Friday, November 23, 2018

नील गाय के बहाने कुछ.... (3फरवरी, 2012)

कल सुबह-सवेरे दो नील गायें भटक कर बीकानेर के सिविल लाइन के आबादी क्षेत्र में आ गईं। भटक कर इसलिए लिखा है कि ये नील गायें सामान्यतः अपने को आबादी क्षेत्र से बाहर रखती हैं। कहा चाहे यह जाता रहा हो कि सजीवों में मनुष्य इसलिए श्रेष्ठ हैं कि उसमें समझ और विवेक होता है। लेकिन इसके यह मानी कतई नहीं है कि जानवरों में न्यूनतम समझ भी नहीं होती। समझ भी होती है और उस समझ का उपयोग भी करते उन्हें देखा गया है। तभी बुद्धू मानी जाने वाली नील गाय अपने को आबादी क्षेत्र से बाहर रखती हैं और यह भी कि उसे परभक्षियों से अपने को बचाये भी रखना है, इसलिए सुदूर निर्जन जंगलों में भी वह नहीं जाती। इस न्यूनतम समझ का उपयोग करके ही वो अपनी नस्ल को आज तक बचा पायी है।
लेकिन पर्याप्त समझ और ऊपर से विवेक का तकमा लगाये हम मनुष्यों ने कल उन दो नील गायों को लगातार तब तक हड़काये रखा जब तक कि वो छावनी क्षेत्र में ना चली गईं। नागरिकों के लिए वर्जित छावनी क्षेत्र में वे नहीं घुसतीं तो शायद पैदल, दुपहियों और यहां तक कि तिपहियों पर उनके पीछे भागते नजर आये लोग शायद उन्हें तब तक ना छोड़ते, जब तक वे किसी बड़े वाहन से टकरा कर खत्म ना हो जाती।
जैसा कि सुनते आएं हैं और तीस-चालीस साल पहले तक इसी बीकानेर शहर में इस तरह भटक कर आये जीवों को तमाशबीनों द्वारा परेशान करने पर कुछ लोग टोक-बरज देते थे, और नहीं मानने पर डांट भी देते थे। इस तरह की समझाइश पर वही परेशान करने वाले लोग उसी जीव को परोट कर वापस उसकी रिहाइश तक छोड़ भी आते थे। अब ना तो वैसे टोकने-बरजने वाले लोग देखे जाते हैं और अगर कोई इस तरह का साहस-समझदारी दिखाता भी है तो तमाशबीन सामने मंडने को तैयार होते हैं, अब इन सामने मंडने वालों को टोकने-बरजने-समझाने की हिम्मत जुटाने वाले तो लगभग दुर्लभ ही हो गये हैं।
इस घटना की खबरें यूं लगी और  प्रसारित हुईं कि इन नील गायों के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त और परेशानी का शिकार हुआ। सूचना-समाचारों का मुख्य माध्यम टीवी-अखबार विवेकी कहे जाने वाले उसी मनुष्य के पास है जिनकी बढ़ती हुई आबादी विस्फोटक कही जाने लगी है और प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने वाली भी! आबादी क्षेत्र विकरालता से बढ़ता जा रहा है। वन्य जीव जन्तुओं की बहुत-सी प्रजातियां समाप्त हो गई हैं और बहुत-सी समाप्त होने की कगार पर हैं। इन जीव-जन्तुओं के रहने, विचरने और चरने के स्थानों को हमने सीमित कर दिया है। उनकी परेशानियों पर विचार करने का भी समय हमारे पास नहीं है। बावजूद इसके हम सभ्य हैं, समझदार है और विवेकी भी!
-- दीपचंद सांखला
3 फरवरी, 2012

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