Tuesday, November 20, 2018

बिना इच्छाशक्ति के मिलावट पर रोक संभव नहीं (20 जनवरी, 2012)

दूध में मिलावट के मामले में समाचारपत्रों में प्रकाशित खबरों के आधार पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्वप्रेरणा से प्रसंज्ञान लेते हुए प्रदेश के हर जिले में रोजाना सौ नमूने लेने के निर्देश के साथ ही राज्य सरकार व संबंधित अधिकारियों को नोटिस जारी कर जवाब भी मांगा है। न्यायालय का यह कदम निश्चित ही स्वागत योग्य है। दरअसल भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण ने पिछले दिनों देश के 33 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में खुले और पोली पैक दूध के नमूने लेकर जांच करवाई थी। इस जांच के लिए एकत्र करीब 68 प्रतिशत नमूने मिलावटी पाए गए थे। कहीं-कहीं तो ये नमूने सौ प्रतिशत ही मिलावटी पाए गए। राजस्थान भी इस मामले में पीछे नहीं था और यहां 75 प्रतिशत नमूने मिलावटी मिले थे।
ऐसा नहीं है कि खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण के सर्वेक्षण ने कोई नया खुलासा कर दिया हो। दूध ही नहीं--घी, तेल, मसालों सहित मिलावट योग्य लगभग हर खाद्य पदार्थ में मिलावट का धंधा तेजी से पनप रहा है। इस बारे में फौरी कार्रवाइयां भी होती रही हैं और मीडिया में आती रही खबरों से जनस्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बनती जा रही मिलावट की इस महामारी का अंदाजा भी होता है। देश-प्रदेश की सरकारें भी इस खतरे से अनजानी नहीं हैं। इसके बावजूद मिलावट की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाकर जनस्वास्थ्य के इस बड़े खतरे पर नियंत्रण के कोई गंभीर उपाय नहीं किए गए। ऐसे में इस न्यायिक सक्रियता से ही प्रदेश की जनता को नई आस बंधी है।
मिलावट रोकने के प्रति प्रदेश में रही सरकारों ने कभी गंभीरता से कोई प्रयास नहीं किया है। हालांकि वर्तमान गहलोत सरकार ने ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ का अभियान भी चलाया लेकिन यह भी धीरे-धीरे औपचारिक बनकर रह गया है। कभी-कभार खाद्य पदार्थों के नमूने लेने अथवा मिलावट पाए जाने पर कुछ किलोग्राम दूध, मावा या अन्य खाद्य सामग्री फिंकवा देने भर से इस महामारी पर काबू नहीं पाया जा सकता। नियमित नमूने लेने तो जरूरी हैं ही, इनकी जांच का तंत्र भी पर्याप्त मजबूत होना चाहिए। इस तंत्र की मजबूती के अभाव में नमूनों की जांच कर रिपोर्ट देने में ही महीनों लग जाते हैं। फिर नमूने लेने और इनकी जांच  होने के बीच के लम्बे अंतराल के कारण अधिकांश खाद्य पदार्थों के नमूने वैसे ही फैल हो जाते हैं। यह लम्बा अंतराल भी खाद्य पदार्थ विक्रेताओं के लिए फायदे का सौदा साबित होता है, जो जोड़-तोड़ कर अपने नमूनों के पक्ष में रिपोर्ट करवा लेते हैं। इसके बाद अभियोजन की लम्बी प्रक्रिया शुरू होती है और इसकी समाप्ति तक जो नतीजा आता है वह सबके सामने है। मिलावट के मामले में सजाएं होने के प्रकरण अंगुलियों पर गिनाए जाने लायक भी नहीं हो पाते। ऐसी हालत में मिलावट पर अंकुश कैसे लगेगा? सरकार की मंशा का तो अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस संभागीय मुख्यालय पर कायम जनस्वास्थ्य प्रयोगशाला को ही कुछ वर्ष पहले बंद कर दिया गया। इस निर्णय पर तब कोई सवाल नहीं उठा। क्या मिलावट की जांच की आवश्यकता ही खत्म मान ली गई?
-- दीपचंद सांखला
20 जनवरी, 2012

No comments: