Tuesday, September 30, 2014

देवीसिंह भाटी की सक्रियता के मतलब

पूर्व विधायक देवीसिंह भाटी ने गोचर-ओरण की बात फिर उठाई है। यह कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें कोई राजनेता उठाता है तो संशय खड़े हुए बिना इसलिए नहीं रहता कि इन्हें ऐसी चिन्ताएं कब से होने लगी। नेताओं के ऐसे अलाप में छुपे राग को जानने-समझने की इच्छा रहती ही है, उम्मीद करनी चाहिए कि देवीसिंह भाटी के उठाए इस मुद्दे में कुछ छिपाव नहीं है। भाटी ने जब जुलाई 2012 में गोचर-ओरण की बात उठाई थी तो उसमें छिपे ऐजेंडे की कइयों को बू आने लगी थी। इसके कुछ महीनों बाद ही अक्टूबर 2012 में उन्होंने 'मालिक बनो-प्रदेश यात्रा' निकाल कर ग्राम स्वावलंबन के लिए जल, जंगल और जमीन में आमजन की भागीदारी की बात करते हुए उत्तर-पश्चिमी राजस्थान की फेरी लगाई थी। तब भी यह माना गया कि भाटी पार्टी में अपनी हैसियत को लेकर आशंकित हैं और वसुंधरा की रुचि प्रदेश में कम होने के चलते वे इस अभियान से अपनी हैसियत बनाने में जुटे हैं। 2013 के विधानसभा चुनावों में पार्टी हाइकमान ने वसुन्धरा में फिर से भरोसा जताया तब 2003 का-सा आत्मविश्वास वह महसूस नहीं कर रही थी। वसुंधरा ने पार्टी में उन सभी समकक्षों को साधना शुरू किया जो सध सकते थे-देवीसिंह भाटी भी उनमें से एक थे। भाटी को जिस तरह पार्टी से उम्मीदवारी में कोई संशय नहीं था वैसे ही यह भी माना जाता रहा कि वे अपने क्षेत्र में अजेय हैं। राजनीति में 1977 से पूरी तरह सक्रिय और 1980 से विधायक रहते आए देवीसिंह ने रुतबा तो क्षेत्र में बनाये रखा लेकिन इसकी एवज में किया कुछ भी नहीं, जबकि भाटी की हैसियत हमेशा इतनी सक्षम रही कि क्षेत्र में वे कुछ भी करवा सकते थे। प्रदेश के दो सौ विधानसभा क्षेत्रों में कोलायत की गिनती प्रदेश बनने के साठ वर्षों बाद भी सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में आती है। भाटी ने अपने लिए कितना कुछ किया उसका आकलन छोड़ देते हैं, पर जिन्होंने भी भाटी के प्रति अपना शत-प्रतिशत समर्पण भाव रखा उन सभी ने अपनी कूवत और हैसियतनुसार अच्छा-खासा हासिल किया। भाटी के क्रियाकलापों से कभी यह जाहिर ही नहीं हुआ कि अपने क्षेत्र के विकास को लेकर के कोई 'विजन' भी रखते हैं?
भाटी के जीवन में प्रतिकूलताएं भी कम नहीं रहीं जैसा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा वैसा-कुछ उनके जीवन में घटित होता गया। यहां तक कि 2013 का विधानसभा चुनाव हारना राजस्थान की राजनीति में कम अचम्भे वाला परिणाम नहीं था, जबकि उनकी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की। इस हार के बाद भाटी बहुत मुश्किल से संभले हैं। इस संभाल में वसुन्धरा राजे की भी कम भूमिका नहीं है। हो सकता है मुख्यमंत्री उनके लिए झंडी-गाड़ी की व्यवस्था कर दें, जो ज्यादा मुश्किल इसलिए भी नहीं है क्योंकि भाटी ने अपनी पहुंच राजनाथसिंह तक भी बना रखी है।
भाटी ने ताजा सक्रियता जो गोचर-ओरण के लिए दिखाई है, इसमें भी कोई पेंच अवश्य होगा अन्यथा उनके विधानसभाई क्षेत्र में जिप्सम का जो अवैध खनन वर्षों से धड़ल्ले से हो रहा है उस पर तो भाटी ने कभी चूं भी की हो ऐसी जानकारी नहीं है। कहा तो यहां तक जाता है कि यह अवैध खनन बिना भाटी की अनुकूलता के संभव ही नहीं! गोचर में काश्त अवैध भले ही मान ली जाय लेकिन पर्यावरण को उससे नुकसान नहीं है। हालांकि कह सकते हैं कि काश्त होने के बाद उस क्षेत्र में जिन डांगरों के लिए यह छोड़ी गई है उनका प्रवेश ही संभव नहीं हो पाता। इसलिए काश्त की तरफदारी भी संभव नहीं है। 
भाटी क्या इस मुद्दे को भी उठायेंगे कि अवैध खनन से त्रि-स्तरीय हानि हो रही है। पहला, गैर कानूनी काम धड़ल्ले से हो रहा है, ऐसे में न्याय और कानून पर भरोसा कम होता जा रहा है, दूसरा, सार्वजनिक कामों की जरूरत पूरी करने वाले राजस्व की हानि भारी मात्रा में हो रही है और तीसरा, जो कबाड़ा सबसे बड़ा हो रहा है वह यह कि इस क्षेत्र की मगरे नाम की भौगोलिक पहचान से समाप्त हो जायेगी। पूरे क्षेत्र को खोद दिया गया है, जिप्सम निकालने के लिए ऊपरी मिट्टी या वेस्टेज के ऊंचे-ऊंचे टीले खड़े कर दिये गये। ऐसे में जब मगरा ही नहीं रहेगा तो मगरे शेर के शावक विचरण कहां करेंगे। भाटी को चाहिए कि या तो वे शुद्ध भाव से प्रकृति प्रेमी बनें और उसके लिए जुट जाएं अन्यथा छिपे ऐजेंडे के इस तरह के मुखौटों से शान कम ही होनी है। पर्यावरण का कबाड़ा रोकना इस तरह संभव भी नहीं।

30 सितम्बर, 2014

Monday, September 29, 2014

रेल फाटकों की समस्या पर गोपाल जोशी ने टिमटिमाई उम्मीदें

बीकानेर पश्चिम के विधायक गोपाल जोशी ने शुक्रवार को कहा कि कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या के समाधान के लिए वे रेल अंडरब्रिज के बजाय एलिवेटेड रोड बनाने के प्रयासों पर गंभीर होंगे। उनके इस बयान पर 'नेकी और पूछ-पूछ' वाली कैबत कौंध गई।
गोपाल जोशी शहर के वरिष्ठतम राजनीतिज्ञ हैं। जिले के एक अन्य नेता मानिकचन्द सुराना को छोड़ दें तो गोपाल जोशी अकेले ऐसे राजनेता हैं जो 1962 के विधानसभा चुनावों से सक्रिय राजनीति में हैं। उनके स्वभाव के बारे में कहा जाता कि वे सामान्यत: संकल्पबद्ध कम ही होते हैं और हो जाते हैं तो फिर डिगते नहीं। उनकी 'सारी खुदाई' कल्लाद्वय को हाशिये पर करने की 1980 से जारी उनकी कोशिश 2008 में ऐसी परवान चढ़ी कि कल्ला बंधुओं की जी तोड़ कोशिशों के बावजूद 2013 में उन्हें सक्रिय राजनीति की मुख्यधारा में बाहर कर दिया। वैसे इस ऊपरी उल्लेख की यहां जरूरत नहीं थी लेकिन काम काढऩे के लिए जामवन्त का हनुमान को बल याद दिलाने का प्रसंग याद जो गया।
यह शहर वर्षों से उक्त दोनों रेल फाटकों को भुगत ही रहा है। शहर के लोग या कहें इन्हें हांकने वाले इसके समाधानों को लेकर भ्रमित रहे हैं-बाइपास जैसे घोर अव्यावहारिक समाधान पर बहुत सारे वर्ष हमने खो दिए। पिछले दो-एक वर्ष ऐसे ही एक अन्य समाधान अण्डरब्रिज की गप्पड़-चौथ में लगा दिए।
विधायक गोपाल जोशी ने अब एलिवेटेड रोड की मंशा बनाई है तो उम्मीदें इसलिए बनी मान सकते हैं कि उनकी सरकार पूरे पावर में है और सरकार की मुखिया तक गोपाल जोशी की पूरी सुनवाई है। गोपाल जोशी चाहेंगे तो 2018 के विधानसभा चुनावों तक एलिवेटेड रोड पर यातायात भले शुरू करवा पाएं, पर वे उम्मीदें साकार होती तब तक दिखला सकते हैं। एलिवेटेड रोड की यही योजना 2007 में राज्य सरकार के निर्देश पर राजस्थान अरबन इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (आरयूआईडीपी) ने केवल बना ली थी बल्कि इसके मॉडल का प्रदर्शन कर लोगों से सकारात्मक अनुशंसाएं भी हासिल कर लीं थी। तब बजट के प्रावधान के बावजूद महात्मा गांधी रोड के व्यापारियों के छिट-पुट विरोध में तब के जनप्रतिनिधि बी.डी. कल्ला और बाइपास समर्थक शामिल हो गये। तब की भाजपानीत वसुन्धरा सरकार को लगा होगा कि आसन्न विधानसभा चुनावों में यह परियोजना शायद उन पर भारी पड़ सकती है सो पूरे प्रोजेक्ट को दफना दिया। हुआ क्या कल्ला हार गये, गोपाल जोशी जीत गये लेकिन एलिवेटेड रोड की योजना देने वाली वसुन्धरा का शासन ही चला गया। इसी के चलते रेल फाटकों की इस समस्या को एक्सटेंशन मिलता गया।
अब यदि इसकी कवायद फिर शुरू की जाती है और गोपाल जोशी के अलावा शहर की अन्य विधायक सिद्धीकुमारी भी इसे अपना काम मान लेती हैं तो हो सकता है जिले के अन्य विधायक भी उनका साथ दे दें। इन दोनों फाटकों का पूरा उत्तर-पूर्वी इलाका जो इस एलिवेटेड रोड से लाभान्वित होगा वह सिद्धीकुमारी के विधानसभाई क्षेत्र में ही आता है।
अब थोड़ा उन व्यापारियों से हथाई कर लें जो यह मानते रहे हैं कि एलिवेटेड रोड के बन जाने से उनके आर्थिक हित प्रभावित होंगे, इसके लिए बिन्दुवार विचार कर लेते हैं
प्रस्तावित तीस फीट चौड़ी एलिवेटेड रोड महात्मा गांधी रोड के मिनर्वा सिनेमा से अधर हो प्रेमजी पॉइन्ट होते हुए फड़ बाजार पॉइन्ट से सांखला फाटक की ओर मुड़कर नागरी भण्डार पर से दो तरफा बंटनी है जिसका एक हिस्सा राजीव गांधी मार्ग की ओर घूम कर उतरेगा तो दूसरा होटल जोशी के आगे जमीन पर आना है।
जिन्हें पुराने शहर यानी बड़ा बाजार और दाऊजी रोड से पब्लिक पार्क की ओर जाना है या जिन्हें पब्लिक पार्क से पुराने शहर की ओर आना है, वह पूरा यातायात एलिवेटेड रोड का ही उपयोग करेगा। ठीक ऐसे ही रेलवे स्टेशन से पब्लिक पार्क की ओर आने-जाने वाला यातायात इस होकर गुजर जायेगा।
यदि ऐसा होता है तो कोटगेट और सांखला फाटक के उत्तरी-पूर्वी बाजारों में यथा महात्मा गांधी रोड और उसके आस-पास के बाजार में उस यातायात का दबाव खत्म हो जायेगा जो केवल इन बाजारों का प्रयोग रास्ते के रूप में करते हैं। तब होगा यह कि इस बाजार में जो केवल खरीदारी के लिए ही आना चाहते हों उनका केवल आवागमन सुगम हो जायेगा बल्कि एलिवेटेड रोड के खम्भों के बीच के स्थानों पर उन्हें पार्किंग की सुविधा भी सहज ही में हासिल हो जायेगी।
एलिवेटेड रोड बनती है तो कोयला गली पर यातायात का दबाव खत्म हो जायेगा और इस मार्ग पर व्यापारिक कार्य करना ज्यादा सुविधाजनक हो जायेगा।
एलिवेटेड रोड यदि बनती है तो रेलवे स्टेशन और राजीव गांधी रोड के इर्द-गिर्द के बाजार यथा स्टेशन रोड, कोटगेट, सट्टा बाजार, लाभूजी का कटला, कोटगेट, दाऊजी रोड, सुन्दर मार्केट, बाबूजी प्लाजा, रामदेव मार्केट आदि-आदि तक शहर के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के बाशिन्दे आसानी से पहुंच सकेंगे जो अन्यथा महात्मा गांधी रोड, फड़बाजार और कोयला गली के जाम से झिझक कर उधर फटकते ही नहीं है।
एलिवेटेड रोड बनाने के बाद शहरी क्षेत्र में मिनी बसों की सार्वजनिक परिवहन सेवा की संभावनाएं बनते भी देर नहीं लगेगी।
रही बात दो-ढाई वर्ष के निर्माण के समय की परेशानियों की तो वह निर्माण की आधुनिक तकनीकों के जाने के बाद उतनी विकराल रही ही नहीं। सड़क के बीच पिल्लर की भराई होनी है, मशीनों से मिक्सर तैयार होकर मशीनों से ही भराई होती है। रोड के स्लेब निर्माण स्थल पर ढलते ही नहीं हैं वह शहर के बाहर से ढल कर आते हैं और क्रेन से फिट किए जाते हैं। यूं लगभग सौ वर्षों के लिए मिलने वाली सुविधा के लिए थोड़ी बहुत परेशानी नहीं भुगतेंगे तो जो अभी भुगतते हो उसे भुगतते रहना होगा। बीकानेर शहर को प्रतिवर्ष यदि एक नई रेलगाड़ी मिले तो इन फाटकों के बन्द होने की आवृत्ति आने-जाने के हिसाब से औसतन प्रतिवर्ष दो बार बढ़ जायेगी। ऐसे में ये फाटक कितनी देर खुले रह पाएंगे हिसाब लगा लें।
समय है और विधायक गोपाल जोशी ने अपना मन भी बनाया है, शहर के बाशिन्दों और व्यापारियों को मौका लपक लेना चाहिए अन्यथा राज के पास सुलझाने को समस्याएं और भी बहुत हैं-कोटगेट और सांखला फाटक की समस्या के सिवा।

29 सितम्बर, 2014