Wednesday, June 24, 2020

आर्थिक, महामारी और सामरिक : तीन मोर्चों पर जूझता सांम्प्रदायिक भारत

आजादी बाद भारत को पहली बार तीन मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है, ऐसे तीन मोर्चों परजिन्हें स्वयं हमने लगभग आमंत्रित किया है। आर्थिक तौर पर लगातार पिछडऩे के कारणों पर जिक्र कई बार किया जा चुका है, आर्थिक मोर्चे पर हम वर्तमान जितने कमजोर नहीं होते तो हम बाकी दो मोर्चों को संभालने में सक्षम होते। आर्थिक विशेषज्ञों की असहमति के बावजूद केन्द्र की सरकार ने नवम्बर 2016 में नोटबंदी लागू कर दी, जो इतनी बड़ी आपदा साबित हुई कि जिससे हम आज तक उभर नहीं पाए हैं। आजीविका के मामले में विविधता वाला भारत देश आधुनिक अर्थशास्त्र  में सूक्ष्म बचत कही जाने वाली अपनी घेरलु बचतों के चलते हमारी अर्थव्यवस्था कभी चरमराई नहीं। 2008 में तब भी नहीं, जब पूरी दुनियां आर्थिक मन्दी का जबरदस्त सामना कर रही थी। नोटबन्दी ने ऐसी घरेलू बचतों को ना केवल समूल नष्ट कर दिया बल्कि अर्थशास्त्रियों की मानें तो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए प्राणवायु माने जाने वाले अवैध धन को वैध और उसे फिर से अवैध धन में बदले जाने वाली इस गैर जरूरी नोटबंदी ने जैसी-तैसी भी हमारी अर्थव्यवस्था हिला कर रख दिया। मोदी-शाह की सरकार यहीं नहीं रुकी, सप्रंग सरकार के समय भाजपा जिस जीएसटी प्रणाली का पुरजोर विरोध करती रही, उसी जीएसटी प्रणाली को हड़बड़ी में नोटबंदी-आपदा के 6 माह बाद ही लागू कर दिया। ऐसे में हुआ यह कि नोटबन्दी से उबरने की कोशिश में लगी देश की अर्थव्यवस्था को पटकनी फिर से लग गयी।
तीन वर्षों से जूझ रही हमारी अर्थव्यवस्था को हाल ही में बड़ा झटका तब लगा जब कोरोना वायरस के संक्रमण से विश्वव्यापी हुई महामारी कोविड-19 से बचाव के नाम पर 24 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री मोदी ने बिना कोई योजना बनाये मात्र साढ़े तीन घंटे के नोटिस पर देशव्यापी लॉकडाउन घोषित कर दिया। इतने विशाल देश और देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह झटका वैसा ही था जैसे रेलगाडिय़ों के पुराने ब्रेक सिस्टम के समय अचानक ब्रेक अचानक लगाये जाने पर ना केवल इंजन बल्कि डिब्बों और अन्दर बैठे यात्रियों को लगता था। ऐसे ब्रेक लगाने पर जिस तरह डिब्बे इंजन पर, डिब्बे डिब्बों पर, डिब्बे जमीन परऐसी दुर्घटना में सवारियों पर क्या गुजरती है उसकी कल्पना मात्र ही सिहरा देती है। आर्थिक मोर्चे पर पहले से ही लगातार जूझ रहे देश के लिये 24 मार्च 2020 की रात्रि 12 बजे से सनक में लगाए लॉकडाउन ने ना केवल देश की सभी व्यवस्थाओं को बल्कि जनजीवन को भी ना संभलने वाली स्थितियों में पहुंचा दिया।
भारत की अच्छी-भली मंत्रिमण्डलीय शासन प्रणाली को अपने तक सीमित कर चुके मोदी-शाह आसन्न दिख रही महामारी के बावजूद 25 फरवरी, 2020 में अहमदाबाद में आयोज्य 'नमस्ते ट्रंप' में लगे रहे। इस कार्यक्रम को डॉनल्ड ट्रंप की चापलूसी का आयोजन इसलिए कह सकते हैं क्योंकि यह रैली इस वर्ष नवम्बर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ट्रंप को समर्थन देने के लिए थी। इस आयोजन से फ्री हुए तो मोदी और शाह मध्यप्रदेश की कांग्रेसनीत राज्य सरकार को गिराने में लग गये। इस दौरान के सवा दो महीनों में भारत सरकार के ही आंकड़ों से 15 लाख लोग विदेशों से भारत आये और देश के लगभग हर क्षेत्र तक पहुंच गये थे। यह वह समय था जब कोरोना वायरस ने ना केवल चीन बल्कि पूरे यूरोप, दक्षिण-पूर्वी एशिया और अमेरिकी महाद्वीप को अपने शिंकजे में ले लिया था। लाखों की संख्या में विदेशों से आये इन लोगों में कितने संक्रमित होकर आये, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है, जिन्हें जांचने और अलग करने की कोई व्यवस्था हमारे हवाई अड्डों पर नहीं थी। यहां ताइवान का उदाहरण देना जरूरी है। चीन के पड़ौसी इस देश ने 1 फरवरी को अपनी समुद्री सीमाएं बन्द कर दी थी तो 14 फरवरी को आसमानी। आज वह देश कोरोना महामारी से पूरी तरह सुरक्षित है। 
इस संदर्भ में यहां ये बताना जरूरी है कि जिस तरह लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से खोला जा रहा है, उसी तरह से ही लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से लागू करने की जरूरत थी। यदि ऐसा होता तो ना व्यापार-उद्योग को बड़ा झटका लगता, ना मजदूर-किसान इतना परेशान होते, ना जर्जर हो चुकी देश की अर्थव्यवस्था इस तरह और चरमराती।
इस दौरान देश को सांम्प्रदायिक तौर पर बांटने में लगे सांम्प्रदायिक समूहों की कारस्तानियों का जिक्र यहां जरूरी है। वैसे तो ये लोग बीते 90 वर्षों से सक्रिय थे, लेकिन 2014 के बाद इन्हें राज का समर्थन भी मिल गया। लोगों को भ्रमित कर 2014 में हड़पे इस राज को स्थाई बनाना उनके लिए जरूरी था। क्योंकि भ्रम को तो टूटना होता है, वह टूटेगा भी, क्योंकि मोदी और शाह 2014 के चुनाव में किये किसी एक भी वादे को पूरा नहीं कर पाये हैं, ना शासन को ढंग से चला पा रहे हैं। सत्ता में बैठे लोग जिस समूह से आते हैं, उनके लिए सांप्रदायिक धु्रवीकरण सर्वाधिक अनुकूल है, जिसके लिए सिवाय झूठ फैलाने केकुछ नहीं करना होता। बीते छह वर्षों में आईटी सेल/सोशल मीडिया में जमकर फैलाये झूठ के परिणाम भी मिल रहे हैं। बहुसंख्यक हिन्दू समाज के मन में स्थानीय मुसलमानों ओर पाकिस्तान के प्रति झूठा भय बिठा कर अच्छे से दोहन किया जा रहा है। हमारा इतिहास गवाह है, जब-जब हम आपस में लड़े हैं, तब-तब विदेशी ताकतों को हमारी ओर पांव पसारने की अनुकूलता मिल जाती है। 
मोदी-शाह शासन की तीसरी बड़ी असफलता कूटनीतिक क्षेत्र की है। आजादी बाद ऐसा पहली बार है जब अपने किसी भी पड़ोसी देश के साथ भारत के संबंध सौहार्द्रपूर्ण नहीं हैं। पाकिस्तान के साथ तो कभी रहे ही नहीं लेकिन अब तो नेपाल भी हमें आंख दिखाने लगा है। डोकलाम को लेकर भूटान का भरोसा हम पर कम हुआ है। आर्थिक ताकत के रूप में हम से आगे निकल रहा बांग्लादेश सीएए को लेकर खुश नहीं है। हम पर निर्भर रहने वाला मालद्वीप जैसा देश चीन की गोद में जा बैठा है। श्रीलंका और म्यांमार भी चीन की राह देखने लगे हैं।
पड़ोस का सबसे ताकतवर देश चीन भारत पर दबदबा बनाने में अब तक असफल रहा है। लेकिन हमारी विदेश नीति में हाल ही में किए गए बदलावों के चलते हम कमजोर साबित हो रहे हैं। चीन का गलवान घाटी पर कब्जा इसका प्रमाण है। चीन की ताजी उत्तेजना की एक बड़ी वजह भारत का अमेरिका की गोद में जा बैठना है। शीतयुद्ध काल और उसके बाद के समय में भी कांग्रेस और अटलबिहारी वाजपेयी सहित अन्यों दलों की सरकारों के समय भी भारत ने विश्व की महाशक्तियों के साथ तटस्थ रहकर अपनी सम्प्रभुता का मान बनाये रखा। नरेन्द्र मोदी को भारत की यह नीति संभवत: रास नहीं आई और स्पष्ट तौर पर हम अमेरिका पर आश्रित हो लिये, चीन को यही बात अखर गई लगती है अन्यथा जिस चीन के व्यापारिक हित हमारे से जुड़े हैं वह गलवान घाटी पर अतिक्रमण जैसी नाराज करने वाली कार्रवाई नहीं करता। भारत ना केवल पहली बार ऐसा दबाव महसूस कर रहा हैं बल्कि सामरिक तौर पर जवाब देने का साहस भी हम नहीं जुटा पा रहे हैं। दबाव की यही स्थिति बनी रही तो चीन पूरे लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर नीयत खराब कर हमें ओर बड़ा झटका दे सकता है।
इस तरह विश्व स्तर पर भारत ने ना अपनी केवल कमजोर स्थिति का प्रर्दशन किया, बल्कि अर्थव्यवस्था की लगातार पतली होती हालत में कोविड-19 जैसी महामारी का मुकाबला करने की इंच्छा शक्ति भी हम दिखा नहीं पा रहे हैं। 
दीपचन्द सांखला
25 जून, 2020