मुरलीधर व्यास के बारे में कहा जाता है कि वह सुबह जब घर से निकलते थे तब अधिकतर न तो उनका गन्तव्य तय होता था और न ही रास्ता। वाहन भी तय नहीं होता था और घर लौटने का समय भी नहीं। जहां, जिसको अपने काम को आवाज और बल देने की जरूरत होती वह मुरलीधर को थाम लेता। मुरलीधर उसी के साथ हो लेते। आम आदमी की मुरलीधर तक इसी पहुंच ने सन् 1957 के विधानसभा चुनावों में उन्हें विधायक बना दिया। इस चुनाव में मुरलीधर को अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के उम्मीदवार अहमदबक्स सिन्धी (5,419) से डबल से ज्यादा (12,089) वोट मिले। इसी चुनाव में जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में शेरे चांदजी को मात्र 1,202 वोट ही मिले, वे चौथे नं. पर थे।
सन् 1957 के चुनावों में मुरलीधर व्यास की इस सफलता का नतीजा यह हुआ कि मुरलीधर के समर्थकों के समूह में से एक गुट मुरलीधर के भक्तों का तैयार होने लगा। भक्तों के इस गुट की आस्था विचार से ज्यादा व्यक्ति में बनने लगी थी-मुरलीधर भी भक्ति भाव का सुख लेने लगे थे-यह बात 1962 के चुनावों से पहले और बाद की उन दो घटनाओं से पुष्ट होती है जो व्यासजी के भक्तों के गुट द्वारा अंजाम दी गई। घटनाएं यह भी बताती हैं कि व्यासजी की इन घटनाओं के साथ न केवल मौन स्वीकृति थी बल्कि व्यासजी की भागीदारी भी थी। पहली घटना तो यह है कि 1962 के विधानसभा चुनावों के दौरान प्रजा समाजवादी पार्टी की 8 फरवरी 1962 को सोनगिरी कुएं पर आमसभा थी-पार्टी के ही वरिष्ठ नेता सत्यनारायण पारीक के साथ मंच पर व्यासजी के भक्तों द्वारा बदमजगी इसलिए की गई कि पार्टी के अंदरूनी मसलों पर पारीकजी के मुरलीधर व्यास के साथ मतभेद थे। इस घटना की शहर में अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई। व्यासजी यह चुनाव जीत गये थे लेकिन यह जीत 1957 जैसी नहीं थी-कांग्रेस के उम्मीदवार मूलचन्द पारीक (9,673) से मात्र 2,052 वोटों से वे जीत पाये।
सन् 1962 के इस चुनाव में बीकानेर (पश्चिम) के वर्तमान विधायक गोपाल जोशी भी निर्दलीय प्रत्याशी थे-तब जोशी 25 साल के युवा थे-उनके साथ मनीषी डॉ. छगन मोहता और वरिष्ठ पत्रकार जे. बगरहट्टा जैसे लोग थे-इनके भाषणों से सभाएं जमती थी-तब के चुनावों में आम सभाओं का बड़ा महत्त्व माना जाता था। जोशी ने इस चुनाव में बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन फिर भी सम्मानजनक 3,508 वोट प्राप्त किये-इसे सम्मानजनक इसलिए कहा कि इसी चुनाव में जनसंघ के जेठमल आचार्य मात्र 1,265 वोट ही ले पाये थे। जोशी को मिले यह वोट शायद मुरलीधर के भक्तों से निगले नहीं गये-उन्हें यह भी लगा कि पुष्करणों में यह चुनौती क्यों खड़ी हो रही है-व्यास का विजयी जुलूस निकला-व्यासजी घोड़े पर थे (गोपाल जोशी का चुनाव चिह्न घोड़ा ही था) जुलूस को साले की होली स्थित गोपाल जोशी के घर के आगे ले जाया गया और कहा जाता है कि व्यासजी के भक्तों ने वहां बरातियों की भांति धमा-चौकड़ी लगाई। व्यासजी के भक्त गुट की यह दूसरी घटना थी। कहते हैं यह दो घटनाएं भी 1967 में व्यासजी की चुनावी हार का कारण बनी।
—दीपचन्द सांखला
31 मई, 2012
No comments:
Post a Comment