Thursday, April 18, 2019

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र : एक और पड़ताल

विधानसभा और लोकसभा चुनावों के माहौल में अन्तर होता है। विधानसभा के चुनावों में कार्यकर्ताओं की सक्रियता जहां शोर-शराबा लिए होती है, वहीं लोकसभा के चुनावों में पहले तो कार्यकर्ता सक्रिय होते ही नहीं, होते भी हैं तो कछुआ चाल में। चुनाव क्षेत्र यदि सुरक्षित हो तो सुस्ती का फिर कहना ही क्या! बीकानेर लोकसभा क्षेत्र पिछले दो चुनावों से अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए सुरक्षित है। 2009 के परिसीमन के बाद हुए इस सुरक्षित क्षेत्र का पहला चुनाव भाजपाइ अर्जुनराम मेघवाल जैसे नये चेहरे और मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे के खेमे से होने के चलते तब के चुनाव अभियान में रिमझिम रही।
2014 में मोदी मैजिक चल रहा था, भ्रमित करने और होने का माहौल जबरदस्त था, अर्जुनराम मेघवाल की नैया आसानी से पार लग गई। मोदी प्रधानमंत्री बने तो, जैसे-तैसे मंत्री भी हो लिए। लेकिन अर्जुनराम यह नहीं समझ पाए कि अपने क्षेत्र को लाभान्वित करना कैसे है। पहली बात तो यह कि उन्हें यह पता ही नहीं है कि क्षेत्र की आधारभूत जरूरतें क्या हैं, अपनी समझ से कहीं कुछ करना तय भी किया तो वह आंटा ही उनके पास नहीं था जो शीर्ष तक पहुंचे नेताओं और ब्यूरोक्रैट को दुह सके। समय कब किसका रहा, दूसरी बार मिले पांच वर्ष भी बीत गये! किया-धिया कुछ नहीं, ऊपर से खुद की ब्यूरोक्रैटिक सनक और क्षेत्र के अन्य नेताओं की जातिय हेकड़ी में टकराहट लगातार जारी रही। नतीजतन, क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों से कोई नेता हाल-फिलहाल उनके साथ नहीं दिख रहा। जबकि कांग्रेस ने सामने जो उम्मीदवार खड़ा किया, उनके चलते यह सीट निकालना अर्जुनराम के लिए बहुत मुश्किल नहीं था।
दूसरी ओर, क्षेत्रीय कांग्रेस के हालात भी ऐसे ही हैं। विधानसभा चुनावों में कांग्रेसी विधायक बने गोविन्दराम मेघवाल की पुत्री सरिता मेघवाल की उम्मीदवारी अधिकांश स्थानीय नेता चाहते थे, लेकिन पार्टी ने मदन गोपाल मेघवाल को थोप दिया। क्षेत्र के स्वयंभू कांग्रेसी क्षत्रप रामेश्वर डूडी की राजनीति हमेशा से नकारात्मक रही है जिसके परिणाम वे खुद और उनकी पार्टी भी भोगती रही है। संभावित मुख्यमंत्री की सूची में नाम दर्ज होने के बावजूद वे हार चुके हैं। लेकिन अभी भी चैन कहां हैकहा भी गया है कि 'ज्यां का पड़्यो सभाव जासी जीव सूं। दे-दिवा और अड़-अड़ाकर डूडी उन मदन गोपाल को टिकट दिलवा लाए जिन्हें क्षेत्र में कोई जानता तक नहीं। बीते नवम्बर में ही प्रमोटी आइपीएस की नौकरी से उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति इसलिए ली कि खाजूवाला से उम्मीदवारी मिल जाएगी। डूडी को जोम भी था कि टिकट दिलवा दूंगा लेकिन पार पड़ी नहीं--पड़ती भी कैसे? भाजपा में जो हाल अभी अर्जुनराम मेघवाल का हुआ, क्षेत्र की राजनीति में वैसा ही हाल शुरू ही से डूडी ने अपना बना रखा है। पार्टी में सूबे के सुप्रीमो की कौनसी नाड़ डूडी ने दबा रखी है, अभी पता नहीं लगा है, लेकिन इस दबी नाड़ के चलते ही इस चुनाव में गहलोत चौथी बार बीकानेर आ रहे हैं, वे शायद अभी तक आश्वस्त नहीं हुए हैं कि टिकट से नाराज विधानसभा वार क्षत्रप कांग्रेस को जिताने में लगेंगे कि नहीं।
बीकानेर का यह चुनाव मंद-हवाई आकाश में पतंग छोड़कर बिना पेच लड़ाए आनन्द लेने वाले जैसों का हो गया है। भाजपाइयों ने अर्जुनराम मेघवाल को चुनावी आकाश में अकेले छोड़ दिया तो अन्य कांग्रेसियों ने मदनगोपाल को। भाजपा की पतंग की डोर अभी तो अकेले शहर जिलाध्यक्ष सत्यप्रकाश आचार्य थामे हैं तो कांग्रेस में रामेश्वर डूडी, डॉ. बीडी कल्ला और भंवरसिंह भाटी तीनों ही इस फिराक में हैं कि उनके हाथ में सिर्फ लटाई रहे, डोर कोई दूसरा ही पकड़े।
एक तो विधानसभा चुनावों के मुकाबले लोकसभा चुनावों में वोटिंग वैसे भी कम होती है ऊपर से विधानसभावार क्षत्रपों की नाराजगी दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवारों की धुकधुकी को बढ़ा रही है। क्षेत्र की आठ सीटों में से केवल एक कोलायत में कांग्रेसी उम्मीदवार को वोट विधानसभा चुनावों में भंवरसिंह भाटी को मिलें वोटों से ज्यादा मिल सकते हैं, वह भी देवीसिंह भाटी की भाजपा से बगावत के चलते, अन्यथा शेष सभी क्षेत्रों में विधानसभा चुनाव में जीते हुए अपने प्रत्याशियों से ज्यादा तो दूर की बात, 20 से 30 प्रतिशत तक वोट कम ही मिलने की संभावना है।
बीकानेर में हार-जीत का अंतर इस बार 50 से 60 हजार के बीच रहता लगता है। ऐसे में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार श्योपत राम मेघवाल का प्रदर्शन बहुत कुछ तय करेगा। सीपीएम के यह प्रत्याशी 50 हजार वोट ले जाए तो हार-जीत इससे कम की ही रहती लगती है। हार-जीत यदि इतनी ही रहेगी तो ताकड़ी की काण श्योपतराम ही तय करने वाले होंगे। श्योपतराम को कमजोर इसलिए भी नहीं मानना चाहिए कि आठ विधानसभा क्षेत्रों में से एक अनूपगढ़ श्रीगंगानगर जिले में है। श्रीगंगानगर के इस क्षेत्र में ना केवल सीपीएम की अपनी पैठ है बल्कि श्योपतराम की अपनी पकड़ भी है। रायसिंहनगर से गत विधानसभा चुनाव लड़कर श्योपतराम ने 34 हजार वोट लिए और कांग्रेस को तीसरे नम्बर पर ढकेल दिया। श्रीगंगानगर जिले से लगते बीकानेर जिले के पानी वाले क्षेत्र के किसानों में भी सीपीएम की अपनी पकड़ है, वहीं श्रीडूंगरगढ़ से सीपीएम के गिरधारी महिया पहली बार विधायक चुने गये हैं। सीपीएम जीते चाहे नहीं कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में भाजपा का खेल बिगाड़नेमें लगे देवीसिंह भाटी से ज्यादा मजबूत रहेगी। कांग्रेस की स्थिति वीरेन्द्र बेनीवाल, मंगलाराम गोदारा और गोविन्द मेघवाल के मन और मंशा पर निर्भर रहेगी है। कांग्रेस में दावं पर डूडी और कल्ला दोनों की साख है। ये दोनों हर चुनाव में गोटियां पार्टी के हिसाब से नहीं, अपने हिसाब से चलते रहे हैं। अस्सी के बाद के सभी लोकसभा चुनावों पर नजर डाल लें, एक बलराम जाखड़ की उम्मीदवारी वाले चुनाव को छोड़ दें तो खुद अपने ही क्षेत्र में चुनाव की डोर कल्ला बन्धु हमेशा बेमन से पकड़े देखे गये हैं।
अर्जुनराम के लिए फिलहाल आसरा केवल मोदी नाम का है। हालांकि देवीसिंह भाटी के तोड़ के लिए संघ के स्थानीय पार्टी संगठन का काम देख चुके दशरथसिंह को लगाया गया है। वे भी बिना गोपाल गहलोत के और लम्बे समय के बाद बदली परिस्थितियों में कुछ असर दिखा पाएंगे, लगता नहीं है।
सिद्धिकुमारी को इस चुनाव से मतलब गोपाल जोशी से थोड़ा कुछ ज्यादा या कहें दिखावे भर का ही हो सकता है। वहीं अनूपगढ़ से भाजपा की संतोष बावरी को लगेगा कि क्षेत्र के वोटरों का मन इस चुनाव में माकपा के श्योपत के साथ है तो वे उलझाड़ में शायद ही पड़े। खाजूवाला, लूनकरणसर से डॉ. विश्वनाथ और सुमित गोदारा के अर्जुनराम को लेकर अपने-अपने आयठाण हैं तो श्रीडूंगरगढ़ में बिखरी पड़ी भाजपा को अभी तो खुद संभलना है। हो सकता है चुनाव तक शायद नहीं संभल पाए। बचे नोखा के विधायक बिहारी बिश्नोई, चूंकि देहात भाजपा की कमान उन्हीं के पास है तो उनकी स्थिति 'मरता क्या नहीं करता’ वाली है। कांग्रेस में दावं पर डूडी और कल्ला दो हैं तो भाजपा में अकेले बिहारी बिश्नोई है।
इस तरह बीकानेर की इस सीट के लिए कोई दावा करना परिणाम आने तक संभव कम ही लगता है।
—दीपचन्द सांखला
18 अप्रेल, 2019

Thursday, April 11, 2019

हेमलीन का बांसुरीवाला और जम्बूदेश का धूर्तमन पर सवार राजा

फिरंगियों के लोक में बांसुरीवाले की एक कथा प्रचलित है। हेमलीन शहर के बाशिन्दे गन्दगी रखने लगे, गन्दगी के चलते शहर में चूहों की भरमार हो गई। बीमारियां बढऩे लगी। त्रस्त बाशिन्दे महापौर के पास पहुंचे। तभी एक उद्बुदा व्यक्ति आया और कहने लगा कि उसकी बांसुरी की धुन में ऐसा आकर्षण है कि जिन्हें चाहे वह सम्मोहित-दिग्भ्रमित कर छुटकारा दिला सकता है। महापौर ने चूहों से छुटकारे का प्रस्ताव रखा, सोने के हजार सिक्कों में अनुबंध हुआ और बांसुरी वाला अपनी बांसुरी की धुन पर सम्मोहित कर सभी चूहों को दूर नदी तक ले गया और डुबो दिया।
काम हो जाने पर महापौर की नीयत बदल जाती है, बांसुरीवाले को वह हजार के स्थान पर सौ सिक्के ही देने की बात करता है। कुपित हो बांसुरीवाले ने जब धुन बदलकर बांसुरी गुंजाई तो हेमलीन शहर के सभी बच्चे उसके पीछे हो लिए। सम्मोहित बच्चों को धुन में खूब सारी चॉकलेट और खिलौनों का प्रलोभन सुनाई देना लगा। बच्चों को ले बांसुरीवाला दूर पहाड़ तक जैसे ही पहुंचा, पहाड़ स्थित गुफा के आगे लगा पत्थर अपने आप हट गया। बांसुरीवाले के साथ सभी बच्चों ने प्रवेश किया, पत्थर ने गुफाद्वार को स्वत: बन्द कर दिया। पीछा करते हुए गुफाद्वार तक पहुंचे हैरान-परेशान हेमलीन के बाशिन्दे महापौर को कोसने लगे। खुद के भी बच्चे चले जाने से वह भी परेशान तो था। महापौर ने बांसुरीवाले की चिरौरी की, अनुबंध अनुसार भुगतान करने का वादा किया, तब ही गुफाद्वार खुला और बच्चों को हासिल कर हेमलीन के बाशिन्दों ने चैन की सांस ली।
अब आप कहेंगे कि इस कथा को यहां लिखने का क्या मतलब। मतलब यह कि बीते छह-सात वर्षों से ठीक हेमलीन शहर जैसी तो नहीं कुछ-कुछ वैसी ही परिस्थितियों से जम्बूदेश भी गुजर रहा है। हेमलीन पहुंचा बांसुरीवादक तो था प्रोफेशनल, वादाखिलाफी हेमलीन के बाशिन्दों के प्रतिनिधि महापौर ने की। यहां भूमिका बदली है। सम्मोहक बांसुरी की धुन वाले का स्थान सम्मोहक बातेरी एक धूर्त ने ले ली तो हेमलीन के बाशिन्दों के प्रतिनिधि के स्थान पर देश के बाशिन्दे हैं। जम्बूदेश के मासूम बाशिन्दों ने धूर्त बातेरी पर भरोसा जतलाया, लेकिन राज मिलने के बाद उस धूर्त बातेरी ने अपना कोई वादा नहीं निभाया।
बांसुरीवाले की कथा के समांतर जम्बूदेश की परिस्थितियों को सिलसिलेवार समझ लें। हेमलीन की गंदगी के बरअक्स हमारे देश में भी भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और अपराध जैसी गन्दगियां लम्बे समय से फैल रहीं थी। जम्बूदेश के बाशिन्दे इस गन्दगी से परेशान जरूर थे लेकिन उकताए नहीं, जो भी शासक आए-गए उन्होंने भी इस गन्दगी में जनता की ही तरह अपने लिए भी अनुकूलता बना ली।
गत पांच वर्षों से जम्बूदेश की सत्ता पर काबिज धूर्त मन के सवार राजा की सनकें भी अजब देखी गई। अच्छा पहनने, अच्छा खाने, घूमने-फिरने और ठाट-बाट की जिन्दगी जीने की इच्छाएं संजोए इस राजा को देश और समाज से कोई लेना-देना नहीं था। वह बीते पचास वर्षों से अनुकूल अवसरों की फिराक में रहा और अवसर मिलते ही लपकने में लगा रहता। पन्द्रह वर्ष पूर्व जैसे ही उसे मालूम चला कि उसका समूह आर्थिक अभावों से जूूझ रहा है, दूसरा कोई आर्थिक जरूरतें पूरी करने वाला रहा नहीं तो अपने उन धन-पशु मित्रों से अपने समूह की आर्थिक जरूरतें पूरी करवाने लगा जिन्हें वह अपनी छोटी चौकीदारी के समय जन-धन में डाका डालने की छूट देता रहा।
सभी तरह की दबी अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने का अवसर पांच-छह वर्ष पूर्व में उसे दीखने लगा। उस सम्मोहक धूर्त ने अपने राष्ट्रीय समूह को मजबूर कर दिया कि उन्हें अपने ठाट-बाट यदि जारी रखने हैं तो अब मेरी दासता स्वीकार करें, ऐसा ही हुआ भी। फिर क्या, धूर्तमन पर सवार होकर वादों की चूसनी से उसने पूरे देश को मोह लिया। वादे जब पूरे करने की मंशा ही ना हो तो करने में क्या जाता है।
इस सबके चलते वह धूर्त बातेरी जम्बूदेश के शासन पर काबिज हो लिया, सहयोग के लिए अपने एक पुराने जोड़ीदार को साथ ले लिया। देश से किए वादों को भूल कर जोड़ीदार के सहयोग से अपनी उन सभी दबी इच्छाओं को पूरा करने में जुट गया, जो कई दशकों से उसके अन्दर कसमसा रही थी। दिन में कई-कई बार नई-नई पोशाकें पहनना, मंहगे ब्यूटीशियन की प्रतिदिन सेवाएं लेना, महंगे डाइटीशियन की सलाह पर दुनिया भर से मंगवाई महंगी चीजें खाना-पीना और देश-विदेश में घूमने-फिरने में ही लग गया। अपने दफ्तर कभी भी न जाना, अपने समूह-सहयोगियों को दबाकर रखना, बीच-बीच में भाषणों से मन की बात के माध्यम से जनता को नित नये लॉलीपोप के प्रलोभन देना। कभी-कभी तो जनता का अंगूठा ही जनता के मुंह में चूसने को देकर उसे चूसते रहने की हिदायत देने लगा।
समय कब किसका साथी हुआ है। पांच वर्ष के लिए हड़पी विलासिता का समय पूरा होने लगा। कुछ भी किया धरा होता तो मासूम जनता फिर भोंदू बन जाती। ऊपर से काले सिक्कों को सफेद करने जैसे तुगलकी फरमान से सफेद सिक्कों को ही दावं पर लगा दिया और अनाड़ीपने से लागू जजिया टैक्स ने अर्थव्यवस्था के कोढ़ में खाज करवादी।
पांच वर्ष के लिए देश को फिर कब्जाना है। सत्तर वर्ष के स्यापे की गूंज मन्द पड़ गई और पूर्व शासक पर रुदन भी काम नहीं आया तो पड़ौसी देश का डर दिखाने लगा, पड़ौसी भी सावचेत इतना कि धौंस में नहीं आ रहा। खुद की खुफिया चूक से कई हमले देश की सेना पर हुए, काउण्टर में सेना हमेशा ही ऐसा करने वालों को बिना ढिंढोरा पीटे सबक सिखाती रही ही है। इस बार धूर्तमनी शासक ने ना केवल पहले ढिंढोरा पीट दिया बल्कि उसकी गूंज के रि-प्ले धूर्त जोड़ीदार अभी तक किए जा रहे हैं। देश की संवैधानिक इकइायों जांच एजेन्सियों का दुरुपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं। कोर्ट को बरगलाया जा रहा है। आचार संहिता की नियति बंद मरतबान के सड़े अचार की सी कर दी है।
पांच वर्ष की विलासिता फिर से हासिल करने के लिए धूर्तमन का घोड़ा फिर दौड़ रहा है। फौजियों की लाशों पर वोट मांगे जाने लगे हैं। ना केवल झूठे वादे फिर किए जाने लगे हैं बल्कि सभी विरोधियों के खिलाफ झूठा प्रचार किया जाने लगा है। देश के बाशिन्दों के विभिन्न समुदायों में एक-दूसरे के प्रति भय बिठाया जा रहा है, परिणाम चाहे कुछ भी हो।
दुविधा यही है कि देश की जनता इस सबके बावजूद भ्रमित होती है तो उसे मासूम कहें या बेवकूफ। इतना तो पक्का है कि अब भी जो इन धूर्तों के मुगालते में आएंगे, उन्हें अपने देश से प्रेम हरगिज नहीं है।
हां, हेमलीन का वह बांसुरीवाला धूर्त नहीं था, वहां की जनता मासूम और अनाड़ी थी और वहां का महापौर जरूरत से ज्यादा सयाना। हमारी व्यथा से बांसुरीवादक की कथा का मेल कोई खास नहीं, फिर भी कुछ समानता तो है। तभी देश के इस बुरे समय में हेमलीन के उस बांसुरीवादक का स्मरण हो आया।
—दीपचन्द सांखला
11 अप्रेल, 2019

Thursday, April 4, 2019

लोकसभा चुनाव और बीकानेर : प्रारंभिक पड़ताल

राजनीति ही नहीं समाज के अन्य क्षेत्रों में भी वंशवाद और जातिवाद का रुदन हास्यास्पद है। भारतीय समाज की सामाजिक संरचना का आधार परिवार और जातिवाद है, बावजूद इसके राजशाही और सामन्तशाही की पैरवी नहीं की जा सकती, क्योंकि आजादी की लड़ाई से हमने राजशाही और सामन्तशाही के विकल्प के तौर पर समाज की नहीं शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था हासिल की है।
मुद्दे पर आने से पूर्व यह स्पष्टीकरण जरूरी इसलिए कि कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवार यहां मौसेरे भाई हैं, दोनों की चर्चा फिलहाल इस आधार पर ही हो रही है। जबकि चर्चा होनी यह चाहिए कि विश्व की 'सबसे बड़ी पार्टी’ भाजपा और भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेसये दोनों ही बीकानेर के अपने प्रत्याशियों को लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं पर दावं शायद इसलिए नहीं लगाते कि उन्हें उन पर भरोसा नहीं है। 2009 में अर्जुनराम मेघवाल को भाजपा ने जब चुनाव उतारा तब वे कार्यकर्ता तो दूर राजनीति से भी उनका कोई लेना-देना नहीं था, उम्मीदवारी तय की गई और भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दिला कर उन्हें कार्यकर्ताओं पर थोप दिया। जबकि बीकानेर लोकसभा क्षेत्र की इस सुरक्षित सीट के लिए तब अनुसूचित जाति के एकाधिक संघनिष्ठ भाजपाई दावेदार थे। ठीक ऐसा ही कांग्रेस ने इस बार किया है। अन्तर इतना ही है कि भारतीय पुलिस सेवा के जिन अधिकारी मदन गोपाल मेघवाल को कांग्रेस ने यहां से उम्मीदवारी दी है, उन्होंने सेवानिवृत्ति गत दिसम्बर में ही खाजूवाला विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवारी की उम्मीद में ली थी। शेष तो अपने क्षेत्र या राजनीति से जितना लेना-देना 2009 से पूर्व अर्जुनराम मेघवाल का रहा उतना ही मदन गोपाल का अभी है। देखना यही है कि रामेश्वर डूडी की जिद पर मिली इस उम्मीदवारी पर कांग्रेस के लिए खरे कितने तो मदन मेघवाल उतरेंगे और कितने रामेश्वर डूडी। वर्तमान चुनावी राजनीति पर बात करें तो यह धारणा डूडी पर अच्छे से लागू होती है कि वे खुद हार सकते हैं, दूसरों को हरा भी सकते हैं लेकिन किसी को जिता भी सकते हैंऐसा लगता नहीं है। आठ विधानसभा क्षेत्रों में फैली इस सीट का चुनाव बजाय अभियान केमाहौल पर ज्यादा निर्भर करता है। क्योंकि अभियान की सघनता विधानसभा वार नेताओं और कार्यकर्ताओं पर तो निर्भर करती ही है बल्कि अब तो बहुत कुछ आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करने लगा है।
उक्त उल्लेखित परिस्थितियों के मद्देनजर कांग्रेस और भाजपा दोनों के उम्मीदवारों के परिप्रेक्ष्य को सरसरी तौर पर देखें तो अर्जुनराम मेघवाल और मदन गोपाल मेघवाल की स्थितियां लगभग एक-सी हैं। एंटी इंकम्बेंसी के बावजूद अर्जुनराम मेघवाल से पूरे क्षेत्र के मतदाता ना केवल परिचित हैं बल्कि केन्द्र की सत्ता में लगभग चार वर्षों की भागीदारी भी उनको अपरिचय की मुहताज नहीं रहने देती। माहौल की बात करें तो 2014 वाला मोदी-मैजिक चाहे अब नहीं रहा हो-बहुत से भक्त इस भय में कडिय़ों को अभी भी पकड़े हैं कि छोड़ दिया तो गिर पड़ेंगे और गिर पड़े तो अंधभक्ति की सफाई वह फिर क्या देंगे! अलावा इसके भारतीय जनता पार्टी के सभी तरह के मैनेजमेंट अभी सुदृढ़ हैं अत: इस तरह की कमियों से अर्जुनराम को शायद ही जूझना पड़े। रही बात विधानसभा वार नेताओं की सक्रियता की तो लोकसभा चुनाव की नाव की पतवारों को वे निष्क्रिय कर सामान्यत: लहरों के भरोसे छोड़ देते हैं। कम ही नेता उस तरह से सक्रिय होते हैं जिस तरह वे खुद के चुनाव में होते हों।
देवीसिंह भाटी का भाजपा छोडऩा और फिर अर्जुनराम मेघवाल के विरोध में ताल ठोकने से जितना नुकसान होगा लगभग उतने की भरपाई तो कांग्रेस में गोविन्द मेघवाल खेमा मदन गोपाल को हानि पहुंचाकर कर सकता है। यहां यह स्मरण रखना भी जरूरी है कि मोदी मैजिक के पिछले चुनाव में अर्जुन मेघवाल ने पौने तीन लाख वोटों के फासले से जीत दर्ज की थी।
कांग्रेस से आए मदन गोपाल मेघवाल का अकेले बूते से पिछले अन्तर को पाटना आसान नहीं लगता। तब भी नहीं यदि डूडी जी-जान से जुट जाएं! क्षेत्र में खुद डूडी ने अपने लिए खड्डे कम नहीं खोद रखे हैं। दूसरी बात खुद डूडी खड़े हों तो क्षेत्र के लोग साथ हो लेते हैं। डूडी के कहने भर से सभी मदन गोपाल मेघवाल के साथ हो लेंगे, ऐसी पुण्याई डूडी ने कमाई नहीं है। चुनाव परिणामों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्षेत्र के आठ में से दोकोलायत और नोखा में अर्जुनराम को कितना नुकसान होगा। नोखा डूडी का क्षेत्र है, वहीं कोलायत में भाजपा से बागी हुए देवीसिंह भाटी और कांग्रेसी विधायक और वर्तमान सरकार में मंत्री भंवरसिंह भाटीये दोनों प्रतिद्वन्द्वी अर्जुनराम को नुकसान पहुंचाने में अलग-अलग उद्देश्यों से जुटेंगे। शेष छह विधानसभा क्षेत्रों में से खाजूवाला के सन्दर्भ से गोविन्द मेघवाल की बात कर चुके हैं। यह उम्मीदवारी उनकी पुत्री सरिता चौहान के नाम लगभग तय मानी जा रही थी जो उनके राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी डूडी की जिद के चलते मदन गोपाल को हासिल हुई है। इसी तरह श्रीगंगानगर जिले के सुरक्षित अनूपगढ़ क्षेत्र के नेताओं-मतदाताओं का भी बीकानेर लोकसभा चुनावों में रुख तटस्थ सा रहता है, हालांकि सीपीएम के शोपत मेघवाल के चलते इस बार तटस्था शायद ही नजर आए। लूनकरणसर, श्रीडूंगरगढ़ के हारे कांग्रेसी उम्मीदवार डूडी के मदन गोपाल को निहाल करेंगे, नहीं  लगता। शहर की दोनों विधानसभाई सीटों के क्षेत्र की स्थिति कमोबेश यही है, बीकानेर पूर्व में कांग्रेसियों की स्थिति अभी तक लोक प्रचलित उस कहावत जैसी ही है कि 'माई श्मशान किसका कि बेटा आये-गयों के'। वहीं बीकानेर पूर्व से लगातार तीसरी बार विधायक बनी भाजपा की हर तरह से नाकारा सिद्धिकुमारी से उम्मीद खुद अर्जुनराम भी शायद ही कुछ रखते हों। बीकानेर पश्चिम में 1980 से आज तक कल्ला बंधु लोकसभा के कांग्रेसी उम्मीदवार के पक्ष में अपने लिए जुटने की तरह जुटे हों, इसकी पुष्टि प्रमाण और परिणाम दोनों ही नहीं करते।
जैसाकि अनूपगढ़ के हवाले से ऊपर जिक्र किया है कि बीकानेर लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस के लिए एक पेच माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार शोपत मेघवाल का भी है। क्षेत्र के आठवें विधानसभा क्षेत्र अनूपगढ़ में खुद सीपीआइ(एम) की अपनी उपस्थिति ठीक-ठाक है और शोपत उसी इलाके रायसिंहनगर से हैं। वहीं श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र से वर्तमान विधायक सीपीआई (एम) के गिरधारी महिया की पैठ भी अपने क्षेत्र में कम नहीं है। कैडर बेस सीपीआई (एम) में अपने उम्मीदवार के लिए दूसरी पार्टियों की तरह दिखावटीपने जैसी बात नहीं। इस तरह कांग्रेसी उम्मीदवार को जो अल्पसंख्यक मतों का लाभ होना है उसे सीपीआई (एम) के शोपत काफी हद तक बेअसर कर देंगे। क्योंकि तार्किक-सोच, धर्मनिरपेक्ष, ट्रेड यूनियन और किसान आन्दोलनों से जुड़े जो वोट कांग्रेस को मिलते, उसमें से कुछ तो शोपत मेघवाल ले ही जाएंगे। इस तरह की टूटन तब ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब जीत-हार थोड़े अन्तर की हो।
ऐसे में बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के लिए कैसा भी अनुमान अभी दूर की कौड़ी माना जायेगा। देखते हैं अर्जुनराम मेघवाल के मुकाबले मदन गोपाल मेघवाल मानव और आर्थिक दोनों तरह के संसाधन कितने झोंक पाते हैं और ये भी कि डूडी यहां की जीत को अपनी नाक का सवाल बनाते हैं कि नहीं।
—दीपचन्द सांखला
4 अप्रेल, 2019