Friday, July 21, 2023

राजेश खन्ना के बहाने

 'मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने....' राजेश खन्ना की फिल्म आनन्द का यह गाना पिछली सदी के आठवें दशक में काफी लोकप्रिय हुआ था। लेकिन आश्चर्य है कि कल जब खन्ना के निधन पर टीवी और सोशल साइट्स पर फीचर और कार्यक्रम आने शुरू हुए तो इस गाने का उल्लेख देखा-सुना नहीं गया। आज के अखबारों में भी इस गाने का जिक्र नहीं है। आज के अखबारों में एक संयम और देखने को मिला कि जिस तरह देवानन्द के निधन पर अखबारों ने उसकी फर्स्ट लीड लगाई थी, वैसा इस बार नहीं देखा गया। शायद ऐसा इसलिए हुआ कि तब भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्केण्डय काटजू ने देवानन्द की मृत्यु की खबर को फस्र्ट लीड में लगाने की आलोचना की थी। दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है उस दिन समाचार पत्रों के पास फस्र्ट या सेकंड लीड लगाने को कुछ और होगा ही नहीं।

बात हम सात रंग के सपने चुनने की कर रहे थे-यह भी कि सपनों को चुनने की बात करना भी क्या किसी सपने से कम है! लेकिन पिछली सदी के आठवें दशक के पूर्वाद्ध का वह भारतीय मन जो शहरों और कस्बों में बसता था वह राजेश खन्ना की फिल्मों के नायक की तर्ज पर सपने देखने को आतुर लगा।

आजादी के आन्दोलनों में गांधी के त्याग के संदेशों का असर आजादी के बाद के बीस सालों तक देखा गया जब हिन्दी फिल्मों में दिलीपकुमार, राज कपूर जैसे नायक-नायिका को अपने प्यार को कुर्बान करते या प्यार के लिए अपने को कुर्बान होते दिखाया जाता था। देश में वह नेहरू का युग था, शायद इसीलिए त्याग के साथ-साथ फिल्मों में कुछ रोमांस का दौर भी शुरू हुआ। इसके अग्रणी बनने वालों में देवानन्द, शम्मी कपूर का उल्लेख किया जा सकता है। वैसे भारतीय फिल्में हाल तक रहीं नायक प्रधान ही है।

शास्त्रीजी के निधन के बाद इंदिरा गांधी का युग शुरू हुआ। हिन्दी फिल्मों में राजेश खन्ना का आगमन भी तभी का है। भारतीय सिनेमा के नायक की छवि अच्छे और भले इंसान के साथ-साथ प्रफुल्लता से जीने वाले की बनी। इंदिरा गांधी ने भी समाजवाद और गरीबी हटाओ जैसे नारों के साथ सपने दिखाये-जो बहुत-थोड़े समय में ही टूटते भी दिखाई दिए। सन् 1974 तक आते-आते बिहार और गुजरात का असंतोष पूरे देश में फैलने लगा।

ठीक इसी प्रकार जब राजेश खन्ना ने 1973 में डिम्पल से शादी कर ली तो एक तरफ तो उन सब युवतियों के सपने तड़क गये जो उन्हें चाहती थीं दूसरी ओर अंजु महेन्द्रू से अपने रिश्ते को अचानक खत्म कर देने के चलते भी राजेश खन्ना की भले आदमी की छवि भंग होनी शुरू हुई। बाद में डिम्पल कपाडिय़ा के साथ उनके द्वारा अच्छा व्यवहार न करने की खबरों ने भी राजेश के प्रशंसकों को हिला दिया था। यह वही समय था जब हिन्दी में कई फिल्मी पत्र-पत्रिकाएं निकलने लगी। फिल्मी गॉसिप की शुरुआत का समय भी लगभग यही माना जाता है। राजेश खन्ना की लोकप्रियता पर तब का लगा ग्रहण कभी नहीं उतरा। कल जो भी सुर्खियां उन्हें मिली वे उनके अच्छे दौर के बदौलत ही थीं।

उधर 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनावों में जनता ने जो जनता पार्टी की सरकार से उम्मीदें बांधी वह भी जल्द टूट गईं। जनता को उसी इंदिरा गांधी को वापस चुनना पड़ा। शायद इसी रोष को अभिव्यक्त करने के चलते लोगों ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंगमैन के रूप में स्वीकार किया जो अन्याय होते नहीं देख सकता था।

आज की फिल्में उक्त सभी युगों से मोहभंग की फिल्में हैं जो किसी भी यथार्थ से, रोमांस और विद्रोह से परे मोहभंग को अराजक रूप में अभिव्यक्त करती हैं। इसीलिए शायद आज वही फिल्में सफल हैं जिनकी कथा में कोई तारतम्य नहीं, ²श्यों में कोई लॉजिक नहीं और जीवन में कोई आदर्श नहीं।

छोटी बातें, छोटी-छोटी बातों की हैं यादें बड़ी....

—दीपचन्द सांखला

19 जुलाई, 2012

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