Monday, July 17, 2023

फादर्स डे के बहाने

 कल 17 जून को 'फादर्स डे' यानी पिता दिवस था और बहुत से बेटे-बेटियों ने मीडिया के माध्यम से अपने-अपने पिताओं के बखान भी किये हैं।

अपने 'स्त्री की स्थिति' टीप में उस अठारह वर्षीय शादीशुदा युवती के बहाने बात की थी जिसने अपने पर केरोसिन छिड़क कर आग के हवाले इसलिए कर दिया था कि कोई अन्य युवक बहला-फुसला कर पहले तो ले गया और कुछ दिन बाद कह दिया कि अपने घर लौट जा।

कल की एक खबर है जिसमें एक पिता ने अपनी 18 वर्षीय बेटी का सर पहले तलवार से धड़ से अलग किया और फिर एक हाथ में तलवार और दूसरे में बेटी का सर पकड़े थाने पहुंच गया। इस अठारह साल की युवती के बारे में कहा जाता है कि उसके 'संदिग्ध' चरित्र के चलते ससुरालियों ने उसे दो साल पहले निकाल दिया था और तभी से वह अपने पीहर रह रही थी और खबर में यह भी बताया गया है कि वह अपने पीहर में भी 'सिचली' नहीं थी। इस खबर से यह जाहिर होता है कि इस युवती की शादी सोलह से भी कम उम्र में कर दी गई थी।

कल की इस घटना के पिता जिस समाज-समूह से आते हैं उसे और उसकी बेटी को शायद ही यह भान होगा कि आज 'फादर्स डे' है, पिता पर यही जुनून सवार होगा कि वह एक खान में मजदूरी करता है और घर-परिवार के पालन-पोषण में बेटी की परेशानी बाधा बन रही है, क्यों न इस बाधा को ही खत्म कर दूं। समाज के भी अधिकतर लोगों की सहानुभूति पिता के साथ हो ली होगी—लेकिन इस तरह की वारदातों पर समाज जिन कारणों के चलते सहानुभूति दिखाता है वह ठीक नहीं है। इस घटना पर अधिकतर की यही प्रतिक्रिया होगी कि 'छिनाल' बेटी के कारण पिता को ऐसा करना पड़ा। जबकि इस पिता के साथ सहानुभूति इसलिए होनी चाहिए कि हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने उस युवती को नादानी में फुसलाया होगा और उसे 'बेरास्ता' किया होगा। इस तरह की घटनाओं में केवल स्त्री को ही दोषी मानना सही नहीं है। जबकि उक्त घटना की शिकार के बारे में जैसा कहा जा रहा है, उस तरह से उसे जब 'बेरास्ता' किया गया तब वह किशोरी ही थी। असल दोषी तो वही व्यक्ति और लोग होंगे जिन्होंने मासूम को पहले-पहल बरगलाया होगा।

क्या समाज इस घटना पर इस तरह भी विचार करेगा कि लंपटाई के चलते एक परिवार का ताना-बाना तो क्या सबकुछ ही उजड़ गया। 'स्त्री की स्थिति' टीप के एक अंश को यहां उद्धृत करना जरूरी लगता है।

'इस पुरुष प्रधान समाज में इन घटनाओं को दूसरी तरह से देखने की आदत लगभग नहीं मिलती है...स्त्री व्यवहार से संबंधित सब प्रकार की घटनाओं पर अनायास और सामान्यत: होने वाले विश्लेषणों में स्त्री को ही दोषी ठहराया जाता है कि पुरुष तो ऐसे ही होते हैं या पुरुष तो ऐसा ही करेंगे, स्त्री की ही जिम्मेदारी बनती है कि जीवन के उलझाड़ और समाज के बीहडिय़ झाड़-झंखाड़ों में अपने को पवित्र बनाये रखे। देखा यह भी गया है कि स्त्री की पवित्रता को लेकर अन्य स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा मुखर होती हैं चाहे वो परिवार में बहू को लेकर होने वाली चिकचिक हो या किसी स्त्री को बहलाए-फुसलाए जाने की घटना हो या फिर स्त्री की कोख के भ्रूण की जांच और जांच के बाद शिशु का लिंग मनचाहा न होने पर जीवहत्या जैसा पाप हो-सभी में स्त्री की वाणी समान रूप से पुरुष की आकांक्षा को अभिव्यक्त करती हुई देखी-सुनी गई है। बिना इस पर विचार किये कि पीडि़त स्त्री की अपनी कुछ आकांक्षा हो सकती है, या उसकी अपनी दैहिक-मानसिक जरूरतें (हो सकता है वो पूरी न हो रही हो) हो सकती हैं।....इन सभी बातों पर खुल कर विचार करने का समय आ गया है।' (12 मई, 2012)

—दीपचन्द सांखला

18 जून, 2012

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