Tuesday, November 20, 2018

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (24 जनवरी, 2012)

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, इस आयोजन का जिक्र करना है तो इसी नाम से करना होगा। इसे जयपुर साहित्य उत्सव नहीं कह सकते क्योंकि आयोजकों ने इसके हिन्दी नाम का विकल्प नहीं दिया है। सामान्यतः ऐसे आयोजनों में होता यह है कि इनका नाम दो-तीन भाषाओं में समान रूप से रखा जाता है। लिटरेचर के नाम पर जब बहुत कुछ इधर-उधर का इस आयोजन में हो ही रहा है तो अब इसके नाम पर ही क्यों चर्चा करें। मीडिया भी जिसमें टीवी, अखबार के साथ अब इंटरनेट का उल्लेख करना भी जरूरी हो गया है--क्योंकि पिछले दो-एक साल से इंटरनेट भी अपने बनते रूप में ही सही, मीडिया का अंग बनता जा रहा है।
मीडिया के इसी नये रूप में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर कुछ गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं हालांकि ज्यादातर प्रतिक्रियाएं अनर्गल जैसी ही हैं। लेकिन मीडिया के इस बेलगाम रूप में ऐसी संभावनाएं बनी रहेंगी। फिर भी कुछ सवालात इस आयोजन को लेकर ऐसे हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मीडिया के दो अन्य रूप टीवी और अखबारों की ज्यादातर सुर्खियों और प्रतिक्रियाओं पर इन दोनों ही माध्यमों के वर्तमान की जानकारियों से कोई बड़ा आश्चर्य नहीं हो रहा है। ये दोनों माध्यम अब ‘बळ पड़ते जाली-झरोखों’ की तर्ज पर ही खबरें और प्रतिक्रियाएं बनाते हैं। जैसे पिछले तीन दिन से टीवी-अखबारों के पास इस आयोजन को लेकर रुश्दी के अलावा कोई बड़ा मुद्दा ही नहीं है। क्या रुश्दी इतना बड़ा मुद्दा हैं जितना बड़ा मीडिया ने इसे बना दिया है। आयोजक स्वयं इस आयोजन को एक इवेन्ट के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। जयपुर विरासत फाउंडेशन नाम के एक एनजीओ का घालमेली ‘टीम वर्क प्रोडक्शन’ अपने शुरुआती परिचय में अपने को बहुमुखी मनोरंजन कम्पनी के रूप में प्रचारित करता है, फिर तो वो इस फेस्टिवल को जिस तरह से आयोजित कर रहा है, वह ठीक ही है। हां, कुछ को लिटरेचर शब्द पर जरूर आपत्ति हो सकती है, उनको भी जवाब देने के लिए कुछ ऐसे अंग्रेजीदां लेखकों को बुला लिया जाता है जिन्हें मीडिया ने सेलिब्रेटी बना दिया है। हां, राजस्थानी, उर्दू, हिन्दी आदि के कुछ लेखकों के सत्र भी आयोजित होते हैं लेकिन इन सब की हैसियत इस आयोजन में खेतों में खड़े उन पुतलों से ज्यादा है क्या जिन्हें बिजूका या अड़वौ कहा जाता है।
खेतों में बिजूके पक्षियों से धान बचाने को खड़े किये जाते हैं उसी तरह आयोजक इस आयोजन में हिन्दी, उर्दू, राजस्थानी के लेखकों को आलोचकों से अपने को बचाने को बुला लेते हैं? इससे अलग उनकी कोई भूमिका नजर आती है तो बतायें।
रही बात भीड़ की--जिसे साहित्य से जुड़ाव के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। यह आयोजन 2008 से हो रहा है, हिन्दी, उर्दू, राजस्थानी साहित्य की बात एक बार ना भी करें तो भी अंग्रेजी साहित्य से भी कितने लोग जुड़े होंगे, यह शोध का विषय हो सकता है।
-- दीपचंद सांखला
24 जनवरी, 2012

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