राजस्थान नहर परियोजना, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिसे इंदिरा गांधी नहर नाम दे दिया गया। इस नहर परियोजना पर दैनिक भास्कर (18 फरवरी, 2020) के राजस्थान संस्करण में एक फीचर प्रकाशित हुआ है। शीर्षक था 'महाराजा गंगासिंह ने 1938 में ही बनवाया था जैसलमेर तक का नक्शा... नहर बनी तो उनका नहीं इंदिरा गांधी का नाम दे दिया।'
मात्र नक्शा बनवा लेने भर पर इस तरह का शीर्षक देने को पत्रकारिता की सामन्ती मुग्धता के अलावा क्या कह सकते हैं। उक्त उल्लेखित खबर में ये उल्लेख करना भी जरूरी नहीं लगा कि जिसे गंगासिंहजी ने बनवाया उस बीकानेर नहर का नाम गंगनहर किया ही गया है। आजादी बाद की सरकारों की बनवाई परियोजना और संस्थानों के नाम रियासतकालीन शासकों के नाम पर रखने की धारणाओं को सामन्ती ही कहा जायेगा। हम एक संविधान सम्मत लोकतांत्रिक देश में रहते हैं, लेकिन पत्रकारिता-जनित असंवैधानिक हश्र जैसा इस दौर में हुआ, वह इतिहास के काले अध्याय के तौर पर देखा जायेगा।
शासन करने के लिए लोक होना जरूरी है और उसे बचाए रखना भी, इसीलिए ही सही, अंग्रेज शासक लोककल्याण की योजनाओं को तरजीह देते थे और अपने अधीन रहे राजे-रजवाड़ों को तत्संबंधी योजनाओं को अमली जामा पहनाने का निर्देश देते रहते थे इस तरह के खुलासे खुद रजवाड़ों की ओर से लिखवाये गये इतिहास में भी मिल जाते हैं।
देश की आजादी के आंदोलन के दौरान बीकानेर में सक्रिय रहे सत्याग्रहियों और क्रान्तिकारियों को उन्हीं गंगासिंहजी के शासन में अमानवीय यातनाएं देने का रिकार्ड राजस्थान राज्य अभिलेखागार में उपलब्ध है। इसलिए यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अपने सुपर शासकों के निर्देशों पर स्थानीय शासक गंगासिंहजी द्वारा बीकानेर रियासत में विकास के कार्य जितने करवाए, उसकी पुण्याई उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों को निर्मम यातनाएं देकर कभी की खो दी है।
गंगासिंहजी के खाते में दर्ज गंगनहर परियोजना पर दैनिक भास्कर के उदयपुर संस्करण के प्रभारी श्री त्रिभुवन ने काफी शोध किया है। सन्दर्भों सहित शीघ्र प्रकाश्य अपनी पुस्तक की पाण्डुलिपि के आधार पर उनके द्वारा 28 अक्टूबर, 2015 को लिखी एक फेसबुक पोस्ट उस सच को जानने के लिए पर्याप्त है। उसी पोस्ट को किंचित् सम्पादन के साथ पाठकों के लिए यहां साझा कर रहे हैं।
—दीपचन्द सांखला
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गंगासिंह के गंगनहर लाने का मिथक
महाराजा गंगासिंह गंगनहर निकालकर लाए और भगीरथ की तरह साबित हुए। यह मिथक जाने कब से चल रहा है। जिनकी सत्ता होती है, इतिहासकार भी उनके दास होते हैं। आप बस एक बार एक मिथक को सत्य का बाना पहना दें, फिर बाकी काम हम पत्रकार मुफ्त में करते रहेंगे। ये मिथक फिर चाहे पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक कितने ही नेताओं के बारे में क्यों न हो। ऐसा नहीं है कि ये मिथक सदा पॉजीटिव ही होते हैं, निगेटिव भी हो सकते हैं।
गंगनहर और गंगानगर के इतिहास को लेकर मैं बीकानेर स्थित राजस्थान राज्य अभिलेखागार से लेकर दिल्ली में तीनमूर्ति भवन के नेहरू मेमोरियल संग्रहालय तक की बहुत खाक छान चुका हूं। तथ्य ये हैंं कि 1876 से 1878 के बीच भयावह अकाल पूरे हिंदुस्तान में पड़ा था। यह ग्रेट फैमिन के नाम से कुख्यात है। 'इंपीरियल गजट ऑफ इंडिया' के थर्ड वॉल्यूम (1907 में प्रकाशित) के अनुसार इस अकाल ने देश के 6 लाख 70 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अपने बाहुपाश में ले लिया था। इसमें 5 करोड़ 85 लाख लोग सीधे प्रभावित हुए थे, जिनमें से 55 लाख लोग भूख से मर गए थे। पंजाब और नॉर्थ प्रोविंस में 8 लाख और राजपूताना में कोई 20 लाख लोग काल कवलित हुए। किसी को अनाज का दाना नहीं मिला तो किसी को पानी की बूंद। मारे भूख के लोग मरे हुए जानवरों तक को खा गए या कीकर-जांटी के पेड़ों की छाल और अन्य अखाद्य-अभक्ष्य चबा-चबाकर मर गए।
उस अकाल ने दक्षिण भारत के राज्यों को भी बुरी तरह प्रभावित किया। उस अकाल ने ब्रिटिश सरकार के संवेदनहीन शासकों को भी बुरी तरह हिला दिया था। उन दिनों लॉर्ड नार्थ ब्रुक भारत के वायसरॉय थे, लेकिन वे 1876 में चले गए। इस अकाल का सामना किया लार्ड लिटन ने, जो 1876 से 1880 तक वायसरॉय रहे। लॉर्ड नार्थ ब्रुक और लॉर्ड लिटन की डायरियों में दर्ज टिप्पणियां रोंगटे खड़े कर देती हैं। वे यह भी बताती हैं कि भारतीय राजे-महाराजे, जिन्हें हमने आज लोकतांत्रिक कालखंड में भी सिर पर बिठा रखा है, कितना गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे थे। इन देसी शासकों और उनके सलाहकारों ने इस तांडव को भाग्य से जोड़कर अपने फर्ज से किस तरह मुँह मोड़ लिया था। आप भरोसा नहीं करेंगे, अगर उस समय जातिभेद से ऊपर उठकर काम करने वाला अंगरेज अमला नहीं होता तो दलितों और कथित अछूतों की जो हालत होती, वह अकल्पनीय थी और बहुत हद तक रही भी।
खैर, उन्हीं दिनों लॉर्डं लिटन के बाद जब मार्केस ऑफ रिपन वायसरॉय बनकर आए तो उन्होंने अकाल से निबटने की बड़ी योजना बनाई। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे विदेशी, भारत विरोधी और क्रूर शासक थे। लेकिन इन क्रूर शासकों, वायसरायों और स्थानीय अंगरेज प्रशासकों पर ब्रिटिश संसद का बड़ा कड़ा पहरा था।
मैंने 1857 से लेकर 1947 तक की ब्रिटेन की संसद हाउस ऑफ कॉमन्स और हाउस ऑव लॉर्ड्स की डिबेट्स बहुत ध्यान से पढ़ी हैं। उनमें अंगरेज सांसदों ने जिस तरह भारतीय प्रशासकों की खबर ली है, वैसी बात हमारे सांसदों में आज कहीं दिखाई नहीं देती। वे जिस तरह से हाउस ऑव कॉमन्स और हाउस ऑव लॉर्ड्स में अपने प्रशासकों की खबर लेते थे, वह अन्यत्र दुर्लभ है। लेकिन यह भी सच है कि अंगरेज अंगरेज थे, वे चालाक और धूर्त थे। वे सब-कुछ वैसे ही मैनेज करके चलते थे, जिस तरह हमारे आज के प्रशासक और शासक कर लेते हैं। कहने का मतलब इतना-सा है कि भारत में राज करने वाले अंगरेज अगर कोई बेहतर काम करते थे तो इसके पीछे वहां की संसद और वहां के लोगों का दबाव ही होता था।
उन दिनों उत्तर भारत के राजपूताना और बहावलपुर रियासतों में भुखमरी बहुत बढ़ गई थी। यहां के लोगों ने पंजाब और नॉर्थ-वेस्ट प्रोविंस में चोरियां, डकेतियां और बलात्कार बढ़ गये थे। आखिर 'बूभुक्षितों किं न करोति पापम्' वाली स्थिति हो गई, यानी कि भूख से लड़ता आदमी कौन सा अपराध नहीं करेगा! ऐसे हालात में जब पंजाब और अन्य प्रोविंस त्राहिमाम कर बैठे तो लार्ड रिपन ने एक बड़ा सर्वे ये जानने के लिए करवाया कि आखिर इस लॉ-लेसनेस का कारण क्या है? वे किसी विदेशी सरकार या अन्य लोगों को जिम्मेदार ठहराकर हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ गये। इस सर्वे को बहुत बुद्धिमत्ता से सोशियो-इकोनॉमिक सोच वाले लोगों ने बड़े शानदार तरीके से किया और निष्कर्ष निकला कि अगर बहावलनगर और बीकानेर रियासतों में लोगों की बहबूदी की कोई परियोजना बने तो ये लोग वहां बस जाएंगे और अपराध घटेंगे।
राजनीतिक विज्ञानियों, समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों ने मुकम्मल योजना बनाकर कहा कि अगर सतलुज का पानी इन दोनों इलाकों में पहुंचा दिया जाए तो लोग खेती करने लगेंगे। अर्ल ऑफ डफरिन ने कोशिश की, लेकिन बीकानेर के तब के शासक डूंगरसिंह नहीं माने। मार्क्वेस ऑफ लैंड्स डाउने ने भी कोशिश की, लेकिन उनके समय में एक बड़ी उम्मीद थी। उन दिनों बीकानेर कोई स्वतंत्र रियासत उस तरह नहीं थी, जिस तरह उदयपुर, जोधपुर या जयपुर हुआ करते थे। बीकानेर में भले ही शासक डूंगरसिंह या गंगासिंह रहे, लेकिन यहां ब्रिटिश डोमिनेटिड रीजेंसी काउंसिल काम करती थी। असली शासक यह काउंसिल ही थी। नाम मात्र को डूंगरसिंहजी और गंगासिंहजी शासक थे। इस काउंसिल को भारत सरकार तय करती थी। यानी बीकानेर रियासत सीधे तौर पर ब्रिटिश डोमिनेटिड रीजेंसी काउंसिल से गवर्न होती थी। बहरहाल, इसी काउंसिल ने डूंगरसिंहजी के समय ही गंगासिंहजी को मेयो कॉलेज में पढ़ाने, ऑक्सफोर्ड भेजने और उन्हें सैनिक प्रशिक्षण देना तय किया था। ये फैसले भी स्थानीय राजपरिवार के नहीं, ब्रिटिश काउंसिल के थे। इसके बाद अंगरेजों द्वारा गंगासिंहजी जब शासक बनाए गए तो वे अंगरेजों के फैसले हूबहू लागू करने लगे। आर्यसमाज के सुधारकों को बीकानेर से देशनिकाला देने और आजादी की मांग करने वालों को बाहर निकालने और स्कूल तक नहीं खुलने देने जैसे फैसले अंग्रेज शासकों से निर्देशित थे।
चूंकि अंगरेजों को अपने प्रोविंस में अपराध कम करने थे, इसलिए उन्होंने बजरिए गंगासिंहजी बीकानेर नहर का प्रोजेक्ट बनवाया और उसे पूरा करवाया। यह प्रोजेक्ट लॉर्ड चेम्सफोर्ड के समय, यानी 1916 से 1921 के बीच बना। आपको यह भी याद दिलाता चलूं कि एक भयावह अकाल 1918-1919 के बीच भी पड़ा था। उस दौरान लॉर्ड चेम्सफोर्ड वायसरॉय थे। इस अकाल ने भी उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक जो विकराल कहर बरपाया, वह अवर्णनीय है, जिसके नतीजे भी घोर मानवहंता रहे। इस तरह बार-बार अकाल पडऩा और बार-बार अंगरेजों के सीधे शासन वाले उत्तर भारतीय पंजाब और साथ लगते बीकानेर जैसे प्रोविंसेज में जब अपराध बेकाबू होने लगे तो अंगरेज प्रशासन की यह धारणा सुदृढ़ हुई कि अगर इन अपराधों को नियंत्रित करना है तो उन इलाकों में नए रोजगार पैदा करने होंगे, ताकि आपराधिक मानसिकता पैदा ही ना हो। उन लोगों को रोजगार से जोडऩा होगा, जिनकी मानसिकता अपराधों की ओर चुंबकीय ढंग से आकर्षित हो रही है। इस सोच से सतलुज का पानी बीकानेर रियासत में भेजने का फैसला हुआ। ऐसा सिर्फ बीकानेर ही नहीं, बहावलपुर और फिरोजपुर के लिए भी हुआ। इन तीनों रियासतों के लिए नहरें निकाली गईं।
आपको हैरानी होगी, 1923 में शुरू बीकानेर नहर, जिसे हम आजकल गंग कैनाल कहते हैं, वह 1925 में बनकर तैयार हो गई, दो साल में। यह काम अंगरेजों ने किया। भारतीय मजदूरों का पसीना इस नहर में आज भी बहता है। गंगनहर के पानी में उन लाखों मजदूरों के उस पसीने की महक आज भी आती है।
इस काम में बीकानेर रियासत की प्रशासनिक और इंजीनियरिंग क्षमता जवाब दे गई तो अंगरेज सरकार ने पंजाब से जीडी रुडकिन और एक कमिश्नर, जिनका नाम फिलहाल मुझे याद नहीं आ रहा है, इन दो लोगों को भेजा। दोनों ने गंगनहर निर्माण के साथ-साथ कालोनाइजेशन का काम शुरू किया और 1 ए, 2 ए, 1 बीबी, 4 बीबी, 1 केके, 2 केके, 25 एमएल, 24 एमएल, 8 टीके, 5 केके, 36 एलएनपी आदि-आदि जैसे चकों के नाम आउटलेट्स के आधार पर रखे गये जिन्हें हम मोघा कहते हैं। मेरा अपना गांव चक 25 एमएल है।
इस तरह इस रियासत के लिये महाराजा गंगासिंह से ज्यादा तो अर्ल ऑफ रीडिंग और लार्ड इरविन ने किया। इन दोनों वायसरॉय ने 1921 से 1926 और 1926 से 1931 के बीच गंगनहर के लिए जो किया, वह रिकॉर्ड पर है। लार्ड इरविन तो 26 अक्टूबर, 1927 के दिन फीरोजपुर हैड पर बीकानेर नहर में पानी प्रवाहित करने के उद्घाटन के मौके पर मौजूद थे। इस अवसर पर पं. मदनमोहन मालवीय को भी विशेष तौर पर बुलवाया गया था।
तथ्य यह भी है कि बीकानेर में जिस तरह शिक्षा हासिल करने की छूट दो-चार उच्चवर्गीय जातियों का ही अधिकार था, उसी तरह जमीन भी इतनी ही जातियां खरीद सकती थीं या ऐसा व्यावहारिक रूप से हो रहा था। बीकानेर नहर निर्माण का खर्च जमीनें बेचकर एकत्र किया जाना था। गंगासिंहजी ने जिस वर्ग विशेष को जमीने खरीदने का प्रस्ताव दिया, वे जमीनें देखने तो गए लेकिन गगनचुंबी टीले देखकर उलटे पांव लौट गए। लोक प्रचलित बातों के अनुसार लौटते हुए उन्होंने तर्क दिया कि हमें क्या अपनी भावी पीढिय़ों को यहां रेत के धोरों में रुलाना है! ऐसा होने पर स्थानीय शासन को दिन में तारे इस चिंता में नजर आने लगे कि आखिर पैसा आएगा कहां से? अंतत: अंगरेज प्रशासन ने पंजाब के लोगों के बीच आमंत्रण भिजवाया, पंजाब के सिक्ख और जाट किसान अपनी शौर्यशाली, आत्मबल के साथ बीकानेर कैनाल क्षेत्र में उतरे और उन्होंने ऊंचे टीलों वाली जमीनें खरीदींं। उनके पैसे से ही गंगनहर के खर्च की पूर्ति हुई।
लेकिन कुछ ही समय बाद गंगासिंहजी ने किसानों पर भारी आबियाना लगा दिया जिसके विरोध में गंगानगर की धरती पर आंदोलनों का सूत्रपात हुआ। ये लोग बड़ी जांबाजी से लड़े। पंजाब के सिक्ख किसान अपने साथ नई सीख लेकर आए, खेती के उन्होंने नये तौर-तरीके अपनाकर मेहनत के नतीजे दिखाए। इस तरह बीकानेर रियासत में ही नहीं, समस्त राजस्थान में उन किसानों ने अपने परिश्रम, अपने पसीने और अपनी पावन तपस्या से गंगानगर को सिर तानकर खड़ा कर दिया।
बीकानेर नहर के पानी के साथ कृषि ही नहीं, परिश्रम की एक नई संस्कृति भी आई। जातिविहीनता भी पैदा हुई। भेदभाव से ऊपर उठकर चलने की संस्कृति जन्मी। पंजाब के किसान आए तो अनूठी इठलाती पंजाबियत भी आई। शासन के खिलाफ लडऩे की ललक वाली संस्कृति पैदा हुई।
इन नहरों को निकालने का अंगरेज सरकार का मकसद वाकई में न केवल पूरा हुआ, बल्कि ये हमारे आधुनिक प्रशासकों-आईएएस अधिकारियों के लिए अध्ययन और अनुशीलन का अनुकरणीय विषय होना चाहिए कि वे किसी इलाके में बढ़ती समाज-विरोधी गतिविधियों से किस तरह जूझें।
अंगरेजों से हमें यह सीख तो लेनी ही चाहिए कि उनकी तरह अगर हम काम करें तो समस्याओं को दूर कर सकते हैं, अपराधों से लड़ सकते हैं। हमें यह सोचना चाहिए कि हम अपने राजे-महाराजों की झूठी प्रशस्तियां कब तक पढ़ते रहेंगे और विदेशी आक्रांता के रूप में आए अंगरेज प्रशासकों की खूबियों और अच्छाइयों को निष्पक्ष होकर ग्रहण करने का काम कब करेंगे? हमें अपनी क्रूरताएं सदा करुणा का निर्झर लगती है, अपनी मूर्खताएं बुद्धिमत्ता की प्रज्ज्वलित ज्योतियां प्रतीत होती हैं, अपने खलनायक दिव्य आत्माएं लगती हैं। लेकिन सच यही है कि आज हम एक आजाद और सबल देश हैं। हमें हर चीज को क्रिटिकली ही देखना चाहिए। गंगनहर लाना तो दूर, गंगनहर का कंसेप्ट तक गंगासिंहजी के दिमाग में नहीं आ सकता था। यह अंगरेजों का काम था और उन्होंने किया। अंगरेजों ने गंगनहर ला दी, लेकिन गंगासिंहजी से लेकर आज के शासक तक पानी का सही बंटवारा नहीं करवा सके। हमारे इंजीनियरों ने अपनी इंजीनियरिंग की समस्त मेधा को कलंकित कर दिया है। हमारे प्रशासनिक अधिकारी किसानों को कभी सही पानी नहीं दिला पाए। किसान मुड्ढ़ और टेल के पाटों में कारुणिक ढंग से पिस रहा है।
-त्रिभुवन (28 अक्टूबर, 2015)
(दैनिक भास्कर के उदयपुर संस्करण के प्रभारी संपादक हैं)
20 फरवरी, 2020