Thursday, November 30, 2017

गुजरात चुनाव : जुझार कांग्रेस और आकळ-बाकळ भाजपा

दिसम्बर के पहले पखवाड़े में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव अपने उत्सुकी दौर में पहुंच गये हैं। देश-समाज और राजनीति में रुचि रखने वाले प्रत्येक भारतीय के लिए 18 दिसम्बर को आने वाला चुनाव परिणाम किसी कौतुक से कम नहीं होगा। हालांकि उसी दिन हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों का परिणाम भी आना है, लेकिन जैसी कौतुकी प्रतीक्षा गुजरात चुनाव परिणामों के लिए होगी वैसी हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणामों के लिए नहीं होगी।
बीते 22 वर्षों से गुजरात में कहने को भाजपा का शासन है, लेकिन लगभग 19 वर्षों तक वहां शासन नरेन्द्र मोदी ने पार्टी से ऊपर होकर किया है। गुजरात छोड़ केन्द्र की राजनीति में आने से पूर्व तक अति-महत्त्वाकांक्षी और हेकड़ीबाज मोदी को यह भान ही नहीं होगा कि वह जिस आडम्बरी आवरण में गुजरात को संजोए हुए थेउनके जगह छोड़ते ही वह अनावृत होने लगेगा। इस तरह के आकलन को चुनाव परिणामों की घोषणा ना मानें। मगर विधानसभा चुनावों के मद्देनजर गुजरात में जो राजनीतिक परिदृश्य बना है, उसे अपनी तरह से देखने की एक कोशिश जरूर है।
डेढ़-दो माह पूर्व तक गुजरात के चुनावी परिदृश्य के जो अनुमान थे, वह सब ओझल होने लगे हैं। अचानक लगने वाला यह परिवर्तन आकस्मिक नहीं था। अपने पंजाब प्रभार के समय भी कांग्रेस महासचिव अशोक गहलोत ने ऐसे हालातों में ही अपनी पार्टी के लिए अनुकूलता बनाई लेकिन उसका उल्लेख इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वहां सत्ता विरोधी लहर इतनी प्रबल थी कि गहलोत को श्रेय मिल नहीं पाया। पंजाब में भी इस बात की प्रबल संभावना थी कि सत्ता विरोधी लहर का लाभ आम आदमी पार्टी ले जा सकती थी, जिसे संभव नहीं होने दिया गया।
गुजरात की स्थितियां कमोबेश भिन्न हैं, यहां हाल तक मोदी के बनाए आडम्बरी आवरण के चलते सत्ता विरोधी लहर वैसी दिखाई नहीं दे रही थी जैसी कि पंजाब में। स्वयं मोदी को भी ये भान नहीं था कि विकास के गुजरात मॉडल के गुब्बारे की हवा यूं निकल जाएगी, बावजूद इस सबके, गुजरात में सत्ता विरोधी लहर से इनकार नहीं किया जा सकता। इसे 2012 के विधानसभा चुनाव परिणामों से समझ सकते हैं कि जब सांगठनिक तौर पर लगभग लुंज-पुंज कांग्रेस को तब भी 182 में से 57 सीटें मिली थी। कांग्रेस यदि तब आज जैसे जोशो-खरोश में होती तो सरकार भले ही ना बना पाती, विधानसभा में बराबरी का जोर जरूर करवा देती। कांग्रेस में आज के जोश-खरोश का श्रेय प्रभारी महासचिव अशोक गहलोत को जाता है। वे पिछले एक वर्ष से मृतप्राय संगठन को तहसील स्तर तक संजीवन देने में जुटे हैं। अलावा इसके, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस का प्रभावी चुनाव अभियान और पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बदले किरदार के लिए भी अशोक गहलोत की संगत का असर मानने में संकोच नहीं करना चाहिए। इस जुझारू चुनाव अभियान के बावजूद गुजरात में कांग्रेस पार्टी सरकार बना लेगी या नहीं, यह चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा। सरकार यदि ना भी बन पाए तो कांग्रेस के लिए गुजरात चुनावों की बड़ी उपलब्धि राहुल का बालिग हो जाना माना जा सकता है। ये भी उल्लेखनीय कम नहीं है कि गुजरात के पिछले तीन विधानसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा हिन्दू-मुसलमान ही रहा है लेकिन इस बार ये मुद्दा हाल तक सिरे से गायब है। हालांकि कुछ भी पार पड़ती नहीं देख भाजपा अपने इस पुराने तरीके को आजमाने की तजबीज में लगी हुई है।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के कांग्रेस अभियान का स्मरण करें तो राहुल गांधी में आए इन बदलावों को अच्छे से समझ सकते हैं। उत्तर प्रदेश में तब चाहे उन्होंने यात्रा की हो या चुनावी रैलियां, राहुल के हाव-भाव से यही लगता था कि उन्हें खुद पर भी भरोसा नहीं है, वहीं जनता में भी राहुल को लेकर कोई खास उत्साह नहीं देखा जाता था। सकारात्मक माहौल जननेता और जनता की परस्पर की कैमिस्ट्री से बनता है। जननेता होते जा रहे राहुल के सन्दर्भ से ऐसी कैमिस्ट्री गुजरात में अब देखी जाने लगी है।
वहीं कांग्रेस से उलट कैडर आधारित कहलाने वाली भाजपा जब से मोदी एण्ड शाह एसोसिएट बनीतब ही से कैडर की हैसियत कलपूर्जों से अधिक की नहीं देखी जा रही। मुद्दे में सावचेत संघ लगातार मिल रही सफलताओं और असल एजेन्डे के लिए बनती अनुकूलता के आभास से मुग्ध है तो नरेन्द्र मोदी भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री हो लेने भर की खुमारी से ही निकल नहीं पा रहे। स्थानीय कहावत में समझें तो जैसे सेर की हांडी में सवासेर ऊर दिया गया हो। असल में कहें तो संघ और मोदी की इस मुग्धता ने अमित शाह को बहुत कुछ की गुंजाइश दे दी है। अमित शाह निजी फर्म की मानिन्द पार्टी को जिस तरह चलाने लगे हैं उससे लगता है कि वे अब संघ और मोदी दोनों पर हावी हैं। कभी वे ठिठकते लगते भी हैं तो यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा माना जा सकता है।
गुजरात चुनाव के परिणाम अगले वर्ष होने वाले राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनावों को तो प्रभावित करेंगे ही, 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों की आधार भूमि भी तय करेंगे। गुजरात में कांग्रेस अगर जीतती है तो मोदी-शाह के तौर-तरीकों पर पार्टी के भीतर से आवाजें मुखर होने लगेगी। ऐसी पूरी संभावना है वहीं कांग्रेस ऐसी अनुकूल परिणामों के बाद न केवल आगामी विधानसभा चुनावों में पूरे आत्मविश्वास के साथ उतरेगी वरन् लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए भी जोशो-खरोश जुटा लेगी।
दीपचन्द सांखला

30 नवम्बर, 2017

Thursday, November 16, 2017

डॉक्टरों की हड़ताल और फिल्म पद्मावती के बहाने अपने समाज को आईने में देखने की कोशिश

समाज को स्वयं के अवलोकन के लिए किसी बाहरी-भौतिक आईने की जरूरत नहीं होती। कोई  ऐसा प्रयास कर भी रहा है तो वह या तो अपने को बहला रहा होता है या खुद ही को धोखा दे रहा है। चूंकि समाज बहुआयामी होता है अत: उसका एक आयाम दूसरे के आईने की भूमिका निभा रहा होता है। बस जरूरत इतनी ही है कि हम ऐसे विवेक को अपने में साध लें। प्रतिकूलता यही है कि इस दौर में ऐसा विवेक समाज से लगातार गायब होता जा रहा है।
हाल के दो आन्दोलनों से इसके आकलन और समझ से रू-बरू हो सकते हैं। पहला, राजस्थान में सरकारी सेवारत डॉक्टरों की हड़ताल और दूसरा संजय लीला भंसाली की आने वाली फिल्म पद्मावती के हो रहे भयावह विरोध से।
डॉक्टरों और शासन के बीच समझौता हो चुका है और डॉक्टर काम पर लौट आए हैं। ऐसी घटनाओं के अच्छे-बुरे परिणामों को भूलने की समय सीमा इस दौर में जिस गति से सिकुड़ रही है, उस पर विचारने से चिन्ता होने लगती है कि इस तरह संवेदनाएं समाज में बचेंगी भी कि नहीं। (बुरे परिणामों में वे खबरें हैं जिनसे मालूम होता है कि डॉक्टरों की इस हड़ताल के चलते कई मरीज इलाज के अभाव में मर गये।)
डॉक्टरों की यह हड़ताल टूटने से एक दिन पूर्व के अपने ट्वीट को साझा कर रहा हूं। डॉक्टरों को उनकी इस हड़ताल के लिए भुंडाए जाने पर चाहें तो इस ट्वीट से पूरे परिदृश्य का आकलन कर सकते हैं।
राजस्थान में डॉक्टरों की हड़ताल : जिस समाज का प्रत्येक समर्थ घोर लालच और स्वार्थ की लालसा मन में रखने लगा हो, वहां डॉक्टरों से तो क्या, किसी से भी मानवीय होने की कामना बेमानी है।
इसे और खोलकर कहने की गुंजाइश तो नहीं लगती, फिर भी यह समझना पर्याप्त है कि जब समाज के सर्वाधिक प्रभावी समर्थ नेताओं में अधिकांश भ्रष्ट हों, अधिकांश अधिकारी-उच्चाधिकारी भ्रष्ट हों तथा लगभग व्यापारिक और औद्योगिक घराने भ्रष्ट हों, उस समाज में 'धरती के भगवानÓ जैसे जुमलों से डॉक्टरों को प्रभावित करने की कोशिश व्यर्थ है। ऐसे सामाजिक हालातों में वे भी संवेदनहीन और भ्रष्ट क्यों नहीं हो सकते।
इसी तरह से प्रदेश में और आसपास के प्रदेशों के उन इलाकों में जहां प्रभावी क्षत्रिय आबादी है, वहां-वहां संजय लीला भंसाली की आने वाली फिल्म पद्मावती का विरोध हिंसक चेतावनियों के साथ हो रहा है।
चिंता यह नहीं है कि भंसाली की पद्मावती रिलीज हो पाती है कि नहीं; असल खतरा अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ती दबंगई से है। अभिव्यक्ति की आजादी की जब बात कर रहे हैं, तब विवेकसम्मत तरीके से कहने की आजादी की बात ही कर रहे होते हैं, किसी अनर्गलता की नहीं। यूं तो इतिहास पर विवाद खड़े किए जाते रहे हैं लेकिन ऐसे इतिहासकार, जिनकी दुनिया के अपने समकक्षों में प्रतिष्ठा है, उनके कहे को खारिज करते हैं तो अराजकता की हद तक जाकर किसी भी तथ्य को खारिज कर सकते हैं। ऐसी प्रवृत्ति समाज के उन समूहों में लगातार बढ़ती दीखने लगी है, जिन्हें सामान्यत: समर्थ, समृद्ध और दबंग माना जाता रहा है।
व्यक्ति की कल्पना से अनर्थ भी सृजित हो सकते हैं, जायसी ने नहीं सोचा होगा कि पद्मावती को लेकर जो काव्य उन्होंने रचा उसे इतिहास मान कर बखेड़ा खड़ा कर दिया जायेगा। के. आसिफ ने कभी मुगले आजम बनाई, इस असहिष्णु समय में उसे बनाना संभवत: संभव ही नहीं होता।
पद्मावती फिल्म अभी तक ना रिलीज हुई है, और ना इसकी अभी तक कोई स्क्रीनिंग हुई है, सेंसर बोर्ड ने भी अभी तक इसे पास नहीं किया है। चिन्ता की वजह यही है कि केवल सुनी-सुनाई बातों पर यकीन कर एक समर्थ और शिक्षित समूह इस पर विचार और विमर्श की बिना गुंजाइश रखे किस कदर उद्वेलित हुआ जा रहा है।
राजस्थान खासकर क्षत्रिय समाज का लोकप्रिय घूमर नृत्य पद्मावती के लिए फिल्माया गया है, उसकी वीडियो क्लिप फिल्म के प्रचारार्थ जारी वीडियो में से एक है, जिसे टीवी चैनलों में कई बार दिखाया जाने लगा है। बिना उसे गौर से देखे विरोध इसलिए हो रहा है कि उसमें रानी को बिना घूंघट के नचवा दिया। इस गीत को देखने से लगता है कि निर्देशक ने इसके फिल्मांकन में समाज की मर्यादाओं का पूरा खयाल रखा है। इस गाने में एकमात्र जिस पुरुष को दिखाया गया, वह पद्मावती के पति राजा रतनसेन ही हैं। कोई अन्य पुरुष इस गीत के दौरान किसी फ्रेम में दिखाई नहीं देता। जो समाज यदि इतनी छूट भी नहीं देता, उसे अपने भीतर झांकना शुरू कर देना चाहिए, अन्यथा तकनीक के चलते जिस गति से समाज के अन्तर्संबंधों में बदलाव आ रहे हैं उसमें वे ना केवल अप्रासंगिक हो जाएंगे बल्कि अपनी आगामी पीढिय़ों के लिए अलग तरह की कुंठाओं को भी बो रहे हैं।
इस फिल्म पर आए दूसरे जिस एतराज को खुद भंसाली ने सिरे से ही खारिज किया है, वह है अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती के बीच किसी फैंटेसी-दृश्य का होना। फिर भी भंसाली एतराज करने वाले समाज के प्रतिनिधियों को फिल्म रिलीज करने से पूर्व दिखाने को तैयार हैं। समाज के संजीदा लोगों को आगे आना चाहिए। ये ज्यादा चिंताजनक है जब कुछ संजीदा सामाजिक लोग भी राजनीतिक नफे-नुकसान का आकलन कर या तो चुप रहते हैं या विरोध की रस्म अदायगी भी करने लगे हों।
अपनी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में फिल्मों में अनर्गलता नियन्त्रण के लिए सरकार की ओर से सेंसर बोर्ड भी बना हुआ है। यदि लगता है कि वह भी जिम्मेदारी से काम नहीं कर रहा है तो फिर अपने सामाजिक होने की पड़ताल के लिए भी आईना क्यों न देखेंहम खुद कितने जिम्मेदार हैं।
दीपचन्द सांखला

16 नवम्बर, 2017

Sunday, November 12, 2017

जिस पद्मावती पर घमासान मची है, उस कवि की कल्पना का अवलोकन तो करलें; वह इतिहास है या कोरी कल्पना।

#पद्मावत की प्रेम कहानी
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जिस पद्मावत के इतिहास की चर्चा आजकल जोर शोर से हो रही है उसके ब्रांड अम्बेसडर यानी लेखक मालिक मोहम्मद जायसी के "पद्मावत" अनुसार पदमिनी ने 1303 में जौहर कर लिया था ! लेकिन पद्मावत ग्रंथ की रचना हुई थी 1597 में ! अब लगभग 290 साल बाद मिली दिव्य द्रष्टि को छोड़ भी दिया जाये और थोड़ा सा भी दिमाग लगाकर सोचे तो - 16000 रानियों ने जौहर किया 30000 सैनिको ने शाका किया इस हिसाब से किले में रहने वाली कम से कम जनसँख्या होगी लगभग 1.50 लाख ! चित्तौड़ जैसे पहाडी दुर्ग में जहाँ रहने को केवल महल था उसमे इतने लोगों का रह पाना असम्भव हि लगता है !
खैर इसको छोड़कर मूल कहानी पर आते है जो पुराण, वेद, रामायण, महाभारत से भी मजेदार है !
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कहानी की शुरुवात होती है हीरामन नामक तोते से जिसने खूबसूरत पदमिनी को नहाते हुए देखा और राजा रतनसेन के सामने उसके रूप का लम्बा चौड़ा वर्णन किया ! उस वर्णन को सुन राजा बेसुध हो गया उसके हृदय में ऐसा अभिलाष जगा कि वह हीरामन को साथ ले जोगी होकर घर से निकल पड़ा ! उसके साथ सोलह हजार सैनिक भी जोगी होकर चले !
दुर्गम स्थानों के बीच होते हुए सब लोग कलिंग देश में पहुँचे ! वहाँ के राजा गजपति से जहाज लेकर रत्नसेन ने सिंहलद्वीप की ओर प्रस्थान किया क्षार समुद्र, क्षीर समुद्र, दधि समुद्र, उदधि समुद्र, सुरा समुद्र और किलकिला समुद्र को पार करके वे सातवें मानसरोवर समुद्र में पहुँचे जो सिंहलद्वीप के चारों ओर है !
सिंहलद्वीप में उतरकर जोगी रत्नसेन तो अपने सब जोगियों के साथ महादेव के मन्दिर में बैठकर तप और पद्मावती का ध्यासन करने लगा और हीरामन पद्मावती को मिलने के लिए बुलाने गया !
वसन्त पंचमी के दिन पद्मावती सखियों के सहित वहाँ पहुँची जिधर रत्नसेन थे ! पर ज्योंही रत्नसेन की ऑंखें उस पर पड़ीं, वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा ! राजा को जब होश आया तब वह बहुत पछताने लगा और जल मरने को तैयार हुआ ! सब देवताओं को भय हुआ कि यदि कहीं यह जला तो इसकी घोर विरहाग्नि से सारे लोक भस्म हो जाएँगे ! उन्होंने जाकर महादेव पार्वती के यहाँ पुकार की !
महादेव कोढ़ी के वेश में बैल पर चढ़े राजा के पास आए और जलने का कारण पूछने लगे ! इधर पार्वती की, जो महादेव के साथ आईं थीं, यह इच्छा हुई कि राजा के प्रेम की परीक्षा लें ! ये अत्यन्त सुन्दरी अप्सरा का रूप धारकर आईं और बोली -'मुझे इन्द्र ने भेजा है ! पद्मावती को जाने दे, तुझे अप्सरा प्राप्त हुई ! रत्नसेन ने कहा-'मुझे पद्मावती को छोड़ और किसी से कुछ प्रयोजन नहीं !
पार्वती ने महादेव से कहा कि रत्नसेन का प्रेम सच्चा है। रत्नसेन ने देखा कि इस कोढ़ी की छाया नहीं पड़ती है, फिर महादेव को पहचानकर वह उनके पैरों पर गिर पड़ा ! महादेव ने उसे सिद्धि गुटिका दी और सिंहलगढ़ में घुसने का मार्ग बताया ! सिद्धि गुटिका पाकर रत्नसेन सब जोगियों को लिए सिंहलगढ़ पर चढ़ने लगा !
राजा गन्धर्वसेन के यहाँ जब यह खबर पहुँची तब उसने दूत भेजे ! दूतों से जोगी रत्नसेन ने पद्मिनी के पाने का अभिप्राय कहा ! दूत क्रुद्ध होकर लौट गए ! इस बीच हीरामन रत्नसेन का प्रेमसन्देश लेकर पद्मावती के पास गया और पद्मावती का प्रेमभरा सँदेसा आकर उसने रत्नसेन से कहा ! इस सन्देश से रत्नसेन के शरीर में और भी बल आ गया ! गढ़ के भीतर जो अगाध कुण्ड था वह रात को उसमें धँसा और भीतरी द्वार को, जिसमें वज्र के किवाड़ लगे थे, उसने जा खोला ! पर इस बीच सबेरा हो गया और वह अपने साथी जोगियों के सहित घेर लिया गया ! राजा गन्धर्वसेन के यहाँ विचार हुआ कि जोगियों को पकड़कर सूली दे दी जाय ! दल बल के सहित सब सरदारों ने जोगियों पर चढ़ाई की ! अन्त में सब जोगियों सहित रत्नसेन पकड़ा गया !
इधर यह सब समाचार सुन पद्मावती की बुरी दशा हो रही थी ! हीरामन तोते ने जाकर उसे धीरज बँधाया कि रत्नसेन पूर्ण सिद्ध हो गया है, वह मर नहीं सकता !
रत्नसेन को बाँधकर सूली देने के लिए लाए जब इधर सूली की तैयारी हो रहीथी, उधर रत्नसेन पद्मावती का नाम रट रहा था ! महादेव ने जब जोगी पर ऐसा संकट देखा तब वे और पार्वती भाँट भाँटिनी का रूप धरकर वहाँ पहुँचे। ! इस बीच हीरामन सूआ भी रत्नसेन के पास पद्मावती का यह संदेसा लेकर आया कि 'मैं भी हथेली पर प्राण लिए बैठी हूँ, मेरा जीना मरना तुम्हारे साथ है।' भाँट (जो वास्तव में महादेव थे) ने राजा गन्धर्वसेन को बहुत समझाया कि यह जोगी नहीं राजा और तुम्हारी कन्या के योग्य वर है, पर राजा इस पर और भी क्रुद्ध हुआ ! इस बीच जोगियों का दल चारों ओर से लड़ाई के लिए चढ़ा !
महादेव के साथ हनुमान आदि सब देवता जोगियों की सहायता के लिए आ खड़े हुए ! गन्धर्वसेन की सेना के हाथियों का समूह जब आगे बढ़ा तब हनुमानजी ने अपनी लम्बी पूँछ में सबको लपेटकर आकाश में फेंक दिया ! राजा गन्धर्वसेन को फिर महादेव का घण्टाऔर विष्णु का शंख जोगियों की ओर सुनाई पड़ा और साक्षात् शिव युद्धस्थल में दिखाई पड़े ! यह देखते हि गन्धर्वसेन महादेव के चरणों पर जा गिरा और बोला-'कन्या आपकी है, जिसे चाहिए उसे दीजिए' !
इसके उपरान्त हीरामन सूए ने आकर राजा रत्नसेन के चित्तौर से आने का सब वृत्तान्त कह सुनाया और गन्धर्वसेन ने बड़ी धूमधाम से रत्नसेन के साथ पद्मावती का विवाह कर दिया !
पद्मिनी को लेकर समुद्रतट पर जब रत्नसेन आया तब समुद्र याचक का रूप धरकर राजा से दान माँगने आया, पर राजा ने लोभवश उसका तिरस्कार कर दिया !
राजा आधे समुद्र में भी नहीं पहुँचा था कि बड़े जोर का तूफान आया जिससे जहाज दक्खिन लंका की ओर बह गए वहाँ विभीषण का एक राक्षस माँझी मछली मार रहा था ! वह अच्छा आहार देख राजासे आकर बोला कि चलो हम तुम्हें रास्ते पर लगा दें ! राजा उसकी बातों में आ गया ! वह राक्षस सब जहाजों को एक भयंकर समुद्र में ले गया जहाँ से निकलना कठिन था ! जहाज चक्कर खाने लगे और हाथी, घोड़े, मनुष्य आदि डूबने लगे ! इस बीच समुद्र का राजपक्षी वहाँ आ पहुँचा जिसके डैनों का ऐसा घोर शब्द हुआ मानो पहाड़ के शिखर टूट रहे हों ! वह पक्षी उस दुष्ट राक्षस को चंगुल में दबाकर उड़ गया ! जहाज के एक तख्ते पर एक ओर राजा बहा और दूसरे तख्ते पर दूसरी ओर रानी ! पद्मावती बहते बहते वहाँ जा लगी जहाँ समुद्र की कन्या लक्ष्मी अपनी सहेलियों के साथ खेल रही थी ! लक्ष्मी मूर्च्छित पद्मावती को अपने घर ले गयी ! इधर राजा बहते बहते एक ऐसे निर्जन स्थान में पहुँचा जहाँ मूँगों के टीलों के सिवा और कुछ न था !
राजा पद्मिनी के लिए बहुत विलाप करने लगा और कटार लेकर अपने गले में मारना ही चाहता था कि ब्राह्मण का रूप धरकर समुद्र उसके सामने आ खड़ा हुआ और उसे मरने से रोका ! अन्त में समुद्र ने राजा से कहा कि तुम मेरी लाठी पकड़कर ऑंख मूँद लो; मैं तुम्हें जहाँ पद्मावती है उसी तट पर पहुँचा दूँगा !
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खैर दोनों का मिलन हुआ ! बच्चे हुए !
लेकिन असल सवाल तो ये की -
ब्रम्हा, विष्णु, महेश और हनुमान से पर्सनल सेटिंग रखने वाला रत्नसेन, खिलजी से हार कैसे गया ?? इन सब भगवानो की शक्ति समाप्त हो गयी थी क्या ??
या ये सब कोरी गप्प है ?
अब या तो गप्प मानो या फिर ये मानो की सारे भगवान निठल्ले थे जो अपने दोस्त और दोस्त की बीबी यानी पदमिनी भाभी को बचाने भी नहीँ आये !

-गिरिराज वेद जी (अरविन्द राज स्वरूप की वाल से)

Thursday, November 9, 2017

धर्म निरपेक्षता दावं पर : लोकतांत्रिक मूल्य ताक पर

बात दो सहधर्मियों से ही शुरू करते हैं। राजस्थान में सर्वाधिक पाठकों वाले दो अखबार राजस्थान  पत्रिका और दैनिक भास्कर को तटस्थता से लगातार देखने वाले समझते होंगे कि जहां पत्रिका लगातार इस ओर प्रयत्नरत है कि लोकतांत्रिक मूल्य और धर्म निरपेक्षता जैसे संवैधानिक प्रावधानों को प्रतिष्ठ किया जाए- पीछे का मकसद कुछ भी हो, पत्रिका के तेवर आभास यही दे रहे हैं। वहीं दैनिक भास्कर विभिन्न अन्तर्वस्तुओं में पत्रिका से पिछड़ता लग रहा है।
विषयान्तर के साथ एक ताजे उदाहरण में हिन्दी साहित्य की लेखिका कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा की खबर से दोनों अखबारों के अन्तर को समझ सकते हैं। क्योंकि साहित्य और संस्कृति को प्रतिष्ठा देने-दिलाने का काम मीडिया का भी है, दैनिक भास्कर ने साहित्य की इस खबर को ठोक-पीट छोटी कर हाशिये पर लगा दिया। पत्रिका ने ना केवल खबर को ढंग से लगाया बल्कि भीतरी पृष्ठों पर कृष्णा सोबती पर एक फीचर भी लगाया।
लौट आते हैं मुद्दे पर, आज इस पर चर्चा करने की जरूरत इसलिए समझी गई कि राजस्थान पत्रिका के 6 नवम्बर 2017 अंक के दखल कॉलम में गोविन्द चतुर्वेदी का एक अग्रलेख 'विधायक कोष : धर्म नहीं विकास पर खर्च होप्रकाशित हुआ है। देश में धर्म निरपेक्ष मूल्यों के प्रतिकूल साबित होते इस मामले में राजस्थान के सर्वाधिक पाठकों वाले इस अखबार ने सरकार की संविधान के प्रतिकूल उन नीतियों पर अंगुली उठाने का साहस दिखाया जिससे बहुसंख्यक वर्ग का उग्र पाठक असहज हो सकता है। चतुर्वेदी ने राजस्थान सरकार की उस छूट को गलत बताया जिसमें विधायक कोटे से धार्मिक स्थलों पर खर्च करने की छूट दी गई है। जब से सांसद व विधायक विवेक-कोष का प्रावधान किया गया, तब से धार्मिक और निजी काम इस कोष से करवाने की छूट नहीं थी, केवल विकास के काम ही करवाए जा सकते थे।
इस तरह के तुष्टीकरण पर आजादी बाद से ही मीडिया प्रभावी तौर पर आवाज उठाता तो आज बहुसंख्यकों के इस तरह तुष्टीकरण का शासन साहस नहीं कर पाता। यहां एक अन्तर समझना जरूरी है: दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देने और अल्पसंख्यकों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए चलाई जा रही योजनाओं को तुष्टीकरण नहीं कहा जा सकता, इसे सामाजिक समरसता और आर्थिक समानता लाने के उद्देश्य से धर्म निरपेक्ष लोककल्याणकारी शासन के कर्तव्यों में माना जायेगा।
धार्मिक यात्राओं यथा हज यात्रा-तीर्थयात्रा के लिए आर्थिक सहयोग तुष्टीकरण श्रेणी में आयेगा। इसी तरह सरकारी और सार्वजनिक आयोजनों में धार्मिक प्रतीकों की पूजा-प्रतिष्ठा धर्म निरपेक्ष राज्य की अवधारणा के खिलाफ है। आजादी बाद से ना शासन ने और ना ही मीडिया ने कभी इस पर अंगुली उठाई। इस तरह के क्रियाकलापों को नजरअन्दाज करना भी बढ़ावा देने में ही गिना जाएगा। बहुसंख्यकों को दी जाने वाली इस तरह की छूटें प्रकारान्तर से अल्पसंख्यकों और दलितों के मन पर बहुत सूक्ष्म तौर पर असुरक्षा और भय पैदा करती हैं। आजादी बाद देश में और प्रदेशों में अधिकांशत: कांग्रेस का शासन रहा है, इसलिए इस तरह के क्रिया-कलापों के लिए उसे ही ज्यादा जिम्मेदार मानना चाहिए। चूंकि इस पर मीडिया ने कभी प्रभावी हस्तक्षेप नहीं किया अत: मीडिया को भी बरती इस गैर जिम्मेदाराना उपेक्षा से मुक्त नहीं किया जा सकता।
सांसदों और विधायकों के विवेकाधीन कोष को खर्च ना करने पर यदा-कदा खबर छपती रही हैं। लेकिन वे उसे खर्च कहां और किस मकसद से कर रहे हैं इस पर नैतिक-वैधानिक आकलन मीडिया में बहुत कम आता है। देखा गया है कि रस्ते-गलियां निकालकर जाति-समुदायविशेष के श्मशानों-कब्रिस्तानों और भवनों के निर्माण में विधायक-सांसद कोटे का दुरुपयोग होता रहा है। यह शोध का विषय हो सकता है कि समाज या समुदायविशेष के लिए इस तरह लगाए जाने वाले धन का लाभ क्या चुनावों में संबंधित सांसद-विधायक को होता है? क्योंकि इस तरह के कार्य इसी मकसद से करवाए जाते हैं। पड़ताल की जाए तो इस तरह के प्रलोभनों से वोटों पर कोई खास असर नहीं होता पाया जायेगा।
असल में विधायक और सांसद कोटे का उपयोग वहां होना चाहिए जहां आमजन को विशेष जरूरत हो और जो जरूरतें सरकारी-योजनाओं और बजट के अभाव में कई बार पूरी नहीं हो पाती या उनके पूरा होने में देर लगने की आशंका हो। होना यह चाहिए कि सार्वजनिक सुविधाओं यथा शौचालय, मूत्रालय, कई हिस्सों में जरूरी नालियां, डिस्पेंसरी-स्कूलों की छोटी-मोटी जरूरतें, कमजोर वर्ग के अविकसित मोहल्लों में न्यूनतम सुविधाएं विकसित करने, गांव है तो गांव के दूर से निकलने वाली सड़कों के किनारे विश्रामालय आदि-आदि की सुविधाओं को विकसित करने में इस धन का सदुपयोग हो।
नये प्रावधानों में सरकार ने उन धार्मिक स्थलों को विकसित करने की छूट दे दी जिनके पास वैसे ही वैध-अवैध धन प्रचुर मात्रा में आता है। अनुमान है कि देश के धार्मिक स्थलों में पहले से इतनी धन-सपत्ति निष्क्रिय तौर पर संचित है जिससे देश की अर्थव्यवस्था में भारी सुधार हो सकता है। इन्हीं सब के मद्देनजर गोविन्द चतुर्वेदी का उक्त उल्लेखित अग्रलेख विशेष है।
दीपचन्द सांखला

8 नवम्बर, 2017

Thursday, November 2, 2017

पत्रकारीय पेशे पर संकट

पत्रकारिता के बेहतरीन दिनों का भी मैं साक्षी रहा हूं। अधिकतर लोग पत्रकारिता के पेशे में इसलिए आते थे कि वे अपनी कलम के माध्यम से एक बेहतर समाज की रचना में भागीदार बनना चाहते थे। सत्यनिष्ठा और संघर्षशीलता पत्रकारिता के अनिवार्य गुण होते थे। इस अंग में समय के साथ जो गिरावट आई उसे भी लगातार देख रहा हूं, लेकिन फिर यह भी कल्पना से परे था कि पत्रकारिता कहां से कहां पहुंच जाएगी।
उक्त कथन छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार ललित सुरजन के उस सम्पादकीय का हिस्सा है, जो उन्होंने 31 अक्टूबर, 2017 के अपने अखबार 'देशबन्धु' के लिए लिखा। सन्दर्भ छत्तीसगढ़ के ही पत्रकार विनोद वर्मा की गिरफ्तारी का है। छत्तीसगढ़ सरकार में मंत्री राजेश मूणत से संबंधित बताई जा रही सीडी के आधार पर वर्मा को भयादोहन का आरोपी बनाया गया है। किसी महिला के साथ अंतरंग क्षणों की इस वीडियो क्लीपिंग के सही-गलत की जांच अभी होनी है। ठीक इसी तरह सीडी के माध्यम से विनोद वर्मा पर भयादोहन का आरोप भी अभी साबित होना है। लेकिन पूरे घटनाक्रम को देखा-समझा जाए तो छत्तीसगढ़ शासन की मंशा और नीयत संदेह के घेरे में है। विनोद वर्मा को जिन धाराओं में हिरासत में लिया गया और फिर अस्वस्थता के बावजूद जिस तरह गाजियाबाद से उन्हें रायपुर ले जाया गया, उसका मकसद उन पत्रकारीय पेशेवरों को सबक देना भी है, जो हाल तक रीढ़ सीधी रखे हुए हैं, अन्यथा आज के अधिकांश मीडिया और पत्रकार अपने मालिकों के और अपने हितसाधक हो चुके हैं, ऐसों के लिए सूचना प्रसारण मंत्री की हैसियत से 1977 में दिया लालकृष्ण आडवाणी का वह कथन याद आता है जिसमें आपातकाल का जिक्र करते हुए उन्होंने पत्रकारों को उलाहना दिया कि 'आपको झुकने के लिए कहा गया, लेकिन आप तो रेंगने ही लग गये।'
छत्तीसगढ़ की उक्त घटना और हाल ही में राजस्थान विधानसभा में रखा गया दण्ड विधियां (राजस्थान संशोधन) विधेयक 2017, जिसमें मीडिया को भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों से संबंधित खबर प्रसारित करने पर सजा का प्रावधान किया गया है। राजस्थान के लुंज-पुंज विपक्ष, मानिकचंद सुराना और घनश्याम तिवाड़ी द्वारा विधानसभा में इस विधेयक के प्रति प्रभावी असहमति और कुछ मीडिया घरानों के भारी विरोध (जिसमें राजस्थान पत्रिका का विरोध विशेष उल्लेख्य है) के बाद सरकार सहम गई और विधेयक को प्रवर समिति को सौंप दिया, इसे दूसरे तरह से ठण्डे बस्ते में डाला जाना ही कहा जा सकता है। लेकिन आश्चर्य यह भी है कि इस विधेयक का मुखर विरोध तब क्यों नहीं हुआ जब कुछ माह पूर्व अध्यादेश के माध्यम से इसे सूबे पर थोप दिया गया था। खैर, देर आयद-दुरस्त आयद, कि गलत का विरोध जब भी हुआ तभी ठीक है। हो सकता है सरकार ने सबक लेकर इस अध्यादेश को उसके नियत समय पर अपनी मौत मरने को छोड़ दिया हो।
राजस्थान पत्रिका में गुलाब कोठारी के नाम से एक नवम्बर, 2017 को प्रकाशित अग्रलेख में यह घोषणा जिसमें कहा गया है कि जब तक सरकार उस काले कानून को वापस नहीं लेगी तब तक उनका अखबार मुख्यमंत्री वसुंधरा और उनसे संबंधित समाचारों को प्रकाशित नहीं करेगा, यह निर्णय भी एक दूसरी तरह की अति को ही जाहिर कर रहा है। पत्रिका का एक पाठक वर्ग है और जो अखबार वह खरीद रहा है उससे सूबे से संबंधित सभी तरह के समाचारों से रू-बरू होने का उसका हक भी है। दरअसल जो हमेशा तटस्थ नहीं रह पाते, वही इस तरह के अतिश्योक्तिपूर्ण निर्णय करते हैं। अशोक गहलोत के प्रथम मुख्यमंत्री काल में निहायत व्यक्तिगत कारणों से ऐसा ही अघोषित-सा निर्णय सूबे के दूसरे बड़े अखबार ने गहलोत के लिए किया था, जो थोड़े दिनों बाद स्वत: हांफने लगा था।
पूर्व में पत्रकारीय पेशे के जिस संकट से बात शुरू की वह इन तात्कालिक दोनों बड़े संकटों से बड़ा संकट है। अधिकांश मीडिया हाउसेज कोरे धंधेबाज हो गये हैं। उन्हें पत्रकार, सम्पादक के रूप में अपना हित साधक चाहिए, इसकी एवज में पत्रकार संपादक चाहें तो अपने सीमित हित भी साध सकते हैं। इस पेशे में यह जो गैर-पेशेवरा मूल्यहीनता का खेल शुरू हुआ, वह ज्यादा गंभीर बात है। पत्रकारों में आत्मसम्मान का बोध सिरे से गायब हो रहा है और हर जगह हेकड़ी अपना स्थान लगातार बनाती जा रही है। शासक, राजनेता और कॉरपोरेट घरानों को किसी पत्रकार का आत्मसम्मान जहां असहज कर देता है वहीं कोरे हेकड़ीबाज पत्रकार को सहलाना उनके लिए ज्यादा आसान होता है। आत्मसम्मान और हेकड़ी में अन्तर की समझ बिना विवेक के संभव नहीं, यह सब पेशेवर मूल्यों की गहरी समझ की मांग करता है जो पत्रकारों-सम्पादकों में लगभग नदारद होती जा रही है।
राजस्थान सरकार का मीडिया पर अंकुश लगाने के मकसद से लाया गया अध्यादेश हो या छत्तीसगढ़ सरकार की पत्रकार विनोद वर्मा पर कार्यवाही-दोनों ही प्रकरण इस पेशे में बढ़ती रेंगने की प्रवृत्ति से प्रेरित हैं। पत्रकार बजाय हेकड़ी के अपना आत्मसम्मान सहेजे रखें तो धनबल और सत्ताबल कभी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकेंगे।
दीपचन्द सांखला

2 नवम्बर, 2017