Tuesday, October 30, 2018

बीकानेर शहर कांग्रेस (6 दिसंबर, 2011)

बीकानेर शहर कांग्रेस अध्यक्ष के मनोनयन की गुत्थी सुलझ नहीं रही है। दूध के जले कल्ला बन्धु किसी भी तरह की रिस्क नहीं लेना चाहते। एक बार पार्टी से निष्कासन की पीड़ा भोग चुके बीडी कल्ला और उनके अग्रज शहर कांग्रेस अध्यक्ष जनार्दन कल्ला इस जुगत में हैं कि पार्टी का चरित्र डागा चौक कांग्रेस का ही बना रहे। इसीलिए वे इस ताबड़तोड़ कोशिश में भी हैं कि उनका कोई पारिवारिक या दरबारी यूआईटी का चेयरमैन भले ही ना बने पर शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद पर उनके परिवार के या किसी विश्वस्त दरबारी का ही मनोनयन हो। इसके लिए जितने मुस्तैद कल्ला बन्धु हैं, उतने सक्रिय दूसरे गुट के नेता शायद अब नहीं हैं। यही कारण है कि दूसरे गुट द्वारा अध्यक्ष पद के लिए अपने व्यक्तियों का नाम एक से अधिक बार लगभग तय करवा चुकने के बाद भी घोषणा नहीं करवा सके।
कल्ला बन्धु अगले विधानसभा चुनावों में बीकानेर शहर की दोनों सीटों के उम्मीदवारों के पैनल बनाने का काम किसी भी स्थिति में किसी और के हाथों में नहीं आने देना चाहते। 1998 के चुनावों से पहले बीडी कल्ला का पार्टी से निष्कासन और 1998 के उम्मीदवारों की सूची में नाम तक न होने की पीड़ा वो कभी भूल नहीं सकते!
2008 का चुनाव तो परिसीमन के बाद का पहला चुनाव था और उस चुनाव की सभी रीति-नीति वही थी जो उससे पहले के चुनावों में रही है। लेकिन 2013 के चुनावों से जातिय परिदृश्य बदलने के संकेत दिखने लगे हैं। जरूरत उसे भुनाने वालों की है। इन बदलती दिखती परिस्थितियों को कांग्रेस को समझना होगा और कल्ला बंधुओं को भी। आगामी दो वर्षों में यदि कोई नये समीकरण बनते हैं और कल्ला बन्धुओं को यह पूर्वाभास हो जाये कि वो चुनाव हरगिज नहीं जीत सकते तो यह तय है कि बीडी कल्ला हारने के लिए अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे। ठीक अपने बहनोई गोपाल जोशी की तरह। आपातकाल के बाद हुए विधानसभा चुनावों में विधायक होते हुए भी दिखती हार के चलते गोपाल जोशी ने चुनाव नहीं लड़ा। उस समय के अपने गलत निर्णय को जोशी आज तक भुगत रहे हैं। लेकिन 1977 और 2013 की स्थितियों में बहुत अंतर है। उम्मीद है कल्ला बन्धु इसे बखूबी समझते होंगे।
--दीपचंद सांखला
6 दिसंबर, 2011

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