Thursday, October 11, 2018

शुभू पटवा : अब जब वे नहीं रहे

कुछ संकल्प थे, कुछ जिदें थीं, जीने के कुछ तौर-तरीके ऐसे जो दूसरों को अटपटे लगे, इन्हीं सब के चलते कुछ उनसे प्रभावित होते, कुछ स्नेह करते, कुछ मान देते तो कुछ खीजते भी लेकिन चालीस वर्षों में यही देखा कि शुभू पटवा खुद ज्यों-के-त्यों ही रहे। जिनसे वे स्नेह करते उनके लिए 'गवाह चुश्त मुद्दई सुस्त' की हद तक भी कुछ करने को तत्पर रहते। जिनसे अड़ गए तो समझो अंगद का पांव।
पेशे से पत्रकार थे, आजीवन वही बने रहे, लेकिन अपनी शर्तों पर, यह भी कह सकते हैं कि अपनी जिद के साथ आजीविका चलाई। वर्षों साप्ताहिक अखबार निकालाजब तक चलाया 'सप्ताहांत' नाम के इस अखबार को पेशेवराना अन्दाज से चलाया, अखबार की प्रतिष्ठा भी थी। संसद सदस्य और पूर्व महाराजा डॉ. करणीसिंह के साप्ताहिक 'सत्य विचार' का सम्पादन किया वह भी अपने ठसके के साथ।
तेरापंथ धर्मसंघ की मुख-पत्रिका 'जैन भारती' का संपादन लम्बे समय तक ऐसी तार्किकता के साथ किया कि कुछ तेरापंथ धर्मावलंबी ये कहकर एतराज जताने लगे कि ये पत्रिका तो कम्यूनिस्टों की पत्रिका हो गई! वहीं दूसरी ओर देश के कई नामी विचारक व चिंतक धर्मसंघ की इस पत्रिका के ना केवल नियमित पाठक हो गये बल्कि वे अपने विचारोत्तेजक लेख भी जैन भारती को भेजने लगे। पटवा के जीवन में और भी अवसर कम नहीं आएदिल्ली से निकलने वाले नवभारत टाइम्स और जयपुर से निकलने वाले राजस्थान पत्रिका के प्रबंधकों ने उन्हें कई बार टटोला, लेकिन पटवा को लगता था कि दोनों के ही प्रबंधन उन्हें निभा नहीं पाएंगे! तब के ऐसे दुर्लभ अवसरों को भी पटवा ने अपने मित्रों को आश्चर्य में डालते हुए अस्वीकार कर दिया।
आकाशवाणी के लिए समाचार संप्रेषण का काम तीन दशकों से ज्यादा समय तक किया, जनसत्ता से लम्बे समय तक जुड़े रहे लेकिन अपने तौर-तरीकों के साथ। संपादकों, अधिकारियों और प्रबंधकों ने उन्हें निभाया भी खूब। अब ना वैसे संपादक रहे, ना अधिकारी और ना ही प्रबंधक। अब शुभू पटवा भी कहां रहे हैं।
अपने गांव भीनासर पर गर्व इतना करते कि कवि चिंतक नंदकिशोर आचार्य यह व्यंग्य करने से भी नहीं चूकते कि 'शुभजी का बस चले तो भीनासर को संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता दिलवा दें।' उसी भीनासर गांव की लम्बी-चौड़ी गोचर भूमि पर कब्जे होने लगे तो एक्टिविस्ट बन मैदान में उतरने से भी वे नहीं झिझके। भीनासर आंदोलन नाम से प्रसिद्धि पाए उनके इस मूवमेंट को राष्ट्रव्यापी ख्याति तो मिली ही उनकी पहचान भी एक पर्यावरणविद् के रूप में हो गई। उनकी दो पुस्तकें 'पर्यावरण की संस्कृति' और 'छोटे गांव की बड़ी बात' उनके इसी आंदोलन की उपज थी।
स्नेही और स्वजनों की हारी-बीमारी और तकलीफों के समय शुभू पटवा छाया बन यूं लग जाते जैसे वे ही उनके अभिभावक हों, लेकिन हारी-बीमारी जब खुद पे आ जाए तो ऐसी भूमिका उनके लिए कोई निभाएऐसा अवसर जहां तक हो वे नहीं देते, अभी लम्बे समय तक अस्वस्थ रहे तब भी खुद का जैसा अभिभावकी अवसर किसी अन्य को उन्होंने तब तक नहीं दिया जब तक परवश नहीं हो गए।
अपने सार्वजनिक जीवन में वे कई संस्थाओं से जुड़े रहे, खासकर बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति, बीकानेर और राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, जयपुर से। उनके काम की छाप पर दूसरी कोई छाप मुश्किल है। फिर वही बातअब जब शुभू पटवा नहीं हैं तो संस्थाए भी वैसी कहां रह गई है।
अब जब शुभू पटवा नहीं रहे तो उक्तलिखित सकारात्मक-नकारात्मक सभी उल्लेखितों के अलावा उनकी तरफ से भीजो ये मानते हैं कि पटवा को नमन उनकी तरफ से भी होंउन सब की ओर से भी शुभू पटवा को अन्तिम प्रणाम।
—दीपचन्द सांखला
11 अक्टूबर, 2018

No comments: