Thursday, April 15, 2021

ज्योतिराव फुले और भीमराव अंबेडकर

ज्योतिराव फुले का जन्म 11 अप्रेल, 1827 को और डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रेल 1891 को। 19वीं ईस्वी शताब्दी के अप्रेल में जन्मीं दोनों विभूतियों ने भारतीय समाज के दबे-कुचले वर्गों में आत्मविश्वास का उल्लेखनीय भाव पैदा किया। कह सकते हैं ज्योतिराव फुले ने जिस क्षेत्र में दबे-कुचले वर्गों में आत्मविश्वास जगाने के लिए जो जमीन तैयार की—डॉ. अम्बेडकर उसी में फले-फूले। मध्यप्रदेश के मालवा से महाराष्ट्र के कोंकण और विदर्भ के बीच का भू-भाग ज्योतिराव फुले की सक्रीयता से जाग्रत हुआ। इन दोनों विभूतियों पर फेसबुक मित्र संजय श्रमण ने एक अच्छी टिप्पणी की है जिसे 'विनायक' के पाठकों से साझा करना जरूरी लगा।

यह अनायास नहीं है कि इसके ठीक उलट 'क्रिया की प्रतिक्रिया' होने का कुतर्क देने वाली विचारधारा के उच्चवर्गीय संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवर प्रतिक्रिया के तौर पर उसी क्षेत्र में पनपे, और यह भी कि इसी संगठन के दूसरे और तीसरे सर संघचालक भी इसी क्षेत्र से आए जहां ज्योतिराव फुले ने दलित और पिछड़ों को जागरूक किया। —दीपचन्द सांखला

ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब अंबेडकर का जीवन और कर्तृत्व बहुत ही बारीकी से समझे जाने योग्य है। आज जिस तरह की परिस्थितियां हैं उनमें ये आवश्यकता और अधिक मुखर और जरूरी बन पड़ी है।

दलित आन्दोलन या दलित अस्मिता को स्थापित करने के विचार में भी एक 'क्रोनोलॉजिकल' प्रवृत्ति है, समय के क्रम में उसमें एक से दूसरे पायदान तक विकसित होने का एक पैटर्न है और एक सोपान से दूसरे सोपान में प्रवेश करने के अपने कारण हैं। ये कारण सावधानी से समझे और समझाये जा सकते हैं।

अधिक विस्तार में न जाकर ज्योतिबा फुले और अंबेडकर के उठाये कदमों को एक साथ रखकर देखें। दोनों में एक जैसी त्वरा और स्पष्टता है। समय और परिस्थिति के अनुकूल दलित समाज के मनोविज्ञान को पढऩे, गढऩे और एक सामूहिक शुभ की दिशा में उसे प्रवृत्त करने की दोनों में मजबूत तैयारी दिखती है। और चूंकि कालक्रम में उनकी स्थितियां और उनसे अपेक्षाएं भिन्न हैं, इसलिए एक ही ध्येय की प्राप्ति के लिए उठाये गए उनके कदमों में समानता होते हुए भी कुछ विशिष्ट अंतर भी नजर आते हैं। 

ज्योतिबा के समय में जब कि शिक्षा दलितों के लिए दुर्लभ थी, और शोषण के हथियार के रूप में निरक्षरता और अंधविश्वास जैसे 'भोले-भाले' कारणों को ही मुख्य कारण माना जा सकता था—ऐसे वातावरण में शिक्षा और कुरीति निवारण—इन दो उपायों पर पूरी ऊर्जा लगा देना आसान था, न केवल आसान था बल्कि यही संभव भी था।  और यही ज्योतिबा ने अपने जीवन में किया भी। क्रान्ति-दृष्टाओं की नैदानिक दूरदृष्टि और चिकित्सा कौशल की सफलता का निर्धारण भी समय और परिस्थितियां ही करती हैं।  

इस विवशता से इतिहास का कोई क्रांतिकारी या महापुरुष कभी नहीं बच सका है।  ज्योतिबा और उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी अंबेडकर के कर्तृत्व में जो भेद हैं उन्हें भी इस विवशता के आलोक में देखना उपयोगी है। इसलिए नहीं कि एक बार बन चुके इतिहास में अतीत से भविष्य की ओर चुने गये मार्ग को हम इस भांति पहचान सकेंगे, बल्कि इसलिए भी कि अभी के जागृत वर्तमान से भविष्य की ओर जाने वाले मार्ग के लिए पाथेय भी हमें इसी से मिलेगा।

ज्योतिबा के समय की 'चुनौती' और अंबेडकर के समय के 'अवसर' को तत्कालीन दलित समाज की उभर रही चेतना और समसामयिक जगत में उभर रहे अवसरों और चुनौतियों की युति से जोड़कर देखना होगा। जहां ज्योतिबा एक पगडंडी बनाते हैं उसी को अंबेडकर एक राजमार्ग में बदलकर न केवल यात्रा की दशा बदलते हैं बल्कि गंतव्य की दिशा भी बदल देते हैं।

नए लक्ष्य के परिभाषण के लिए अंबेडकर न केवल मार्ग और लक्ष्य की पुनर्रचना करते हैं बल्कि अतीत में खो गए अन्य मार्गों और लक्ष्यों का भी पुनरुद्धार करते चलते हैं। फुले में जो शुरुआती लहर है वो अंबेडकर में प्रौढ़ सुनामी बनकर सामने आती है और एक नैतिक आग्रह और सुधार से आरम्भ हुआ सिलसिला, किसी खो गए सुनहरे अतीत को भविष्य में प्रक्षेपित करने लगता है।

आगे यही प्रक्षेपण अतीत में छीन लिए गए 'अधिकार' को फिर से पाने की सामूहिक प्यास में बदल जाता है।

इस यात्रा में पहला हिस्सा जो शिक्षा, साक्षरता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने जैसे नितांत निजी गुणों के परिष्कार में ले जाता था, वहीं दूसरा हिस्सा अधिकार, समानता और आत्मसम्मान जैसे कहीं अधिक व्यापक, इतिहास सिद्ध और वैश्विक विचारों के समर्थन में कहीं अधिक निर्णायक जन-संगठन में ले जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि इसके साधन और परिणाम स्वरूप राजनीतिक उपायों की खोज, निर्माण और पालन भी आरम्भ हो जाता है।

यह नया विकास स्वतंत्रता पश्चात की राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति में बहुतेरी नयी प्रवृत्तियों को जन्म देता है। जो समाज हजारों साल से निचली जातियों को अछूत समझता आया था उसकी राजनीतिक रणनीति में जाति का समीकरण सर्वाधिक पवित्र साध्य बन गया।

ये ज्योतिबा और अंबेडकर का किया हुआ चमत्कार है, जिसकी भारत जैसे रुढि़वादी समाज ने कभी कल्पना भी न की थी। यहां न केवल एक रेखीय क्रम में अधिकारों की मांग बढ़ती जाती है बल्कि उन्हें अपने दम पर हासिल करने की क्षमता भी बढ़ती जाती है। 

इसके साथ-साथ इतिहास और धार्मिक ग्रंथों के अंधेरे और सड़ांध-भरे तलघरों में घुसकर शोषण और दमन की यांत्रिकी को बेनकाब करने का विज्ञान भी विकसित होता जाता है। ये बहुआयामी प्रवृत्तियां जहां एक साथ एक ही समय में इतनी दिशाओं से आक्रमण करती हैं कि शोषक और रुढि़वादी वर्ग इससे हताश होकर 'आत्मरक्षण' की आक्रामक मुद्रा में आ जाता है।

एक विस्मृत और शोषित अतीत की राख से उभरकर भविष्य के लिए सम्मान और समानता का दावा करती हुई ये दलित चेतना, इस पृष्ठभूमि में लगातार आगे बढ़ती जाती है। —संजय श्रमण

15 अप्रेल, 2021

Thursday, April 8, 2021

पाती अशोक गहलोत के नाम/संदर्भ : दांडी मार्च समापन दिवस संगोष्ठी

 मान्य अशोकजी,

नहीं जानता इस पत्र को भी पढऩे का समय आप निकाल पाएंगे। हो सकता है पिछले पत्र के हश्र को यह पत्र भी हासिल हो लेगा। खैर! मैं अपनी जिम्मेदारी पूरी करता हूं। इस पत्र की प्रेरणा 6 अप्रेल, 2021 को ऑनलाइन आयोजित दांडी मार्च समापन दिवस कार्यक्रम से मिली, जिसमें बीकानेर से एक प्रतिभागी में भी था। दांडी मार्च की प्रासंगिकता पर आहूत उक्त गोष्ठी में जो सुझाव देना चाहता थावह इस पत्र के माध्यम से साझा कर रहा हूं।

सनातन शब्दावली में बात करें तो गांधी और नेहरू आजाद भारत के पितृ-पुरुष हैं। इन दोनों पितृ-पुरुषों के बारे में जो झूठ और अनर्गलता आजादी बाद से संगठित और व्यवस्थित रूप से फैलाई जा रही है, सोशल मीडिया आने के बाद तो उस झूठ और अनर्गलता को पंख लग गये हैं। इसी पितृ-दोष के चलते ना केवल लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हुआ बल्कि अब तो संवैधानिक संघीय ढांचा भी ताक पर है।

सोशल मीडिया की चपेट में आये युवकों के बीच गांधी और नेहरू को जिस तरह खारिज किया जा रहा है उसके चलते सक्रिय और मुखर आमजनों काविशेष कर नयी पीढ़ी का गांधी और नेहरू द्वारा स्थापित मूल्यों और संस्थानों पर भरोसा खत्म हो गया है। 

झूठ और अनर्गलताओं का प्रतिरोध जिस स्तर पर और जितना व्यवस्थित होना चाहिए वह हो नहीं रहा। इन सबसे चिन्तित कुछ लोग छिटपुट प्रतिरोध और खंडन-मंडन जरूर कर रहे हैं। लेकिन झूठ की गति और ताकत के सामने वह ऊंट के मुंह में जीरा भी साबित नहीं हो पा रहा। उन्हें झूठा साबित करने के लिए उनके फैलाये झूठ के खिलाफ उनसे भी तेज गति से सत्य को प्रचारित और स्थापित करना जरूरी है जो सोशल मीडिया की व्यवस्थित टीम के बिना संभव नहीं लगता।

मुख्यमंत्री के अलावा आप में एक गांधीनिष्ठ की छवि भी देखी जाती है। इसीलिए उम्मीद भी की जाती है कि शासन-प्रशासन से अलग एक व्यवस्थित अभियान की जरूरत आप समझेंगे और ऐसे अभियान के लिए गैर सरकारी स्तर पर गुंजाइश बनायेंगे।

दांडी मार्च समापन कार्यक्रम के अपने उद्बोधन में आपने 'शान्ति और अहिंसा प्रकोष्ठ' के अब तक किये कार्यक्रमों की अच्छी-खासी प्रशंसा की। लेकिन ऐसे कार्यक्रम औपचारिकता भर हैं, उनकी कैसी भी पैठ जमीनी स्तर पर दिखाई नहीं देती ऐसे खानापूर्ति आयोजनों से ना कुछ हासिल हुआ, ना ही होने वाला है। ऐसे आयोजनों की व्यवस्थित फीडबैक ऊपर तक पहुंचाई जाती है, जिससे आभास मात्र होता है कि बहुत कुछ सार्थक हो रहा है।

इस पत्र को लम्बा ना करते हुए 6 अप्रेल के दांडी मार्च समापन दिवस आयोजन के डिजायन की भी बात करना जरूरी लगता है। हनुमानगढ़ मूर्ति अनावरण कार्यक्रम को दांडी मार्च प्रासंगिकता वाली संगोष्ठी के साथ घालमेल नहीं किया जाना चाहिए था। दोनों कार्यक्रमों की प्रकृति भिन्न हैं। जहां मूर्ति अनावरण पब्लिक प्रोग्राम होता है, वहीं संगोष्ठी विशेष, जिसमें किसी विशेष विषय पर विमर्श कर भविष्य की दिशा तय की जाती है। उक्त संयुक्त आयोजन में हुआ यह कि शान्ति धारीवाल को अपनी उपलब्धियां गिनवानी पड़ी वहीं मंत्रीद्वय कल्ला और यादव तथा आरपीएससी के पूर्व चेयरमैन बीएम शर्मा ने भी दांडी मार्च तथा गांधी के इतिहास को बताने में बहुत समय ले लिया। इसकी जानकारी संगोष्ठी के संभागीयों को पहले से थी।

दो कार्यक्रमों के उलझन में हुआ यह कि जिला स्तर पर जुड़े संभागीयों को अपनी बात कहने का अवसर ही नहीं मिला। मिलता तो हो सकता है कुछ सार्थक बात और सुझाव निकल कर आते। इस संगोष्ठी के लिए जयपुर कलेक्ट्रेट से नन्दकिशोर आचार्य जैसे काम की बात करने वाले जुड़े थे, अन्य संभागों से ऐसे ही सुझाव देने वाले विद्वजन जुड़े होंगे।

ऐसे में अब जब आपके इस कार्यकाल का आधा ही समय बचा है, उम्मीद है गांधी और नेहरू के खिलाफ फैलाये जा रहे झूठ और अर्नगलता के बरक्स आप ऐसा कुछ करवा पायेंगे जो सोशल मीडिया पर स्थायी प्रभाव छोड़ सके।

दीपचन्द सांखला

8 अप्रेल, 2021