब हो सकता है उनकी राजनीति की बिसात इस सूबे से सिमट जाये। व्यावहारिक राजनीति में धीरज रखने की जरूरत होती है। लेकिन वहम ने उनके तौर-तरीकों ने उचकाने वालों को अवसर दिया और विरोधियों के चक्रव्यूह में जा फंसे। सूबे की सरकार जब से बनी गहलोत का भी ध्यान बजाय शासकीय उपलब्धियों को हासिल करने के, अनमने सचिन की ऐसी सक्रियता में लगा रहा। यही वजह है कि गहलोत अपने इस कार्यकाल की शुरुआत से ही अपना परम्परागत असर नहीं दिखा पा रहे थे। 

इस बीच मार्च में राज्यसभा चुनाव भी थे तो कोविड-19 महामारी ने भी घेरा। चौकस गहलोत ने विरोधियों के झांसे में आये सचिन पायलट की कुचमादी के बावजूद ना केवल अपने दोनों उम्मीदवार जितवाये बल्कि कोरोना वायरस से प्रदेश की जनता को बचाने में मुस्तैद रहे, परिणाम भी मिले। कोरोना से जिन प्रदेशों ने बेहतर मुकाबला किया उनकी गिनती में राजस्थान लगातार ऊपर रहा है, बावजूद सरकार पर संकट के।

राज्यसभा चुनाव के बाद भी गहलोत को जब लगा कि इस संकट के समय ना विरोधी दल को चैन है और ना सचिन को धैर्य। ऐसे में उन्होंने आर-पार करने की ठान ली। पिछले डेढ़ माह का सारा एपिसोड उसी आर-पार का है। यद्यपि गहलोत जितना आसान इसे समझते थे, उतना आसान यह आर-पार नहीं रहा, जैसे-तैसे भी सचिन कांग्रेस में बने रह गये। इसमें सचिन की ज्योतिरादित्य से मित्रता काम कर गई। सिंधिया की उस सलाह ने सचिन को ठिठका दिया कि 'भाजपा में शामिल हुए बिना कुछ कर सकते हो तो करो।' इसी सलाह ने जहां सचिन को राजनीतिक आत्महत्या से बचा लिया वहीं गहलोत की आर-पार की मुहिम को धक्का भी लगा दिया।

खैर! जो होना था, वह हो गया। राजनीतिक पार्टियों और शासन की ऐसी उठापटक में नेताओं का नुकसान तो उनकी अपनी करतूतों से होता है लेकिन असल नुकसान जनता का होता है, जिसकी पूरी भरपाई कभी संभव नहीं होती। 

केन्द्र की वर्तमान सरकार जब से आयी, उसके मूर्खतापूर्ण निर्णयों और एक छत्र राज की उसकी हवस ने देश का बेड़ा गर्क कर दिया है। सभी मोर्चों पर असफल केन्द्र की सरकार से इस महामारी काल में जनकल्याण की कैसी भी उम्मीद करना बेकार है।

ऐसे में उन राज्य सरकारों पर उम्मीद जा टिकती है, जहां के शासन के मुखिया संवेदनशील हैं। जमीन से उठे और आप बूते इस हैसियत तक पहुंचे संवेदनशील अशोक गहलोत से अब यह उम्मीद है कि इस घटनाक्रम के बावजूद पार्टी में सामंजस्य बिठायेंगे और अब तक रही कमियों की भरपाई करते हुए जनकल्याण में पूरी तरह जुटेंगे।

सचिन पायलट से उम्मीद है कि अपनी अति महत्वकांक्षाओं को दरकिनार कर विरासत में मिली पद-प्रतिष्ठा और बची-खुची हैसियत को पुन:प्रतिष्ठ करने में पूर्ण धैर्य के साथ जुट जाए। क्योंकि फिलहाल देश को समझदार नेताओं की जरूरत है, वह समझदारी सचिन के पास है, बशर्तें वे फिर से ना उचके। हालांकि उचकाने वाले बाज नहीं आयेंगे। सचिन ने इस उठापटक में अपना नुकसान बहुत कर लिया है। वे यह मान लें कि लाज रखने को राहुल गांधी की मित्रता और सोनिया-प्रियंका से नजदीकी रोज-रोज काम नहीं आनी है।

दीपचन्द सांखला

13 अगस्त, 2020