Wednesday, November 16, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-28

 दाऊदयाल आचार्य के इस इतिहास लेखन को 436 पृष्ठों की पुस्तक में आने से पूर्व धारावाहिक प्रकाशित करने वाला राष्ट्रदूत का बीकानेर संस्करण, उसके प्रभारी संपादक भवानीशंकर शर्मा, उपसंपादक मधु आचार्य 'आशावादी' का उल्लेख जरूरी है। शौकत उस्मानी से संबंधित सामग्री गिरधारीलाल व्यास के संपादन में प्रकाशित 'शौकत उस्मानी जन्मशती स्मारिका' से ली गयी। इन सब के अलावा जब-तब छिटपुट पढ़ी गई सामग्री का उल्लेख स्मरणाभाव में नहीं कर पा रहा हूं, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं। यहां एक और पत्रकार मित्र का उल्लेख करना जरूरी है। बीकानेर रियासत के गंगानगर क्षेत्र के जाये-जन्मे त्रिभुवन तीन मूर्ति भवन के अभिलेख संग्रहालय में गंगनहर निर्माण संबंधी दस्तावेजों का अध्ययन कर सन्दर्भों के साथ विस्तृत आलेख नहीं लिखते तो पता ही नहीं चलता कि केवल गंगनहर बल्कि जनहित संबंधी सभी विकास कामों के पीछे ब्रिटिश हुकूमत का दबाव ही काम कर रहा था।

इतिहास संबंधी बहुत कुछ जानकारियां मुझे श्रवण परम्परा से भी हासिल हुई। मनीषी डॉ. छगन मोहता के साथ वर्षों तक नियमित बातचीत और उनके पुत्र डॉ. श्रीलाल मोहता के साथ सैकड़ों घंटों की हथाई भी उल्लेखनीय है।

अब यह बताना भी जरूरी है कि इतिहास की इस शृंखला को लिखने की जरूरत क्यों हुई। बीते 50 से ज्यादा वर्षों से पुस्तकों का सामान्य पाठक हूं और अखबारों का विशेष। सभा-सम्मेलनों में जाने और इधर-उधर की सुनने-गुनने में भी पूरी रुचि रही है। अखबारों और सुनी-सुनाई बातों के आधार पर बीकानेर के इतिहास को प्रामाणिक मानता रहा। इन्हीं में जब विरोधाभास मिलते तो लगा असल क्या है यह जानना जरूरी है। बीकानेर-इतिहास हजारों वर्षों का नहीं है। कुल जमा 500 वर्षों के इतिहास की प्रामाणिक और तथ्यपूर्ण सामग्री मिल जाती है, जरूरत थी उसे एक जगह करके छपे रूप में लाने की। 

इतिहास कि सुनी-सुनाई बातों में आजादी के बीकानेरी सेनानियों का उल्लेख लगभग के बराबर मिलता है। जिससे भी सुनों, महाराजा गंगासिंह का गुणगान करते हुए पाया जायेगा। कुछेक ऐसे भी मिलेंगे जो गंगासिंह के मुकाबले शादुलसिंह का महिमा मंडन ज्यादा करते हैं। गंगासिंह को विकास-पुरुष या मरुधरा का भगीरथ बताते नहीं थकते। जबकि जनहित के कामों में सेठ रामगोपाल मोहता का योगदान गंगासिंह के कामों से कम नहीं मान सकते। रामगोपाल मोहता ने जो भी किया अपनी उकत और अपनी कमाई से किया। जबकि गंगासिंह ने प्रजा से प्राप्त राजस्व और ब्रिटिश-क्राउन के दबाव में किया। हो यह रहा है कि अवसर विशेष पर स्थानीय अखबार भी, बजाय असलियत बताने केसुनी-सुनाई बातों को महामंडित करके छापते रहते हैं। गंगासिंह-सादुलसिंह ने अंग्रेज हुकूमत को खुश करने, अपनी गद्दी की असुरक्षा का भय और अपने रुतबे को बनाये रखने के लिए प्रजा मण्डल और प्रजा परिषद् के सदस्यों को कैसी-कैसी यातनाएं दीं उसकी बानगी आप पढ़ ही चुके हैं। 

उपसंहार में मुख्य स्वतंत्रता सेनानियों का व्यक्तित्व विश्लेषण करना भी जरूरी है। बाबू मुक्ताप्रसाद (जिनके नाम पर मुक्ताप्रसाद नगर बसा है) बीकानेर प्रजा मण्डल के संस्थापकों में से थे। बीकानेर में आजादी की अलख जगाने में उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। चूंकि वे वर्तमान उत्तरप्रदेश से आये थे इसलिए परदेशी कहलाते थे। गंगासिंह-सादुलसिंह दोनोंदेशी-परदेशी का उल्लेख अपने हित साधने में करते थे। शुरुआत में आजादी को लेकर चूंकि जन जागरूकता नहीं थी, इसलिए जनता का सहयोग खास नहीं था। जब बाबू मुक्ताप्रसाद को शासन की ओर से परेशान किया गया और अन्तत: देश निकाला दे दिया गया तो मुक्ताप्रसाद को लगा कि मैं जिस जनता के लिए लड़ रहा हूं, उन्हें मेरी परवाह ही नहीं तो मैं इनके लिए क्यों लडं़ू। इसलिए उन्हें जब देश निकाला दिया गया तो उन्होंने यही कह कर बीकानेर छोड़ दिया कि ऐसी जनता के लिए मुझे काम नहीं करना और वे फिर कभी लौट कर नहीं आये।

बाबू मुक्ताप्रसाद के ठीक विपरीत बीकानेर की जनता के लिए संकल्पित थे उनकी बाद की पीढ़ी के बीकानेर प्रजा परिषद् के संस्थापक बाबू रघुवरदयाल गोईल। परदेसी थे लेकिन विचार-व्यवहार से पूरे देशी। शासन ने परदेशी गोईल के देशी साथियों का साथ छुड़वाने के लिए सभी तरह की कोशिशें कीं। लेकिन असफल रहा। दो-दो बार देश निकाला, काल कोठरियां, परिवार की दुर्दशा आदि भी गोईलजी के आजादी के संकल्प को तोड़ नहीं पाए। आजादी बाद गोईल प्रदेश की अंतरिम सरकार में मंत्री जरूर बने, लेकिन बाद में उन्होंने जब पार्षद का चुनाव लड़ अपने मुहल्ले और नगर की सेवा करने की इच्छा में म्युनिसिपल लड़ा तो हार गये। शहर की कृतघ्नता यहीं खत्म नहीं हुई। उनकी स्मृति में यहां पांच वर्ष पूर्व तक कोई स्मारक तक नहीं था। इन्हीं वर्षों में सादुलसिंह सर्किल से सूरसागर तक का मार्ग उनके नाम पर घोषित किया गया, जो अनाम ही है। जबकि बीकानेर रियासत में आजादी के आंदोलन में सर्वाधिक केन्द्रीय अवदान किसी का रहा तो वे बाबू रघुवर दयाल गोईल ही थे।

इनके बाद जिन-जिनका उल्लेख बीकानेर के इतिहास में जरूरी है, वे हैं गंगादास कौशिक और दाऊदयाल आचार्य। दोनों को यातनाएं बराबर सी दी गयीं, दोनों का योगदान बराबर सा है। लेकिन दाऊदयाल आचार्य निर्णय विवेक और सोच-विचार कर लेते थे वहीं गंगादास कौशिक बिना सोचे-समझे, बिना भविष्य की परवाह किये कूद पड़ते और लगे रहते।

दीपचंद सांखला

17 नवम्बर, 2022