Wednesday, September 29, 2021

डॉ. श्रीलाल मोहता : मित्रों के सुख में सुखी

डॉ. श्रीलाल मोहता—हिन्दी जगत के लिए यह नाम कम परिचित हो सकता है, ऐसा उनकी खुद की वजह से है। अन्यथा आपसी बातचीत में, विमर्श में, या पूछने पर, जिस तरह वे बताते, उस सब को लिख दिया होता तो प्रकाशित हो जाता। लिखने में आलसी थे, जी चुराते थे—ऐसा कहना उचित नहीं होगा, असल बात यह कि लेखक होने की उनमें एषणा ही नहीं थी। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है—पीएच. डी. का उनका शोध नरेश मेहता पर है। 'नव-लेखन और नरेश मेहता : व्यक्तित्व और कृतित्व।' उनका यह शोध चलताऊ नहीं है। वह प्रकाशित हो जाए—अन्यथा यह कोशिश कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य बार-बार नहीं करते। 40 से ज्यादा वर्ष पहले की बात है, तब प्रतिष्ठित सूर्य प्रकाशन मन्दिर उसे प्रकाशित करना चाहता था। इसके लिए डॉ. श्रीलाल मोहता को अपने शोध की प्रकाश्य पाण्डुलिपि के तौर पर सम्पादित भर करना था, प्रकाशक सूर्यप्रकाश बिस्सा के बार-बार आग्रह के बावजूद उन्होंने नहीं किया। कौन प्रकाशक शोध-को बिना कुछ लिए छापने को तत्पर होता है?

डॉ. मोहता का विरासती परिचय यह है कि वे मनीषी डॉ. छगन मोहता के पुत्र थे। डॉ. छगन मोहता लिखने के अभ्यासी सम्भवत: इसलिए नहीं थे कि उनकी औपचारिक शिक्षा लगभग न के बराबर थी। लेकिन स्वाध्यायी डॉ. छगन मोहता व्यसन की हद तक थे। यह भी कि वे श्रवण परम्परा के संवाहक भी अच्छे-खासे थे। गूढ़ से गूढ़ विधा को ऐसी सरल भाषा में कह देते कि सामान्यजन भी उसे सहजता से ग्रहण कर लेता। लिखने का अभ्यासी न होना, स्वाध्यायी होना और बात को सरल ढंग से संप्रेषित करना—ये तीनों गुण डॉ. श्रीलाल मोहता ने अपने पिता से ग्रहण किये—ऐसा मान सकते हैं।

बावजूद इस सबके डॉ. मोहता का एक उल्लेखनीय प्रकाशन है—मरु संस्कृति कोश—सन्दर्भ सूची सहित लगभग 525 पृष्ठों में पश्चिमी राजस्थान—जिसे मरु क्षेत्र भी कह सकते हैं—की समग्र संस्कृति का दस्तावेज है यह पुस्तक। मरु परम्परा बीकानेर, नन्दकिशोर आचार्य और कोमल कोठारी ने यह काम डॉ. मोहता से करवा लिया—ऐसा कहना ही उचित होगा। 2005 में प्रकाशित और अब अनुपलब्ध इस ग्रन्थ के पुन: प्रकाशन के बारे में डॉ. मोहता से जब भी बात होती तो कहते इसमें कुछ कमियां रही हुई हैं—कुछ प्रविष्टियां भी बाद में ध्यान आयीं, जिन्हें जुड़वाना है। वाग्देवी प्रकाशन द्वारा पुन: प्रकाशन के प्रस्ताव के बावजूद उन्होंने कोई उत्साह नहीं दिखाया। हां, वाग्देवी पॉकेट बुक्स के लिए तुलसीदास के प्रतिनिधि काव्य संकलन 'वदति तुलसीदास' की संपादित पाण्डुलिपि देकर प्रकाशक को संतुष्ट करने की कोशिश उन्होंने जरूर की।

इसी तरह स्वीडिश कवयित्री मारिया वीने की कुछ कविताओं के उनके द्वारा किये राजस्थानी अनुवाद वर्षों तक केवल इसलिए रखे रहे कि कुछ और कविताओं के अनुवाद कर दें तो 80 पृष्ठों का संग्रह हो जाये। कविताओं के और अनुवाद नहीं हो पाएंगे—ऐसा उन्होंने जब मान लिया तो जितनी भी कविताएं थीं, तरतीब बनाकर पाण्डुलिपि सर्जना, बीकानेर को प्रकाशनार्थ दे दी। प्रकाशक के बार-बार इस आग्रह पर कि संग्रह 80 पृष्ठों का नहीं होगा तो उस पर कहीं किसी तरह का विचार होने की गुंजाइश नहीं है, उन्होंने गौर नहीं किया। आखिर मात्र 56 पृष्ठों का वह संग्रह 'आरसी आगे हाथ पसार्या पुठरापौ' नाम से प्रकाशित हुआ। (सम्पादन के अन्य कई काम डॉ. श्रीलाल मोहता ने किये हैं, उम्मीद है उनका जिक्र अन्य आलेखों में होगा)

यह तो हुई डॉ. मोहता के कृतित्व की बात। उनका व्यक्तित्व भी कम उल्लेखनीय नहीं है। 1980 के दशक के उत्तराद्र्ध में डॉ. छगन मोहता के सान्निध्य लाभ के लिए मैं मोहता भवन प्रतिदिन शाम को जाने लगा, वहीं डॉ. श्रीलाल मोहता से मेरा पहला परिचय हुआ। तब का परिचय इतना ही था कि ये डॉक्टर साब के बेटे हैं और रामपुरिया कॉलेज में हिन्दी पढ़ाते हैं। डॉ. छगन मोहता के देहावसान के बाद डॉ. श्रीलाल मोहता जब गंगा निवास में रहने लगे तब उनकी संगत का भी लाभ लेने लगभग प्रतिदिन सुबह मेरा जाना होता था। पहले डॉ. छगन मोहता और फिर नन्दकिशोर आचार्य, श्रीलाल मोहता और शुभू पटवा के पास घण्टों बैठना और उन्हें सुनना पर्याप्त लगने लगा। शायद इसीलिए स्वाध्यायी के स्थान पर मैं श्रुति परम्परा का अभ्यासी हो गया।

डॉ. मोहता के बारे में यह कहना कि वे अपने मित्रों के निमित्त ही थे, अतिश्योक्ति में नहीं आयेगा। जिससे भी वे स्नेह करते, उनका इच्छित करने को तत्पर रहते। इसमें उनकी तरफ से छूट इतनी थी कि मुझ जैसा उनसे बहुत छोटा भी, उनका उपयोग करने की हद तक चले जाने से नहीं ठिठकता था। हमारी मित्र-मंडली के अन्य इसे स्नेह का आदान-प्रदान या किसी अन्य रिश्ते का नाम चाहे दें, लेकिन होता डॉ. मोहता का उपयोग ही था। उनका यह उपयोग हम बिना किसी झिझक के करने लगे थे। डॉ. मोहता ने अपने स्नेहीजनों के लिए कुछ करना अपने सुख का हेतु मान लिया था। अपनी मित्र-मंडली के 40 वर्षों का स्मरण करूं तो याद नहीं पड़ता कि उन्होंने मित्रों से कभी अपने लिए कुछ चाहा होगा। साहित्य का लोक हो या स्वैच्छिक संस्थाओं का—वे अपने किसी मित्र के लिए कुछ करने में कई बार इतने रम जाते कि उनके ऐसा करने से किसी अन्य मित्र का भरोसा तोड़ रहे हैं—इसका आभास तक उन्हें नहीं होता।

आखिर के 8-10 वर्षों में उन्हें अपने लिए कुछ न करने का मलाल होने लगा था। यद्यपि अपने इस मलाल को वे जाहिर भरसक नहीं होने देते, लेकिन जो मित्र उन्हें अच्छे से जानते-समझते थे—ऐसा महसूस न केवल करने लगे थे, बल्कि उनमें आया यह बदलाव उन्हें अचम्भित भी करता था।

अपनी हाजिर-जवाबी और परिहास से मित्र-मंडली को खुशगवार रखने वाले मोहता जब मंच पर होते तो नपी-तुली बात को गंभीरता से रखतेे। कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य उम्र में उनसे दो वर्ष छोटे हैं लेकिन उनका सम्मान ऐसे करते, जैसे वे उनसे काफी बड़े हैं, वे ये भूल चुके थे कि नन्दजी कभी उनके मित्र भी रहे। यहां तक कि नन्दजी की उपस्थिति में मित्र-मंडली में परिहास भी वे दबी जबान से करने लगे। बार-बार रुपये, चीजें खोकर; दुपहिया से गिरकर चोटिल होने के बाद भी सहज रहना और हंसी-ठठों से माहौल को हल्का रखना डॉ. मोहता की फितरत थी।

डॉ. मोहता के मित्रों में केवल साहित्य-संस्कृति से जुड़े लोग ही नहीं थे— 'सफिया' नाम से बीकानेर में कुख्यात कैरम के अच्छे खेलाड़ थे—और डॉ. मोहता भी। कोटगेट क्षेत्र में सजने वाली देर रात की बाजियों में वे सफिये के साथ मगन हो जाते, वे भूल जाते कि 104 डिग्री ताप में तप रही उनकी बेटी के लिए वे दवा लेने कोटगेट आये हैं। कैरम की बाजी में डॉ. मोहता एक शॉट में तीन-चार गोटियां ले जाते, 'सफीया' उन्हें इसीलिए 'जग्गा डाकू' नाम से सम्बोधित करने लगा। वहीं शतरंज में बीकानेर का आज जो दबदबा राष्ट्रीय स्तर पर है, उसमें डॉ. मोहता का कम योगदान नहीं है। शतरंज के वे न केवल अच्छे खिलाड़ी थे बल्कि अच्छे प्रशिक्षक भी थे।

डॉ. मोहता की एक खासियत और थी कि वे जिन से जुड़कर काम करना तय करते-वैचारिक असहमतियों के बावजूद आपस में वैचारिक चर्चा होने पर असहमति दर्ज इसलिए नहीं करवाते कि जिस काम में लगे हैं उसमें बाधा आ जायेगी। इसके मानी ये नहीं कि डॉ. मोहता के विचार बदल गये हों। अपने विचार पर आग्रही ना रहने का हम जैसे उन्हें उलाहना देते तो यह कह कर टाल देते कि मुझे काम करना है, उलझना नहीं है।

डॉ. श्रीलाल मोहता मेरे लिए 'फोन ए फ्रेण्ड' भी थे। शब्द, भाषा, व्याकरण, साहित्य, कैरम, फुटबाल, क्रिकेट, शतरंज और न जाने कितनी विधाओं में वे 'रेडी रेकनर' थे। सिनेमा की बातें करने बैठते तो हिन्दी सिनेमा की शुरुआत से शुरू करते और उनके सन्दर्भ बीकानेर और बीकानेर के सिनेमागृहों तक ले आते। बीकानेर के सांध्य दैनिक 'विनायक' के आग्रह पर स्थानीय सन्दर्भों से सिनेमा पर साप्ताहिक लिखा तो ओम थानवी जब सम्पादक होकर बीकानेर आये तो 'राजस्थान पत्रिका' में यहां की लोक संस्कृति पर भी लम्बे समय तक कॉलम लिखा। बीकानेर की 'पाटा', 'खान-पान' और 'रम्मत' संस्कृति पर कहने को उनके पास बहुत कुछ था।

इसी तरह राजनीति में मक्खन जोशी और जनार्दन कल्ला उनके खास मित्रों में रहे हैं। बीते चार दशकों से बीकानेर की राजनीति के भोमिया जनार्दन कल्ला के साथ उनके ऐसी मित्रता थी कि मोहता उन्हें चुभती बात धीरे से कहने से नहीं चूकते और जनार्दन कल्ला 'लालिया तू रे'जा' कह कर चुप हो जाते। जनार्दन कल्ला के अनुज और राजस्थान की वर्तमान सरकार में केबिनेट मंत्री डॉ. बी डी कल्ला दो नातों से डॉ. मोहता का सम्मान करते हैं। अग्रज जनार्दनजी के मित्र होने के नाते तो कॉलेज प्रध्यापकी के दौरान डॉ. मोहता उनसे काफी वरिष्ठ रहे, इसलिए भी। विचारों से सुलझे और लगभग समाजवादी झुकाव के बावजूद मोहता व्यवहारिक राजनीति में बळ पड़ते झाली-झरोखे रखते थे।

डॉ. मोहता ने पत्रकारिता भी की। 1970 के दशक के उत्तराद्र्ध में नन्दकिशोर आचार्य ने मक्खन जोशी के 'मरुदीप' साप्ताहिक की सम्पादकी संभाली, उसमें डॉ. मोहता आचार्यजी के सहयोगी थे। मरुदीप में एक व्यंग्य कॉलम था 'लफंदर' नाम से। इस कॉलम को कभी डॉ. पी आर जोशी लिखते तो कभी डॉ. मोहता। डॉ. बीडी कल्ला तब रामपुरिया कॉलेज में प्राध्यापक थे और राजनीति में जाने के इच्छुक भी। डॉ. मोहता और डॉ. जोशी ने अपने इस कॉलम के माध्यम से कल्ला को चर्चा में तब से बनाये रखना शुरू कर दिया जब उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं की आमजन में बात तक नहीं होती थी।

डॉ. मोहता कभी-कभार अन्तर्मुखी भी हो लेते थे। किन्हीं कारणों से निराश या दुखी होते—रामचरित मानस, विनय पत्रिका, महाभारत आदि के पारायण में लग जाते तो कभी गीताप्रेस गोरखपुर की राम नामी की कॉपी में राम-राम लिखते मिलते। हम समझ जाते कि 'भाईजी' आज अनमने हैं—हल्की-फुल्की बातें-ठठेबाजी कर हम उन्हें सामान्य करने की असफल कोशिश करते। असफल इसलिए होते कि ऐसी मन:स्थितियों से वे अपनी युक्तियों से ही निकलते थे।

'भाईजी' के साथ के सुख, अनुभूतियां, शिकायतें और भी बहुत हैं, जिन्हें गूंगे के गुड़ की तरह सिर्फ अपने लिए ही सहज कर रखना है, सो इतना ही।

—दीपचन्द सांखला

30 सितम्बर, 2021