Friday, November 23, 2018

बात अखबारी पाठकों की... (2फरवरी, 2012)

जिन किसी की भी पॉकेट की पहुंच अखबार के मासिक बिल के भुगतान तक की है, लगभग उन सभी के यहां एक अखबार तो जरूर आता है, सुबह के अखबार सामान्यतः आठ से सोलह पृष्ठों के होते हैं, ब्रॉडशीट के न्यूनतम आठ पृष्ठ तो इसलिए कि उसके बिना सरकारी विज्ञापनों के लिए निर्धारित राज्य स्तरीय दरें नहीं मिलती। अखबार को चलाये रखने के लिए यह सरकारी विज्ञापन बड़ा आर्थिक आधार बनते हैं, अन्यथा कहा जाता है इन अखबारों की प्रति कॉपी लागत आठ से अठारह रुपये तक आती है। निजी क्षेत्र के विज्ञापन भी अखबार की साख के आधार पर मिलते हैं और इस साख के बनने का एक आधार इन सरकारी विज्ञापन का मिलना भी माना जाता है।
विभिन्न रुचि संपन्न पाठकों के लिए खबरों के अलावा भी बहुत सारी सामग्री रोजाना जुटानी होती है। पाठकों से बात करें तो कुछ आश्चर्यजनक सूचनाएं सामने आती हैं। पाठकों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिनका ताजे समाचारों-सूचनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। इनमें कुछ तो छप रहे किसी धारावाहिक कॉलम को ही पढ़ते हैं तो कुछ केवल चित्रकथा देखते-पढ़ते हैं, और कुछ ऐसे भी होते हैं जो केवल वर्ग पहेली से ही अपना वास्ता जाहिर करते हैं। ऐसे भी बहुत से पाठक होते हैं जो केवल विज्ञापन ही देखते हैं तो कुछ ऐसे भी कि इन विज्ञापनों में भी केवल सरकारी टेन्डर या विज्ञप्तियां टटोलते हैं। अपनी-अपनी जरूरत के क्लासीफाइड विज्ञापन देखने वालों की तादाद भी अच्छी-खासी है। किसी अखबार में खेल का पन्ना या फिल्मी सामग्री ना हो तो कई उसे अखबार ही नहीं मानते।
जिस संपादकीय के नियमित प्रकाशित नहीं होने पर सरकार अखबार ही नहीं मानती उसी संपादकीय को पढ़ने वाले पाठक न्यूनतम पाये जाते हैं। सभी अखबारों के नियामकों को इसकी जानकारी होती है। शायद इसीलिए वे इस पर गंभीर नहीं होते। क्या संपादकीय का पाठक वर्ग बनाना असंभव है, ऐसा बिलकुल नहीं है। राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी और लाला जगतनारायण ने अपने-अपने सम्पादकीयों के नियमित पाठक वर्ग बनाये थे।
पाठकों में कुछ ऐसे भी देखे गये हैं जो अखबार का सिरोपांव तक अवलोकन करते हैं। इनमें हाल ही दिवंगत हुए पं. बंशीधर बिस्सा एक थे। छियानवें वर्ष की उम्र में अस्वस्थ होने से पहले तक अलसवेरे उन्हें अखबार चाहिए था और बाकी के परिजन जब तक सोकर उठते, उससे पहले वे अखबार को सांगोपांग तरीके से देख व बांच लेते थे और आये-गये से उस पर चर्चा भी करते थे। इन दिनों का तो पता नहीं, एक अरसा पहले तक कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य न केवल अखबारों में छपी घोर रुचिहीन सामग्री बल्कि विज्ञापन तक पढ़ने की आदत बनाये हुए थे।
-- दीपचंद सांखला
2 फरवरी, 2012

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