Friday, October 26, 2018

शाकाहार बनाम मांसाहार


बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी’--उत्तर भारत में या कहें पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी यह कहावत आम है--इसका एक उत्तर यह हो सकता हैबकर ईद तक तो मना ही सकती है’--फिर उसकी कुर्बानी तय है| हमारे भू-भाग में इस वर्ष यह त्योहार कल शनिवार को मनाया जायेगा--इसे मनाने वाले सभी उत्सवी-जनों को बधाई|

पूरे विश्व में खान-पान के हिसाब से मोटा मोट दो वर्गीकरण हैं--शाकाहार और मांसाहार| विश्वव की कुल आबादी का कितना हिस्सा मांसाहारी है और कितना शाकाहारी--इस सम्बन्ध में दावे-प्रतिदावे अलग-अलग हैं| ठीक-ठीक और ठरके से कहना मुश्किल है कि मनुष्य अपने उद्भव और विकास के समय शाकाहारी था या मांसाहारी| हो सकता है मनुष्य पहले उभयाहारी रहा हो और फिर धीरे-धीरे अपनी पसंद-नापसन्दगी के चलते-चलाते अपने-अपने बाड़े बना लिए हों| मांसाहारियों को इस तर्क-वितर्क में पड़ते कम ही देखा है कि मांसाहार श्रेष्ठ है या हेय| लेकिन शाकाहार के कई अभियान पूरे विश्व में सक्रिय देखे गये हैं| उनके अपने तर्क हैं--सुनो तो एकबारगी अपने को सहमत होने से नहीं रोक पाएंगे--लेकिन मन में उन तर्कों का जैसे ही मुकाबला करेंगे तो सहमति काफूर होती लगेगी|

खान-पान का सम्बन्ध वैसे धर्म विशेष से नहीं माना गया है--किसी धर्म की कोई विशेष धारा जिस खाने को वर्जित मानती है--उसी धर्म की दूसरी धारा इस तरह की वर्जनाओं में विश्वास नहीं रखती--भारतीय सनातन परम्परा में आपद्धर्म की अवधारणा भी है| जिसमें संकट के समय वह सब करने की छूट है जो अन्यथा खुद के कायदों में नहीं आता हो| विशेष परिस्थितियों में नियम-कायदों में छूट का यह प्रावधान इस शर्त के साथ है कि मजबूरी की उन परिस्थितियों से निकलते ही आपद्धर्म का त्याग करना होगा|

खान-पान, रहन-सहन को धर्म, सम्प्रदाय या जाति समुदायों से जोड़ना उचित नहीं लगता--लेकिन सदियों से ऐसा फिर भी होता आया है--जिसके चलते समाज में अकसर बदमजगियां होती हैं, जिससे बचा जा सकता है| सामान्यतः यह माना गया है ब्राह्मण वर्ण ने खान-पान में कुछ ज्यादा ही वर्जनाएं पाल रखी हैं--लेकिन ठीक इसके विपरीत यह कहा जाता है कि कश्मीरी पंडितों के यहां मांसाहार की वर्जना नहीं है| इसी तरह बंगाली किसी भी जाति या वर्ण का हो मछली उनका प्रिय खाद्य होता है--इसे यूं भी कहा जाता है कि बंगाली मछली को जलतुरही ही मानते हैं| सर्व शुद्ध शाकाहारियों से मजाक में मनुहार यह भी होती है किआप मटन खा सकते हैं, इसमें लहसुन प्याज नहीं डाला गया है|’

मांसाहार को मुसलमानों का प्रतीक खाद्य माना जाता है लेकिन कुछ ऐसे मुसलमान भी मिल जायेंगे जो शुद्ध शाकाहारी होते हैं| यह भी होता है कि जिस खाद्य को आपने कभी नहीं खाया है और जिसके सम्बन्ध में आपके पारिवारिक-सामाजिक माहौल में सकारात्मक बातचीत नहीं होती है उसे आप रुचि से खा नहीं पाते हैं--यदि कोई कभी खा भी ले तो उसका मन लम्बे समय तक खाए को स्वीकार नहीं कर पाता है| यह कहावत शायद इसीलिए बनी हैभोळे बामण भेड़ खाई--भळे खावै तो राम दुहाई|’

इस हथाई का मकसद इतना भर है कि कौन क्या खाता-पहनता है इस पर एतराज जायज नहीं है| आप सिर्फ अपना तय करें कि क्या खाना है और क्या नहीं खाना है| इसके लिए तर्क-वितर्क में पड़ने की जरूरत नहीं समझी जानी चाहिए| दूसरों की पसन्द-नापसन्द का सम्मान करना ज्यादा जरूरी है| इस सम्बन्ध में एक स्थानीय उदाहरण मोजूं होगा जो ईदुज्जुहा से ही सम्बन्धित है, शहर के एक नामी डॉक्टर हैं--मोहम्मद साबिर| वह अपने घर बकरईद पर कुर्बानी इसलिए नहीं करते कि ईद के दिन उन्हें मुबारकबाद देने आने वालों में उनके बहुत से निकटस्थ मित्र शुद्ध शाकाहारी होते हैं| उन्हें लगता है यदि इस दिन उनके घर में मांसाहार पकाया जायेगा तो उनके यहां आने वालों को शाकाहारी खान-पान में भी असुविधा होगी| वे मजाक में कहते भी हैं कि मेरे यहां आने वालों में कुछेक तो ज्यादा ही ‘खोड़ीलेहैं| उनकी यह संजीदगी उल्लेखनीय है--अपने यहां कुर्बानी का प्रसाद वे बकरईद के दूसरे दिन करते हैं|

--दीपचंद सांखला
26 अक्टूबर, 2012

1 comment:

Kajal Kumar said...

मोहम्मद साबिर को सलाम.