Thursday, November 24, 2016

इतना कुछ कर सकते हैं न्यास के नये अध्यक्ष महावीर रांका

जैसी कि सरकारों की फितरत बन चुकी है, राजनीतिक नियुक्तियां सरकार बनने के दो-दो, तीन-तीन वर्ष तक नहीं की जाती और जब की जाती है तो नियुक्त होने वाले के पास इतना समय ही नहीं बचता कि वह कुछ कर दिखाए। इतने में चुनाव आ लेते हैं, जनता सरकार पलट देती है और नयी सरकार इन राजनीतिक नियुक्तियों को रद्द कर देती है।
बड़ी और लम्बी ऊहा-पोह के बाद बीकानेर नगर विकास न्यास के अध्यक्ष के रूप में युवा भाजपा नेता महावीर रांका को सरकार ने नियुक्त कर दिया। इस नियुक्ति ने कम से कम उन आशंकाओं पर रोक लगा दी कि केवल धनबल के आधार पर कुछ बिल्डर और भू-माफिया बिना लम्बी पार्टी सेवा के इस नियुक्ति की फिराक में हैं। महावीर रांका व्यवसायी भले ही हों लेकिन न केवल लम्बे समय से पार्टी में हैं, बल्कि विभिन्न पदों पर लम्बी सेवाएं भी दे चुके हैं।
रांका चाहें तो कुछ आधारभूत काम करके अपने कार्यकाल को यादगार बना सकते हैं। अगले चुनावों में सरकार बदलती भी है तो इनके पास दो वर्ष से ज्यादा का समय है। अपनी नियुक्ति के बाद जैसा कि रांका ने कहा कि वे खेमेबन्दी से ऊपर उठकर सभी के सहयोग से काम करेंगे। ऐसी मंशा यदि सचमुच है तो उन्हें पार्टी में सभी गुटों को मान देने और इतना ही नहीं, जरूरत पड़े तो विपक्ष के प्रभावी नेताओं का सहयोग-सुझाव हासिल करने में संकोच नहीं करना चाहिए। रांका की नियुक्ति के बाद उनके लिए एक सकारात्मक बात जो सुनने को मिली वह यह कि यह पद उन्होंने धन बनाने की नीयत से तो हासिल नहीं ही किया हैऐसा सुनना आज की व्यावहारिक राजनीति में कम साख की बात नहीं है। नगर विकास न्यास के दफ्तर की जैसी भी साख है, माना यही जाता है कि नगर निगम के दफ्तर से तो बेहतर ही है।
अध्यक्ष के तुच्छ व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं हो और आम जनता के लिए कुछ करने की सदिच्छा हो तो बहुत कुछ करने के रास्ते निकल आते हैं। उम्मीद करते हैं कि रांका चतुराई से उन सभी अबखाइयों को साध लेंगे जो कुछ कर गुजरने में बाधा बन सकती हैं।
महावीर रांका अपने कार्यकाल को यादगार बनाना चाहते हैं तो उन्हें कुछ ऐसे काम कर दिखाने चाहिए जिससे शहर कुछ राहत महसूस करे। सुन रहे हैं कि सूबे की मुखिया वसुंधरा राजे अपने इस कार्यकाल के तीन वर्ष पूर्ण होने पर अगले माह बीकानेर आ रही हैं। इस अवसर का विशेष लाभ उठाने की चतुराई दिखाने के वास्ते रांका को कुछ विशेष सक्रियता दिखानी होगी ताकि यह शहर तयशुदा से कुछ ज्यादा हासिल कर सके। इसके लिए वे निम्न सुझावों पर विशेष सक्रिय हो सकते हैं।
     शहर की सबसे बड़ी समस्या कोटगेट क्षेत्र में रेलफाटकों के चलते बार-बार बाधित होने वाले यातायात की है। इसके समाधान के लिए एलिवेटेड रोड पर शहर में एकराय बनने के बाद राज्य सरकार ने भी कुछ माह पूर्व इसे स्वीकार कर लिया और इस योजना के लिए धन की व्यवस्था भी केन्द्र सरकार ने कर दी थी। सुन रहे हैं कि परियोजना को अमलीजामा पहनाने की प्रक्रिया में अनावश्यक देरी हो रही है। यह काम न्यास को मिले या न मिले, न्यास अध्यक्ष रांका को यह कोशिश जरूर करनी चाहिए कि इसके शिलान्यास की रस्म भी मुख्यमंत्री के हाथों उनकी इसी यात्रा में अदा हो जाए।
     गंगाशहर रोड को जैन पब्लिक स्कूल से मोहता सराय तक जोडऩे वाली सड़क का कार्य पिछले लगभग चार वर्षों से अधर में लटका हुआ है। इसकी बाधाओं को व्यक्तिगत प्रयासों से दूर करवा कर, संभव हो तो इसका उद्घाटन और बीकानेर शहर एवं देहात भाजपा के इसी मार्ग पर बनने वाले पार्टी कार्यालय का शिलान्यास भी मुख्यमंत्री से इसी यात्रा में करवाया जा सकता है। शहर के अन्दरूनी भाग और मोहता सराय क्षेत्र को बीकानेर रेलवे स्टेशन और पीबीएम अस्पताल आदि से जोडऩे वाले इस मार्ग की बहुत जरूरत है।
     चौखूंटी रेल ओवरब्रिज के दोनों ओर की चारों सर्विस रोड बल्कि निगम भण्डार की ओर की दोनों सर्विस रोडें आवागमन योग्य नहीं हैं, इन्हें दुरुस्त करवाना जरूरी है। निगम भण्डार की ओर भण्डार की दीवार को तो पीछे करवाना ही है, कुछ मकानों के कुछेक हिस्सों का अधिग्रहण भी किया जाना है। यह काम इसलिए भी जरूरी है कि इस पुलिया के दोनों ओर कई समाजों के शमशान गृह हैं जिनमें से अधिकांश तक जाने के लिए पुलिया के नीचे से होकर ही जाना होता है। ये काम मूल परियोजना का ही हिस्सा थे लेकिन लगभग तीन वर्ष होने को हैं और वहां के बाशिन्दों को उनकी नियति पर ही छोड़ दिया गया है।
     भुट्टों के चौराहे से लालगढ़ रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाले मार्ग को यातायात के लिए सुगम बनाने के वास्ते पूर्व न्यास अध्यक्ष मकसूद अहमद के समय योजना बनी थी। मकसूद अहमद की नाड़ कमजोर थी जिसके चलते ना केवल पूर्व कलक्टर और पदेन न्यास अध्यक्ष पृथ्वीराज के समय की जैन पब्लिक स्कूल-मोहता सराय वाली उक्त उल्लेखित सड़क को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया बल्कि खुद उनके समय बनी भुट्टों के चौराहे होकर लालगढ़ स्टेशन को जाने वाली सड़क के दुरुस्तीकरण की योजना पर भी मकसूद अहमद को सांप सूंघ गया था। पूर्व योजना अनुसार इस सड़क की चौड़ाई सौ फीट करने पर एतराज कुछ ज्यादा है तो अस्सी फीट पर मुहल्ले वालों को इस बिना पर राजी किया जा सकता है कि इस मार्ग के सुचारु होने से उसके इर्द-गिर्द वाले भवनों-जमीनों की वकत और कीमत कई गुना बढ़ जायेगी। यह मार्ग सुगम होता है तो बीकानेर के मध्य और पश्चिम के बाशिन्दों के लिए लालगढ़ रेलवे स्टेशन पहुंचने का मार्ग लगभग चार किलोमीटर कम हो जाएगा।
     रानी बाजार क्षेत्र में बंगाली मन्दिर को रानी बाजार पुलिया से जोडऩे वाली सड़क के अतिक्रमण हटाने से यह मार्ग सुगम हो जायेगा और रानी बाजार रेलवे क्रॉसिंग की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर यातायात का भार भी कम होगा। इतना ही नहीं, गोगागेट से रानी बाजार पुलिया की ओर जाने वाले यातायात के समय की बचत भी होगी। वैसे यहां के संस्कृत महाविद्यालय और शर्मा कॉलोनी क्षेत्र को देखने की जरूरत विशेष तौर से है। सर्वाधिक चौड़े मार्गों वाली इस रियासती कॉलोनी के बाशिन्देे अतिक्रमण करने की ऐसी होड़ में लगे हैं कि अपने घर के आगे की सड़क को ज्यादा संकरा कौन करता है और न्यास व निगम दोनों ही इस ओर से आंखें मूंदे हैं।
     गंगाशहर क्षेत्र में बहुत व्यस्थित बसी नई लाइन में अतिक्रमण लगातार हो रहे हैं। खासकर बड़े-बड़े चौकों का विभिन्न तरीकों से अतिक्रमण कर सौन्दर्य नष्ट किया जा रहा है, उन्हें हटाना जरूरी है। वहीं गंगाशहर के मुख्य चौराहे से गुजरना बहुत टेढ़ा काम है। यहां के सब्जी बाजार और टैक्सी स्टेण्ड को पास ही के गांधी चौक और इन्दिरा चौक में स्थानान्तरित किया जा सकता है। इसी तरह पुरानी लाइन, सुजानदेसर, किसमीदेसर और भीनासर में बेतरतीब चौक जैसे भी हैं उनकी पैमाइश कर रिकार्ड बनाना इसलिए जरूरी है कि वहां नए अतिक्रमण ना हो सकें, जो अतिक्रमण हैं उन्हें बिना लिहाज हटाया जाना चाहिए।
     बीकानेर शहर के बीचों बीच आई रेल लाइन को आम शहरी बहुत भुगतता है। इसके लिए महात्मा गांधी रोड पर बनने वाले एलिवेटेड रोड के अलावा भी बहुत कुछ करना जरूरी है। इसमें रानी बाजार रेलवे फाटक पर अण्डरब्रिज बनाने की लम्बे समय से चली आ रही मांग वहां के बाशिन्दों के प्रयासों से कुछ सिरे चढ़ी है। हालांकि यह योजना सार्वजनिक निर्माण विभाग के जिम्मे आनी है लेकिन नवनियुक्त न्यास अध्यक्ष रांका को इसके क्रियान्वयन में रुचि दिखानी चाहिए। अलावा इसके रांका को रेलवे से सामंजस्य बिठा कर अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में ही उन्हें शहरी क्षेत्र में चार अण्डरब्रिज बनाने का बीड़ा उठाना चाहिए। ये अण्डरब्रिज अब कोई बड़ी लागत नहीं खाते हैं और रंग चोखा इसलिए देंगे कि रेलवे लाइन के दोनों ओर रहने वाले लोग उन्हें लम्बे समय तक याद रखेंगे। ये चार अण्डरब्रिज निम्न स्थानों पर बनाए जा सकते हैं 1. लालगढ़ रेलवे हॉस्पिटल के सामने 2. चौखूंटी फाटक के पास लालगढ़ स्टेशन की ओर 3. सुभाष रोड से बड़ी कर्बला की ओर 4. सांखला फाटक पर कोयला गली की ओर केवल पैदल और दुपहिया वाहनों के लिए बनाया जा सकता है। एलिवेटेड रोड के बावजूद यह अण्डर ब्रिज रेल फाटक बन्द होने पर दोनों ओर के बाजार में खरीददारों के आवागम को सुचारु रख सकेगा।
इसी तरह, भले ही काम शुरू ना होदो रेल ओवरब्रिज की योजनाएं बनाकर बजट के लिए न्यास को केन्द्र और राज्य सरकारों को भिजवानी चाहिए जिसमें पहला रेल ओवरब्रिज पवनपुरी शनिश्चर मन्दिर से रानी बाजार-केजी कॉम्पलेक्स तक और दूसरा नागनेची-मन्दिर मरुधर कॉलोनी से रानीबाजार इण्डस्ट्रियल एरिया तक। न्यास अध्यक्ष को ये भी पड़ताल करनी चाहिए कि रामपुरा-लालगढ़ रेलवे क्रॉसिंग पर घोषित रेल ओवरब्रिज कहां अटका है।
     'सरकार आपके द्वार' के समय मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने गजनेर पैलेस में कुछ संपादकों-पत्रकारों से शहरी विकास के लिए सुझाव चाहे थे। तब अन्य सुझावों के साथ सूरसागर को लेकर दिए गये एक सुझाव पर मुख्यमंत्री सहमत हुईं और बातचीत में उन्हें समझ आ गया था कि सूरसागर को कृत्रिम साधनों से भरे रखना बेहद मुश्किल है और इन आठ वर्षों में सभी प्रयासों के बावजूद इसे पूरा ना भर पाने से इस बात की पुष्टि भी होती है। इसके लिए सुझाव था कि इसे डेजर्ट पार्क (मरुद्यान) के रूप में विकसित किया जाए जिसमें थार रेगिस्तान के पेड़-पौधे और अन्य वनस्पतियों के साथ-साथ वन विभाग जिन जीव-जन्तुओं की छूट दे, उन्हें रखा जाए। लेकिन यह सुझाव उस समय मुख्यमंत्री से अधिकारियों तक पहुंचते-पहुंचते गड़बड़ा गया। डेजर्ट पार्क की घोषणा पहले तो सूरसागर से छिटक कर हुई और फिर कहीं फाइलों में दफन हो गई। इस डेजर्ट पार्क की रूपरेखा पर 'विनायकÓ में पहले भी विस्तार से लिखा जा चुका है। न्यास अध्यक्ष इच्छा शक्ति बनाएं तो नगर विकास न्यास ना केवल इस सफेद हाथी से मुक्त होगा बल्कि डेजर्ट पार्क बनने पर देशी-विदेशी पर्यटकों से अलग-अलग दरों पर मिलने वाले प्रवेश शुल्क के माध्यम से आय का साधन भी बना सकेगा। आय का साधन नहीं भी बने तो इसके रख-रखाव के खर्च जितना तो न्यास प्रवेश शुल्क से अर्जित कर ही लेगा।
     न्यास और नगर निगम भी, जो नई कॉलोनियां काट रहे हैं उनमें कम-से-कम चार आस्था स्थलों और एक विद्युत निगम तथा एक नगर निगम के लिए भूखण्डों का प्रावधान रखा जाना चाहिए। आस्था स्थल का भूखण्ड एक समुदाय के लिए एक ही हो तथा उसे पंजीकृत संचालन ट्रस्ट को ही आरक्षित दर पर आवंटित किया जा सकता है। आवंटन की इसी तरह की व्यवस्था सरकारी उपक्रमों यथा विद्युत निगम और नगम निगम के लिए भी रखी जा सकती है। कॉलोनी यदि ज्यादा बड़ी है तो आस्था स्थलों के लिए भू-खण्डों की संख्या दुगुनी की जा सकती है। ऐसे भूखण्डों का आवंटन ना हो तो उन्हें कॉलोनी विकसित होने तक खाली रखा जाना चाहिए। ऐसा कायदा वैसे तो राज्य सरकार को तय करना चाहिए लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक न्यास और निगम को स्थानीय तौर पर ऐसे प्रावधान रखने चाहिए। ऐसा होने पर पार्कों और खाली स्थानों पर आस्था स्थलों के नाम पर कब्जे होने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा।
इसी तरह न्यास की बसायी कॉलोनियों में हो रहे किसी भी तरह के अतिक्रमणों को समय रहते चिह्नित करवा हटाना जरूरी है।
     न्यास और नगर निगम को अपने-अपने क्षेत्र के रियायशी भूखण्डों पर चलने वाली व्यावसायिक गतिविधियों को सूचीबद्ध करना चाहिए। बाद इसके जिन भूखण्डों का नियमानुसार भू-उपयोग परिवर्तन किया जा सकता है उनको वसूली के नोटिस दिये जाने चाहिए और जिनका व्यावसायिक भू-उपयोग परिवर्तन नहीं हो सकता वहां व्यावसायिक गतिविधियां बन्द करवाई जानी चाहिए। ऐसे प्रकरणों को उनकी बकाया रकम के साथ सूचीबद्ध करवाकर न्यास और निगम कार्यालयों में होर्डिंग लगाकर साया किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए कि न्यास और निगम को अपने बकाया का भान तो रहेयह भान रहेगा तभी वसूली का मानस भी बनेगा। नगर निगम और नगर विकास न्यास, दोनों के मुखिया फिलहाल वणिक समुदाय से हैं इसलिए उम्मीद की जाती है कि वे लेन-देन के तलपट को तो कम-से-कम दुरुस्त करवाएं, वसूली चाहे पूरी फिलहाल ना भी हो।
     एक व्यवस्था संबंधी काम न्यास अध्यक्ष रांका को जरूर करना चाहिए जिसे पहले किसी अध्यक्ष ने करना जरूरी नहीं समझा। न्यास के क्षेत्र में छोटे-मोटे बहुत से प्लॉट और न्यास की कई जमीनें छितराई पड़ी हैं, जिनमें कुछ लावारिस हैं, कुछ पर कब्जें हैं और कुछ कब्जों के प्रकरण न्यायालय के अधीन हैं। ऐसे सभी भूखण्डों को उक्त अनुसार तीन श्रेणियों में ही सूचीबद्ध करवाकर श्वेत पत्र जारी करें और बताएं कि न्यास की कितने मूल्यों की ये जमीनें लावारिस, कब्जों और न्यायिक विवादों में हैं।  इस सूची को स्थाई तौर पर न्यास कार्यालय में होर्डिंग के माध्यम से प्रदर्शित भी किया जाना चाहिए। संभव हो तो ऐसे भूखण्डों को नीलाम किया जाए या उन पर विभिन्न जन सुविधा केन्द्र यथा शौचालय, मूत्रालय, कचरा कलेक्शन सेन्टर, शमशान गृह आदि-आदि बनवाएं जा सकते हैं। महापौर चाहें तो ऐसी ही व्यवस्था निगम की जमीनों के लिए भी कर सकते हैं।
     एक महती काम और किया जा सकता है जिसमें से ना केवल पेड़ बचेंगे बल्कि पर्यावरण, दूषित होने से भी बचेगा। न्यास चाहे तो पहली चार में परदेशियों की बगीची और आइजीएनपी कॉलोनी के पास स्थित श्मशान गृह के प्रबंधकों को सहयोग कर विद्युत शवदाह गृह स्थापित करवा सकता है। ऐसे कार्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
     फिलहाल अन्त में इतना ही कि मुख्यमंत्री की यात्रा से पूर्व न्यास अध्यक्ष को इसे पुख्ता कर लेना चाहिए कि रवीन्द्र रंगमंच इस स्थिति में तो आ ही जाए कि उसका उद्घाटन हो सके और यह भी पुख्ता कर लें कि इसी परिसर में बनने वाले मुक्ताकाशी रंगमंच का निर्माण तत्परता से हो।
उक्त सब कामों के लिए न्यास अध्यक्ष महावीर रांका को न केवल अपनी पार्टी के बल्कि विपक्षी पार्टियों के दिग्गजों और प्रभावशाली नेताओं के साथ-साथ संबंधित विभिन्न विभागों के अधिकारियों से सतत सामंजस्य और मेल मुलाकात रखनी होगी। जोधपुर विकास का रहस्य अशोक गहलोत की राजनीतिक शुरुआत के समय से ऐसी ही कुव्वत में छिपा है। जोधपुर के विकास के लिए वे न विपक्षियों से जाकर मिलने में संकोच करते हैं और न ही संबंधित अधिकारियों से मेल-मुलाकात में और यह भी कि जरूरत समझने पर उन्हें भोजन (डिनर डिप्लोमेसी) पर भी बुलाते रहे हैं। उम्मीद करते हैं महावीर रांका इसी तरह प्रयत्नशील रह कर शहर के विकास का नया मार्ग प्रशस्त करेंगे।

24 नवम्बर, 2016

Thursday, November 17, 2016

संवेदना में पड़ते आइठांण चिंताजनक

नोटबंदी के अनाड़ी क्रियान्वयन के इस दौर में कुछ संवेदनहीनता भी दिखने लगी है। आम आदमी कुछ करता है तो नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन चुने हुए जनप्रतिनिधि और मीडिया के दिग्गज अखबार तथा चैनल ऐसी दुस्साहसिकता पर मसखरी करे तो अखरता है। ऐसा चिन्ताजनक भी इसीलिए लगता है कि फिर उम्मीदें किन से की जाए।
हजार और पांच सौ की नोटबंदी के बाद जैसे ही 2000 के नये नोट जारी हुए वैसे ही किसी सिरफिरे ने एक पुराने नोट पर लिखे वाक्य की सनद के साथ ठीक वैसे ही 'सोनम गुप्ता बेवफा है' इस नये नोट पर भी लिखा और दोनों नोटों को साथ रख कर फोटो खींच सोशल साइट्स पर डाल दिया। जिसने भी यह निन्दनीय कृत्य किया, उसने यही जाहिर किया कि किसी सोनम गुप्ता से वह तिलमिलाया हुआ है, उसके इनकार से उसकी मर्दवादी हेकड़ी को चोट लगी है। लेकिन इस पोस्ट को साझा करने और सुर्खियां देने वालों को क्या कहेंगे? ऐसे सभी लोग संवेदन शून्य हैं जिन्हें यह भान ही नहीं कि देश में कितनी सोनम गुप्ता होंगी और उनमें से कुछेक को जीवन में कभी ऐसे सिरफिरों से सामना भी करना पड़ा होगा। अगर आपके परिजनों और प्रियजनों में कोई सोनम गुप्ता नहीं है तो क्या इस नाम की महिलाओं और युवतियों का मजाक सरेआम बनाने का हक हासिल हो गया? अनजाने ही सही, इस तरह से किसी अनजान को उत्पीडि़त करने का हौसला उसी समाज में हासिल होता है जो संवेदनहीन होने के कगार पर खड़ा है। मनीषी डॉ. छगन मोहता के हवाले से बात करें तो ऐसे लोगों की संवेदनाओं में आइठांण (गट्टे : कुहनियों और टखनों पर सख्त हुआ चमड़ी का वह हिस्सा जिस पर सूई चुभोने पर भी एहसास नहीं होता) पडऩे लगे हैं।
ऐसी गैर जिम्मेदाराना हरकत के दोषी महाराष्ट्र से कांग्रेसी विधायक और वहां के नेता प्रतिपक्ष आरके विखे पाटिल अकेले ही नहीं हैं। उनके इस बयान को सुर्खियां देने वाले मीडिया के विभिन्न माध्यम भी हैं। इतना ही नहीं, ऐसे कई अखबार, चैनल भी गैर जिम्मेदार हैं जो सोशल साइट्स पर सक्रिय ऐसे संवेदनहीन लोगों की 'सोनम गुप्ता बेवफा है' से संबंधित पोस्टें प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं। ऐसा करके ये लोग और अन्य माध्यम अपनी उस पुरुष मानसिकता को ही जाहिर कर रहे हैं जिसने सदियों से मान रखा है कि स्त्री को न तो ना करने का अधिकार है और ना ही उसे अपना मन और पसंद बदलने का हक है।
कम से कम मीडिया को तो ऐसे सिरफिरों को सुर्खियां देने से बाज आना चाहिए क्योंकि थोड़ी बहुत उम्मीदें समाज को जिन विवेकशीलों से है—वे मीडिया और न्यायालय ही हैं।

17 नवम्बर, 2016

Thursday, November 10, 2016

नोटबंदी : पाँच सौ और हजार के नोट खारिज करने से असल प्रभावित सामान्यजन ही

'मैं धारक को एक हजार/पांच सौ रुपये अदा करने का वचन देता हूं।' कागज के एक टुकड़े पर भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर के हस्ताक्षरों के साथ छपी यह वचनबद्धता ही उसकी कीमत तय करती है। 8 नवम्बर, 2016 की रात भारत सरकार ने एक झटके में ही एक हजार और पांच के सौ नोटों को तत्काल प्रभाव से खारिज कर दिया। बिना यह समझे कि उनके इस कदम से देश की आबादी का एक बड़ा और अनुमानत: 35 से 40 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी अपराध के अपने को बमचक ठगा-सा महसूस करने लगा, केवल इसलिए कि देश की आबादी का अधिकतम 5 प्रतिशत हिस्सा है जो अवैध धन बनाने और उससे मौज मस्ती-अय्याशी करने और जमा बढ़ाने में लिप्त है। सभी राजनीति दलों के अधिकांश राजनेता इस गोरख धंधे में न केवल शामिल हैं बल्कि इन करतूतों के लिए अनुकूलता भी बनाते रहते हैं।
यह सब लिखने का आशय कृपया यह कतई न निकालें कि यह आलेख अवैध धन की पैरवी करने के लिए लिखा जा रहा है। अवैध धन मानवीय समाज के लिए कोढ़ का काम करता है जिसे जड़ से समाप्त किए बिना आमजन न सुकून से जीवन-बसर कर सकता है और ना सम्मान से। और इस अवैध सम्पत्ति को समाप्त करने के लिए जो भी कानूनी कदम उठाए जा सकते हैं उठाए जाने चाहिए। लेकिन एक लोक कल्याणकारी शासक से उम्मीद यह की जाती है कि ऐसे कदम ऐसी सावधानी से रखें जिससे वह अवाम पीडि़त ना हो जो मासूम है या कहें जो उस अपराध में निर्दोष है।
यह बात फिलहाल रहने देते हैं कि देश और प्रदेशों में शासन करने वाले और सदनों में उनके पक्ष विपक्ष में बैठे अधिकांश राजनेता अपनी हैसियत को बिना अवैध धन के नहीं पा सके हैं। और यह भी कि वह सब छोटे-बड़े सरकारी कारकून जो ऊपर की कमाई में लगे हैं और जो कूत-अकूत चल-अचल संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं और कई बनने को लगे हुए हैं। फिर भी किसी देश का शासन कम से कम परेशानियों के साथ किसी को चलाना होता है तो उसे अपनी फितरत से अलग कुछ करना उसकी मजबूरी हो जाता है और इसी मजबूरी के चलते अवैध धन पर कुछ नियन्त्रण के वास्ते अर्थशास्त्र के विमुद्रीकरण के उपाय को कोई भी शासन अपना सकता है, भारतीय और वैश्विक परिदृश्य में बात करें तो पहले भी इस उपाय को अपनाया जाता रहा है। भारत के संदर्भ में बात करें तो अर्थशास्त्रीय राय यह है कि पांच सौ और हजार के नोटों को बन्द करने से मात्र 3 प्रतिशत ही कालाधन इसकी जद में आ पायेगा।  इसीलिए ऐसे उपाय लक्ष्य से बहुत कम कारगर होते देखे गये हैं। क्योंकि अवैध धन को रखने का एकमात्र उपाय नोटों के रूप में रखना ही नहीं है, उसका बड़ा हिस्सा, जमीनों, भवनों, आभूषणों, सोने-चांदी और शेयरों के रूप में जमा किया जाता रहा है। भारत में जब 1978 में इसी तरह बड़े नोटों को चलन से बाहर किया गया, वर्तमान वित्तमंत्री के कहे को ही उद्धृत करें तो तब बड़े नोटों की देश की कुल अर्थव्यवस्था में मात्र 2 प्रतिशत ही हिस्सेदारी थी लेकिन अब खारिज किए बड़े नोटों की वह हिस्सेदारी 86 प्रतिशत हो गयी है। मतलब तब बड़े नोट 'बड़े' लोगों के पास ही थे लेकिन अब वह उस प्रत्येक सामान्य जन के रोजमर्रा के लेनदेन और एडे-मौके के लिए उनकी घरेलु बचत का हिस्सा है जो तथाकथित गरीबी रेखा के आस-पास या ठीक-ठाक जीवन-बसर कर लेते हैं।
अवैध धन के बड़े ठिकाने अवैध व्यापार करने वाले, रिश्वत लेने वाले सरकारी अधिकारी-कर्मचारी और ऐसे लगभग सभी राजनेताओं को शामिल मान लें जो प्रभावी हैं और आएं-बाएं से वसूली में लगे रहते हैं, ये सभी मिला कर कुल आबादी का 5 प्रतिशत भी नहीं होंगे, मात्र इन्हें सबक सिखाने को की गई बड़े नोट बन्द करने की इस कवायद में सामान्यजन कितने प्रभावित होंगे, थोड़ी इसकी भी पड़ताल कर लेनी चाहिए। अवैध धन अर्जित करने वाले सभी लोगों की संपत्ति में नकद नोटों का हिस्सा 25-30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा, इनके अवैध धन का मोटा हिस्सा तो जमीनें-भवन, सोना-जवाहरात और शेयरों आदि में निवेश के रूप में होगा। ऐसी अवैध सम्पत्ति पर सरकार की इस कवायद से कोई असर नहीं होना है, ऐसों की पूरी नकद जमा पूंजी भी यदि रद्दी हो जाती है तो ऐसे लोग इस स्थिति में तो रहेंगे ही कि इस प्रशासनिक पोल में उसे पुन: अर्जित कर सकें। शासन और सरकार के टैक्स उगाई महकमों की हरामखोरी-और निकम्मेपन का ही नतीजा है कि अर्थव्यवस्था में अवैध धन पनपता है। लेकिन इसका खमियाजा उस आम जनता को भुगतना पड़ता है जो देश की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा यानी जो लगभग 35 से 40 प्रतिशत हो सकता है, यह वर्ग जो बैंकिग प्रणाली के साथ सामान्यतय: अपने को सहज नहीं पाता और अपनी छोटी बचतों को या तो सामान्यत: अपने पास ही रखता है या उसे अनाधिकृत ठिकानों पर रखना उचित समझता है, इस वर्ग के ऐसे सभी लोग अचानक आई इस आर्थिक आपदा के शिकार हो गए हैं। इनमें वह भारतीय पत्नियां भी शामिल हैं जो जीवन के बड़े हिस्से को व्यक्तिगत अभावों में जीकर अपनी गोपनीय बचत इसलिए सहज कर रखती हैं कि कभी परिवार पर कोई आर्थिक संकट आ जाए तो कम से कम वह अन्नपूर्णा की अपनी जिम्मेदारी को तो निष्ठा से निभा सके।
अलावा इसके अभी शादियों का मौसम है, लोग-बागों ने विवाह के खर्चों के लिए अपनी औकात अनुसार नकद रकम घर में रख छोड़ी है, इस 8 तारीख को नोट खारिज करने का जो वज्रपात हुआ उसमें वह अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। भारत के असंगठित रोजगार क्षेत्र में अधिकांश मासिक वेतन सात तारीख को दिया जाता। नकद वेतन की रकमों में अधिकांश पांच सौ और हजार के नोट होते हैं, कोई दिहाड़ी मजदूर कुछ कमाकर सप्ताह का भुगतान लाया होगा तो वह यदि ऐसे ही बड़े नोटों में हो, दो पांच-दस हजार रुपये बड़े नोटों की शक्ल में लेकर यात्रा पर निकले लोग, परिजनों की हारी-बीमारी के इलाज लिए अपने घर-बार से दूर आ गये लोग, ऐसे लोग सुविधा के लिए बड़े नोट लेकर ही घर छोड़ते हैं, इन सभी लोगों के साथ सरकार ने अपने इस फैसले से क्या कर दिया, इसका अंदाजा है किसी को। घर में छिपाकर कुछ रकम रखने वाली स्त्रियों की साख दावं पर लगवा दी, गरीब के पास बड़े नोटों में रकम है लेकिन वह आटा तक नहीं खरीद सकता। यात्रा में गया व्यक्ति ना गंतव्य तक लौटा सकता है और ना ही पेट की आग बुझा सकता है। यात्रा करने वालों में 60 से 80 प्रतिशत तक लोग बिना रिजर्वेशन के तत्समय टिकट लेकर ही यात्रा करते हैं। पैसा है लेकिन दवाई नहीं खरीद सकते। बिना इन सब पर विचार किए सरकार ने अपनी 'सनक' में यह फैसले कैसे ले लिया? सरकार को कम से कम सामान्य और जरूरी खरीद-फरोख्त के लिए एक महीने का समय तो देना ही चाहिए था, चाहे इस समय का दुरुपयोग अवैध धन वाले लोग थोड़ा-बहुत भले ही कर लेते। ऐसे चन्द लोगों को सबक देने भर को आबादी के एक बड़े हिस्से को सरकार ने किस विकट अवस्था मैं पहुंचा दिया, ऐसे समय का फायदा उठाकर कुछ लोग नोटों की कालाबाजारी में लग औने-पौने दामों में नोट लेने लगे हैं। बावजूद इस सबके अवैध धन उपार्जन में लगे लोगों का कुछ बड़ा बिगाड़ नहीं होगा।
यह सारी कही के बावजूद जिस देश की आबादी का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा वैसा है जो ऐसे आदेशों से पूरी तरह अप्रभावित है क्योंकि उनके पास ना तो रहने को छत है ना दूसरे दिन शाम के लिए तय कि वे क्या खाएंगे और अपने बच्चों को क्या खिलाएंगे, बावजूद इसके आबादी का वह पांच-दस प्रतिशत हिस्सा सरकार के इस कदम से  इसलिए खुश और सहज है, उनका तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन अवैध धन-पिशाच संकट में आ गये। ऐसे लोगों के लिए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी मानसिकता कुएं के मेंढक सी बना ली है इसलिए वे बाहर का असल देख ही नहीं पाते या कहें ऐसे लोगों की नजर आबादी के असल पीड़ितों और प्रभावित पर पड़ती ही नहीं है।
सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि ऐसे फैसलों की क्रियान्विति ऐसे सनकी तरीकों से नहीं करें। ये सरकारें वोटों के जिस बड़े हिस्से से चुनकर आई हैं, उनमें यदि लोक कल्याण की भावना नहीं भी है तो कम कम से कम यह ख्याल तो रखें कि आबादी का बड़ा हिस्सा इस तरह पीड़ित तो न हो।
                                                         --दीपचंद सांखला
10 नवम्बर, 2016