Thursday, September 26, 2019

बीकानेर के कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या : कल्लाजी! गुमराह तो मत कीजिए

'केन्द्र सरकार का पेच फंसा हुआ है। केन्द्र से मंजूरी मिल जाए तो दो साल में बायपास बनवा दूं। रेल बायपास समय की मांग है। डबल लाइन के लिए उसकी जरूरत है। इसी पर शहर का विकास टिका हुआ है। हमारी सरकार ने पूर्व में एक करोड़ रुपये जमा भी करवा दिये थे, लेकिन बाद में बीजेपी ने सत्ता में आते ही ऐसी शर्तें रख दी, जिस पर रेलवे राजी नहीं हुआ! '
—डॉ. बुलाकीदास कल्ला
बीकानेर पश्चिम विधायक एवं मंत्री, राजस्थान सरकार
(21 सितम्बर, 2019 दैनिक भास्कर में प्रकाशित बयान)
रियासत काल में बीकानेर के लम्बे समय तक शासक रहे गंगासिंह के हवाले से बहुत-सी किंवदंतियां प्रचलित हैं। इसमें एक यह भी है कि वे चाहते तो रेलवे लाइन को वर्तमान छावनी एरिया से होते सीधे लालगढ़ तक ले जा सकते थे। रेलवे लाइन को घुमाते हुए कोटगेट के आगे से वे इसलिए लाये ताकि शहर के लोग जब चाहें तब कोटगेट आकर छुक-छुक गाड़ी को देख सकें। इसे तार्किक पुट देने वाले यह कहने से भी नहीं चूकते कि रेलवे लाइन को जूनागढ़ से दूर कोटगेट होते हुए इसलिए ले जाया गया ताकि इंजन की सीटी से जूनागढ़ के बाशिन्दों को कोई खलल ना पड़े। यदि सीधे छावनी क्षेत्र होते हुए ले आते तो तब प्रस्तावित लालगढ़ पैलेस के एकदम पास से रेल गाडिय़ां गुजरती, ऐसा भी गंगासिंह चाहते नहीं थे।
खैर! जितने मुंह उतनी बातें, फिलहाल बीच शहर से दिन में कई-कई बार गुजरने वाली रेलगाडिय़ों से शहर का यातायात दिनभर बाधित होता है। इस परेशानी का अहसास शहरियों को पिछली सदी के नवें दशक में ही होना शुरू हो गया था। तभी आखिरी दशक में एडवोकेट रामकृष्ण दास गुप्ता के नेतृत्व में रेलगाडिय़ों के शहर के बीच से गुजारने के विरोध में लम्बा आन्दोलन चला। सरकार के कान खड़े हुएकेवल इसलिए कि गेज परिवर्तन का काम निर्बाध सम्पन्न हो पाये, क्योंकि आंदोलनकारियों ने धमकी दे रखी थी कि बीकानेर और लालगढ़ जंक्शनों के बीच की मीटरगेज लाइन को ब्रॉडगेज में परिवर्तित करने का कार्य वे नहीं होने देंगे। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत के साथ केन्द्रीय रेलमंत्री सीके जाफर शरीफ बीकानेर आए और बड़ी चतुराई से आंदोलनकारियों के हाथ में बजाने को बायपास का झुनझुना पकड़वाया और गेज परिवर्तन कार्य निर्बाध करवा लिया। 
रेलवे लाइनों के इर्द-गिर्द की 75 फीट तक की जमीनों की मिल्कीयत रेलवे की है। ऐसा बीकानेर ही नहीं पूरे देश में है, तभी रेलवे निर्बाध सेवाएं दे पाता है, अन्यथा आज लगभग सभी शहरों के बीच से गुजरती रेल लाइनों पर रेलवे बजाय गाडिय़ां चलाने के बायपास बनवाने में ही लगा रहता। अपनी मिल्कीयत की जमीन पर रेलगाडिय़ां चलाने वाला रेलवे मंत्रालय शहरी यातायात की समस्या के समाधान का जिम्मा अपना नहीं मानता। यह राज्य सरकार का मसला है और इसके समाधान के लिए अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और एलिवेटेड रोड यदि राज्य सरकारें बनवाती हैं तो रेलवे लाइन के ऊपर या नीचे से सड़कें गुजारने को रेलवे अपनी शर्तों पर स्वीकृति दे देता है। अपवाद स्वरूप रेलवे अण्डरब्रिज निर्माण कार्य खुद अपने खर्चे पर भी करता है, लेकिन वहां जहां रेलफाटकों पर द्वारपालों के स्थाई खर्चे से उसे बचना हो।
यह तो हुई आधारभूत बात, हमारे बीकानेर के संदर्भ में समझें तो इसका इतना ही महत्त्व है कि शहरी यातायात समस्या के समाधान का जिम्मा रेलवे का नहीं है। बाकी तो जिन्हें अपने और अपनों की ही राजनीति करनी है, वे करते रहें।
डॉ. बुलाकीदास कल्ला ने विरोधी सरकारों पर भूंड का ठीकरा फोड़ते यह नहीं बताया कि वर्ष 2004 से 2014 तक केन्द्र में और वर्ष 2008 से 2013 तक राजस्थान में इनकी कांग्रेस की सरकारें थीं। लगभग उन दस वर्षों के दौरान इनकी सरकारों ने या खुद इन्होंने बीकानेर शहर की इस सबसे बड़ी समस्या के समाधान के लिए किया क्या?
उपरोक्त उल्लेखित बयान में डॉ. कल्ला भाजपा की राज्य सरकार की जिन शर्तों का बहाना बना रहे हैं, उस एमओयू का प्रारूप एक करोड़ रुपये रेलवे को देते समय कांग्रेस की सरकार ने तैयार करके रेलवे को क्यों नहीं भिजवाया? दिसम्बर, 1998 में डॉ. कल्ला सूबे की सरकार में जब फिर से कैबिनेट मंत्री बने तब इस समस्या पर शहर का उद्वेलन परवान पर था। डॉ. कल्ला पांच वर्ष ना केवल शहर की नुमाइंदगी करते रहे बल्कि तब सूबे के शासन में हिस्सेदार भी थे। डॉ. कल्ला चाहते तो एमओयू का प्रारूप अपने राज में भिजवा देते।
2003 के अन्त में भाजपा की वसुंधरा सरकार आ गई। भाजपा की राज्य सरकार ने एक वर्ष में एमओयू के इस प्रारूप को रेलवे को भिजवा दिया। नवम्बर 2004 को भिजवाये एमओयू के प्रारूप को अपनी आपत्तियों के साथ जनवरी 2005 में ना केवल रेलवे बोर्ड को भिजवा दिया बल्कि नार्थ-वेस्टर्न रेलवे के जयपुर स्थित जोनल ऑफिस ने अपनी असहमतियों के साथ इसे 'पिंक बुकÓ से हटाने की अनुशंसा भी कर दी।
उस समय भी डॉ. कल्ला विधानसभा में ना केवल शहर की नुमाइंदगी कर रहे थे बल्कि उनकी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व में केन्द्र में गठबंधन सरकार थी जो वर्ष 2014 तक चली। इस बीच सन् 2008 में सूबे में भी कांग्रेस सत्ता में लौट आयी। डॉ. कल्ला बतायेंगे कि उन्होंने इस दौरान इस समस्या के समाधान के लिए क्या किया? 1980 से राजनीति कर रहे और कई बार मंत्री रह चुके डॉ. कल्ला क्या यह कहना चाह रहे हैं कि कुछ करवाने के लिए मंत्री होना जरूरी होता है।
बायपास समाधान को 'पिंक बुक' से हटाने के बाद वसुंधरा सरकार ने इस समस्या के वैकल्पिक समाधान पर गंभीरता से सक्रियता दिखाई। ऐसा इसलिए कह सकते हैं कि रेलवे द्वारा बायपास से इनकार करने के तत्काल बाद राज्य सरकार ने समाधान सुझाने का यह काम आरयूआइडीपी को सौंपा। आरयूआईडीपी ने इस काम को अरबन प्लानिंग के विशेषज्ञ और केन्द्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्रालय में सलाहकार रहे सरदार अजितसिंह को सौंपा। जिन्होंने अशोक खन्ना और हेमन्त नारंग जैसे स्थानीय वरिष्ठ अभियन्ताओं के साथ शहर में रहकर सभी संभव विकल्पों पर विचार किया और वर्ष 2005-06 में सर्वाधिक व्यावहारिक मानकर एलिवेटेड रोड की योजना राज्य सरकार को सुझायी। इस योजना पर राजस्थान पत्रिका ने तब जनता की राय भी जानी। 98 प्रतिशत लोगों ने रेलवे फाटकों के चलते कोटगेट क्षेत्र की इस यातायात समस्या के एलिवेटेड रोड से समाधान के पक्ष में राय दी। उसके बाद निहित स्वार्थी तत्त्वों के विरोध के चलते यह योजना खटाई में ऐसी पड़ी कि वह आज भी बदतर स्थितियों में है। इसके बाद की पूरी कथा इसी शृंखला में एकाधिक बार बांच चुका हूं। जरूरत हुई तो आज के दोहराव की तरह फिर बांचूंगा। लेकिन डॉ. कल्ला समझना चाहें या नहींकोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या का व्यावहारिक समाधान 2005-06 की उस एलिवेटेड योजना में ही है। डॉ. कल्ला को बायपास का अंगूठा चुसवाना अब छोड़ देना चाहिए। यह समझाने की हिमाकत उन्हें करना नहीं चाहता कि अधिक चूसने-चुसवाने पर अंगूठे से खून भी रिसने लगता है।
—दीपचन्द सांखला
26 सितम्बर, 2019

Thursday, September 19, 2019

सफेद हाथी सूरसागर और हमारे जनप्रतिनिधि

बीकानेर शहर से संबंधित दो सूचनाएं हैं। बीकानेर पूर्व की विधायक सिद्धिकुमारी ने सूरसागर तालाब की दुर्दशा पर पैदल मार्च की रस्म अदायगी की और बीकानेर पश्चिम से विधायक और सूबे की सरकार में नम्बर तीन के मंत्री डॉ. कल्ला ने सूरसागर समस्या पर अपनी सक्रियता दिखाई। डॉ. कल्ला को राज में आए 9 माह हो गये हैं लेकिन तीस वर्ष पूर्व संज्ञान में आयी बीकानेर के कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान पर उनकी कार्य योजना कहां तक पहुंची, उसकी जानकारी अभी तक नहीं दी। बायपास से समाधान का भूत उनका जब तक नहीं उतरेगा, शहरवासियों को तब तक कोटगेट क्षेत्र की उक्त समस्या को भोगते रहना है। सूरसागर में रुचि उनकी उस छवि को जरूर भंग करती है जो इस आम धारणा से बनी कि डॉ. कल्ला अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर की किसी समस्या के समाधान में कोई रुचि नहीं रखते।
इस शहर की बड़ी प्रतिकूलता यह है कि बीते 60 वर्षों से शहर की राजनीति करने वाले और तीन बार विधायक रहे डॉ. गोपाल जोशी जहां निहित स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ पाए तो चालीस वर्षों से यहां की राजनीति करने और शासन में कई बार भागीदारी करने वाले डॉ. बीडी कल्ला ने कभी यह अहसास नहीं करवाया कि उन्हें अपने शहर से खास लगाव है? आमजन के बजाय उन्हें चुनावी चन्दा देने वालों का खयाल ज्यादा रहा है। नाकारा सिद्धिकुमारी के लिए बहुत कुछ कहा जा चुका है। वह जनप्रतिनिधि हैं, इसका दोष उनसे ज्यादा उनके वोटरों का है, जो उन्हें जिता कर भेजते हैं। डॉ. कल्ला और सिद्धिकुमारी का मिलाजुला राजनीतिक व्यक्तित्व उन देवीसिंह भाटी का भी रहा है, जो कल्ला की तरह बीते चालीस वर्षों से शहर और कोलायत की राजनीति में सक्रिय रहे हैं। देवीसिंह भाटी चाहे अब नीमहकीमी में लगे हों, लेकिन उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं अब भी हिलोरें मारती है, आमजन और अपने विधानसभा क्षेत्र के लिए सत्ता में रहते हुए भी उन्होंने कुछ किया हो, ध्यान में नहीं आता।
सूरसागर पर पूर्व में भी कई टिप्पणियां की हैं। सरकारें और प्रशासन वहां जो कर रहा है, वह उसके समाधान नहीं हैं। 2008 से आज तक जनता के धन में से वहां कई सौ करोड़ खर्च किये जा चुके हैं। लीक से हटकर कुछ करना ठस शासन-प्रशासन के लिए हमेशा टेढ़ी खीर रहा है। 2014 में पहली बार जब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इस मुद्दे को समझने का समय दिया तो उन्हें समझ आ गया, यहां से लौटते हुए उन्होंने मरु-उद्यान की घोषणा भी की, लेकिन सूरसागर का उल्लेख उनसे रह गया और सूरसागर में मरु-उद्यान विकसित करने की वह कल्पना प्रशासन की अंधेरी गलियों में खो गई। सूरसागर की दुर्दशा जारी है और जनधन की भी। इन्हीं सब के मद्देनजर वर्तमान के जनप्रतिनिधियों और क्षेत्र से सरकार में नुमाइंदों की जानकारी के लिए सूरसागर और जूनागढ़ क्षेत्र की समस्या पर सुझाये वैकल्पिक समाधान संबंधी दो पुराने आलेखों के सम्पादित अंश साझा कर रहा हूं, हो सकता है इन पर विचार करके अमलीजामा पहनाने की कोशिश पुन: शुरू हो जाए।
सूरसागर और जूनागढ़ क्षेत्र में जलभराव : व्यावहारिक समाधान
सूरसागर को पुराने रूप में लाने की जो कोशिशें पिछले अनेक वर्षों से चल रही हैं, उसे अमलीजामा पहनाना इसलिए संभव नहीं है कि तब इसके उस रूप को प्रकृति सहेजती थीआगोर के माध्यम से आने वाले वर्षा जल से इसे भरा जाता था, आगोर अब रहे नहीं, ऐसे में कभी पांच-पांच ट्यूबवेलों और कभी नहरी पानी से इसे भरने की कवायद की जा रही है। इन कृत्रिम और अव्यावहारिक तरीकों से 15 फीट गहरी इस झील के जलस्तर को 2008 में उसके जीर्णोद्धार के बाद से एक बार भी चार फीट तक नहीं लाया जा सका।  ऐसे में इसे पूरा भरना और यहां पडऩे वाली गर्मी में इसे भरे रखना कितना महंगा सौदा है? यह महंगा केवल धन से ही नहीं बल्कि जिस डार्कजोन को हम जिले में न्योत रहे हैं, उसमें यह विलासिता से कम नहीं है। इस खेचळ को रोककर इसे मरु-उद्यान के रूप में विकसित करवाया जा सकता है, जिसमें मरुक्षेत्र के पेड़ व वनस्पतियां और कुछ सुकून देने वाले प्राकृतिक रूप के फव्वारें हों। इस में थार मरुस्थल के उन जीव-जंतुओं को भी रखा जा सकता है, जिनकी छूट वन विभाग देता हो। इस तरह इसे घूमने-फिरने के एक आदर्श स्थान के रूप में विकसित किया जा सकता है।  (3 जून, 2014)
जलभराव रोकने के उपाय
जेल रोड, सिक्कों की मस्जिद से आने वाले बरसाती पानी के लिए सादुल स्कूल के सामने मल्होत्रा बुक डिपो के पीछे बने चेम्बर से कोटगेट सब्जीमंडी, लाभूजी कटले के नीचे बने रियासती नाले को सट्टा बाजार, मटका गली से रेलवे क्षेत्र के खुले नाले से जोड़ा हुआ था। शहर से आने वाले गंदे और बरसाती पानी की अधिकांश निकासी इसी नाले से होती रही थी। आजादी बाद ढंग से सफाई नहीं रहने के चलते बीते तीस-चालीस वर्षों से यह नाला लाभूजी कटले के नीचे डट गया, सुना यह भी कि लाभूजी कटले के कुछ दुकानदार अपनी दुकानों के नीचे वाले नाले के हिस्से के इर्द-गिर्द दीवारें चिनवा कर उसे अण्डरग्राउण्ड गोदाम के तौर पर काम लेने लगे हैं। 
राज चाहे तो क्या यह नहीं हो सकता
आरयूआईडीपी ने इस भूमिगत नाले को साफ करवाने की 2003 में एक कोशिश की थी, तब पता चला कि नाले के बीच तो दीवारे बन गई हैं। राज की मंशा साथ नहीं थी सो मल्होत्रा बुक डिपो के पीछे के चेम्बर से डाइवर्जन देकर कोटगेट होते हुए सट्टा बाजार लाकर उसे पुराने नाले में मिला दिया। सट्टा बाजार के जाली लगे चेम्बर इसके गवाह हैं। लेकिन 'चेपेÓ के ऐसे उपाय काम कितनाÓक करते, लाभूजी के कटले के नीचे का नाला पर्याप्त लम्बाई-चौड़ाई का है। कटला बनने से पहले के इस पक्के नाले का उल्लेख ना केवल रियासती पट्टे में होगा बल्कि कटले की इजाजत तामीर में भी इस नाले का उल्लेख सशर्त रहा होगा।
यह उपाय तो हुआ उस बरसाती पानी का जो बड़ा बाजार क्षेत्र से जेल रोड और सिक्कों के मुहल्ले से होता हुआ कोटगेट होकर महात्मा गांधी मार्ग से गुजरता है, लेकिन मोहता चौक, तेलीवाड़ा और दाउजी रोड के इर्द-गिर्द का जो बरसाती पानी अभी कोटगेट से महात्मा गांधी रोड होकर पुरानी जेल रोड से आने वाले पानी के साथ मिलकर गिन्नानी, सूरसागर के क्षेत्रों में त्राहिमाम मचाता है, उसका एक हद उपाय यह भी हो सकता है।
कोटगेट रेलवे फाटक पर कोटगेट की तरफ और सांखला फाटक पर नागरी भण्डार की तरफ सड़क पर 2 फीट चौड़ा और चार फीट गहरा नाला बनाकर काऊकेचर जैसी गर्डर चैनल की मजबूत जाली से ढक दिया जाए और शेष रहे खुले नाले को रेलवे की दीवार के साथ होते-होते रेलवे स्टेशन के पहले के खुले नाले में मिला दिया जाए तो इन दोनों तरफ से सूरसागर की ओर जाने वाले पानी को काफी हद तक यहीं से डाइवर्ट किया जा सकता है।
रेलवे, नगर विकास न्यास और नगर निगम में सामंजस्य बिठाकर कार्य को करवाया जाए तो यह काम इतना बड़ा नहीं है कि हो ना सके।
अगर यह हो जाता है तो शहर के भीतरी हिस्से का वह बरसाती पानीजो गिन्नानी-सूरसागर क्षेत्र में पहुंच कर त्राहिमाम मचाता है और फिर आनन-फानन में प्रशासन उस पानी को पुराने नाले के माध्यम से माजीसा का बास, राजविलास कॉलोनी, पीबीएम होते हुए रानी बाजारओवरब्रिज पहुंचाता है, उसे उक्त उपाय से कोटगेट से ही डाइवर्ट कर रेलवे क्षेत्र के नाले से सीधे रानी बाजार रेलवे ओवरब्रिज होते हुए उसके गंतव्य वल्लभ गार्डन तक पहुंचाया जा सकता है। (19 जुलाई, 2018)
—दीपचन्द सांखला
19 सितम्बर, 2019

Thursday, September 5, 2019

घृणा में तबदील होतीं भ्रांतियां

सात-आठ वर्ष पूर्व की बात है, विज्ञान अनुशासन से आए महन्तजी ने बातचीत में बताया कि हिन्दू संस्कृति पर खतरा मंडरा रहा है। जब पूछा कि कैसे? तो उन्होंने उत्तर-पूर्व खासकर असम का तत्काल जिक्र करते हुए बताया कि वहां अब तक तीन करोड़ बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठ कर चुके हैं जो ना केवल वहां हमारी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं बल्कि आर्थिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। जब पूछा कि तीन करोड़ के इस आंकड़े की प्रामाणिकता क्या है, उन्होंने बताया कि यह सरकार इस तथ्य को छिपाये रखना चाहती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस असम की कुल आबादी आज भी तीन करोड़ के लगभग है, वहां घुसपैठिये तीन करोड़ ना केवल बताये जाते रहे हैं बल्कि इसे ऐसे स्थापित कर दिया गया कि महन्तजी जैसे समाज को सही मार्ग दिखाने वाले तक भ्रमित हो गये। मुझे उनकी इस तरह की बातचीत से आश्चर्य हुआ और चिंता भी। क्योंकि ये महन्तजी जब स्थानीय मठ पर अधिष्ठ होकर यहीं प्रवास करने लगे, तब के उनके शुरुआती प्रवचन उदार, प्रामाणिक व आध्यात्मिक लगा करते थे। उनमें 'श्रद्धा' की एक वजह भी यही थी।
एक दूसरा उदाहरण और। एक जैन मुनि का प्रसंग भी आज मैं साझा करना चाहता हूं। मेरे पत्नीपक्ष की जैन सम्प्रदाय में आस्था है। इसी वजह से शादी बाद एक सम्प्रदायविशेष के जैन मुनियों के पास अक्सर जाना होता। खासकर एक मुनिविशेष के पास, जिनमें पत्नीपक्ष की विशेष श्रद्धा थी। उनसे लम्बा विमर्श होताशायद इसलिए भी कि वे लगभग हमउम्र हैं। 2002 में गुजरात के मुस्लिम-संहार के समय या तुरंत बाद का उनका चतुर्मास अहमदाबाद ही था, बात तभी की है। उनके सत्संग के लिए हम सपरिवार पहुंचे, गुजरात दंगों पर उनसे बात होना इसलिए भी लाजमी था कि हमारे बीच धार्मिक-आध्यात्मिक विमर्श के अलावा सामाजिक-राजनीतिक बातचीत भी होती थी। उन जैन मुनि ने गुजरात के उस कत्लेआम को न्यायिक ठहराते हुए दबी जबान में सुनी-सुनाई सुना दी कि गोधरा काण्ड के बाद मुस्लिम समुदाय ने हिन्दुओं को बोटी-बोटी कर काटना शुरू कर दिया था इसलिए हिन्दू उग्र हुए और कत्लेआम मचाया। भ्रामक धारणाओं के आधार पर अहिंसा के संवाहक की तथ्यहीन सुनी-सुनाई पर हिंसा की पैरवी करते देख ना केवल आश्चर्य बल्कि चिन्ता हुई, और संभवत एक वजह यह भी रही कि उसके बाद उनके पास जाने की आवृत्ति कम हो गई।
यह तो दो बानगियां हैंलेकिन जिन भी ऋषि-मुनियों, साधु-सन्तों के पास जाएंगे उनकी बातचीत और विमर्श के स्रोत में अधिकांशत: ऐसी ही सुनी-सुनाई, तथ्यहीन और अमानवीय सीखें, प्रसंग और बातें सुनने को मिलती हैं। कसौटी पर कसी प्रामाणिक सीख के लिए समाज जिनके पास जाता है, वे ही अगर ऐसा तथ्यहीन व अधकचरा ज्ञान उसी समाज को वापस पेल देते हैं जहां से वह उपजता है तो ऐसे समाज का भटकाव समाप्त नहीं होगा।
यह दोनों प्रसंग क्रमश: स्मरण तब हो आये जब केन्द्र की शाह-मोदी सरकार ने असम में भारत के राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (हृक्रष्ट) के आंकड़े आखिर जाहिर कर दिए। इससे जाहिर हुआ कि असम में रहने वाले भारत के राष्ट्रीय नागरिकों की इस सूची से बाहर या भारत में तथाकथित अवैध रूप से प्रवास करने वाले 19 लाख लोग हैं, इन 19 लाख में 12 लाख हिन्दू हैं।
कश्मीर के अनुच्छेद 370 और कश्मीरी पंडितों के पलायन से संबंधित भ्रामक धारणाएं फैलाने वाले संघनिष्ठ कई दशकों से असम के बारे में भी यह भ्रम फैलाते रहे हैं कि वहां अब तक तीन करोड़ बांग्लादेशी और उनकी आड़ में पाकिस्तानी मुसलमान मकसद विशेष से घुसपैठ कर चुके हैं, जो लगातार जारी है। संघनिष्ठ इनके अलावा भी झूठी और अनर्गल अनेक धारणाएं फैलाते रहे हैं, वर्तमान में तो वे सारी हदें पार कर चुके हैं।
असम में घुसपैठ के उन्नीस लाख के इस सरकारी आंकड़े पर भी कम विवाद नहीं है। इनमें से अधिकांश का जैसे-तैसे भी प्रमाणों के साथ यह दावा है कि वे बिहारी, झारखण्डी और उत्तरप्रदेशीय हैं जो आजीविका के लिए कई पीढ़ी पूर्व यहां आ बसे हैं। आजादी के समय देश के हुए बंटवारे में भारत और पाकिस्तान दो देश बने, पाकिस्तान दो हिस्सों में थापूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। 1965 के भारत-पाक के युद्ध से पहले तक इन देशों के बीच नागरिकों का आवागमन निर्बाध था। अस्थाई आवागमन के साथ धार्मिक-सामाजिक कारणों के अलावा आजीविका और रोजगार की तलाश भी उस आवागमन का बड़ा कारण रहा है। यहां यह जानकारी भी होना जरूरी है कि नागरिकों के बीच इस तरह का आवागमन 150 वर्षों के इस तथाकथित आधुनिक युग से पूर्व दुनिया भर में बिना पासपोर्ट व वीजा के निर्बाध होता रहा है। असम में भारत के राष्ट्रीय नागरिकों की सूची पर विवाद की एक बानगी यह भी है कि आजादी पूर्व दिल्ली आ बसे असमी मूल के भारत के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के असम में रहने वाले उनके वारिस इस सूची से बाहर हैं।
सत्ता की हवस इन राजनैतिक लालचियों से जो भी कुकर्म करवाती है उससे प्रत्येक जागरूक नागरिक तो वाकिफ है, लेकिन तथ्यहीन धारणाओं और झूठ का बोलबाला अब इतना हावी हो लिया है कि सत्य-चेतना तक सहमने लगी है।
मीडिया की भांति आज के साधु-संत और ऋषि-मुनि भी धर्मच्युत होते लगने लगे हैं। समाज को सत्य-तथ्य आधारित रास्ता दिखाने की बजाय वे भ्रामक धारणाओं एवं कुत्सित सामाजिक इच्छाओं के पोषण के लिए ना केवल अपने पाठकों-अनुयाइयों के सुर में सुर मिलाने लगे हैं बल्कि ठकुरसुहाती करने में भी संकोच नहीं करते। जो धर्म सनातन है उसका तो कुछ नहीं बिगडऩाजो ऐसा भ्रम फैलाते हैं वे स्वयं या तो भ्रमित हैं या वे अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं।
साधु-सन्तों और ऋषि-मुनियों से अंत में एक प्रश्न? क्या वे अपने लिए या अपने आयोजनों के लिए अवैध रूप से कमाये धन का उपयोग-सहयोग लेने से इनकार करते हैं! यदि नहीं तो उनके कहे का समाज में कोई असर नहीं होना है। धार्मिक आयोजनों की सारी चकाचौंध-अवैध धन के बूते है, ऐसे में धर्म की बात बेमानी है। राजनेता अपने को समाज की प्रतिछाया कह कर छूट ले लेते हैं पर साधु समाज भी यदि इन राजनेताओं का मुखापेक्षी हो ले तो उनके त्याग की सार्थकता क्या बची रहेगी?
भ्रमित धारणायें समाज में समरसता नहीं वरन् घृणा में बढ़ोतरी करती हैं। धर्म का ध्येय घृणा तो हरगिज नहीं है। वर्तमान में भ्रामक धारणाओं पर सावचेती इसलिए भी जरूरी है कि फेसबुक, वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया के चलते  यह रोग त्वरित संचारित होने लगा है। सुन रखा है कि बिना अंकुश का हाथी अपनी सेना को भी कुचल सकता है। इसलिए मनुष्य होने के अपने धर्म को सावचेती से धारण किये रखना ऐसे समय में ज्यादा जरूरी है।
—दीपचन्द सांखला
5 सितम्बर, 2019