Thursday, October 25, 2018

सुर्खियों में न्यायपालिका : संदर्भ 2002 का गुजरात नरसंहार (10 नवंबर, 2011)

अखबारों और टीवी की ज्यादातर सुर्खियां आजकल न्यायपालिका से संबंधित होती हैं। कल ही 2002 में गुजरात के सरदारपुरा में एक घर को लाक्षागृह बना दिये जाने की घटना पर फैसला आया है। आजादी के बाद अपने देश में दो बड़े जघन्य नरसंहार हुए हैं। इन्दिरा गांधी की हत्या के तुरन्त बाद देश के कई हिस्सों में पगड़ीधारी सिक्खों का कत्लेआम और दूसरा गोधरा कांड के बाद गुजरात में अनेक जगह मुसलमानों को बदले के लिए कबिलाई तरीके से मारा जाना।
देश के लिए शर्मनाक इन दोनों ही संहारों को भुक्तभोगियों और चश्मदीदों के बयानों और नजरिये से देखें तो दोनों ही सत्तासीनों से प्रेरित और प्रायोजित पाए जाते हैं। अदालतों और अन्य प्रमाणों से बाद में यह नजरिया और बयान पुष्ट भी हुए हैं।
1984 के दंगों पर तो कांग्रेस के नियन्ताओं ने अलग-अलग और अधिकृत तौर पर माफी भी मांगी है और मौके-बेमौके उसे बड़ी भूल बताने से भी नहीं चूके हैं। तब भी दोषियों का दोष कम नहीं माना जा सकता। इसी का ही प्रमाण है कि चाहे बेहद धीमी गति से ही सही आज पच्चीस साल बाद भी कांग्रेस के छुटभैयों से लेकर बड़े-बड़े नेताओं तक पर सजा का साया हटता नहीं दीखता है।
गुजरात का मामला थोड़ा दूसरे प्रकार का है। खुद मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर गुजरात दंगों को शुरू करवाने और फिर होने देने के आरोप कई प्रमाणों के साथ लगते रहे हैं। इन सबके बावजूद मोदी के चेहरे पर अजब की ढिठाई देखी जा सकती है। मोदी के निर्दोष होने के बड़े प्रमाण के रूप में उनके और उनके नेतृत्व में पार्टी के बार-बार चुनाव जीतने को पेश किया जाता है।
यदि निर्दोष साबित होने की एकमात्र कसौटी चुनावों को ही मान लिया जाय तो फिर न्यायपालिका की जरूरत ही क्या है। दुनिया के बड़े तानाशाह माने जाने वाले हिटलर भी भारी मतों से चुनाव जीत कर ही शासक बने थे।
सजा सुनने पर सरदारपुरा दंगे के सज़ा पाने वालों के रुलाई के फोटो छपे हैं। एक घर में घेर कर और पेट्रोल डालकर आग के हवाले किये गये 33 लोगों के चेहरों को वो सजा पाये लोग काश इस समय याद कर पाते। उन तैतीस में 11 बच्चे और 20 महिलाएं थीं।
आरोपप्रूफ और सजाप्रूफ होने का भ्रम
कुछ वस्तुओं के वाटरप्रूफ, करंटप्रूफ और हीटप्रूफ होने की तर्ज पर अपने देश में अब तक माना जाता था कि प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी और उनके ठीक बाद के अधीनस्थ अधिकारी भी आरोपप्रूफ या सजाप्रूफ होते हैं। न्यायपालिका की सक्रियता के चलते यह भ्रम टूटने लगा है।
--दीपचंद सांखला
10 नवंबर, 2011

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