Thursday, February 21, 2019

पुलवामा : दु:खद समय में खम्भा नोचू प्रतिक्रियाएं


जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में एक आत्मघाती हमले में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 40 जवानों का शहीद होना और कइयों का घायल होना बहुत दु:खद है। हालांकि इस घटना से पहले और बाद में होने वाली छिटपुट घटनाओं में मरने वालों की खबरें आए दिन आती रही हैंं जिन्हें पढ़कर हमारे ललाट पर सलवट भी नहीं आती। जिस समय में हम जी रहे हैं, लगता है ऐसी छिटपुट घटनाओं को सुनना-पढऩा हमारी नियति हो चुका है। पुलवामा की घटना बड़ी है, इसलिए उद्वेलन स्वाभाविक था, लेकिन कितने'क दिन का? ना वर्तमान की और ना ही पूर्व की केन्द्र सरकारें कश्मीर मसले पर कभी खास गंभीर लगींं। पड़ोसी देश पाकिस्तान में बैठे कुछ जहर-बुझे बदमिजाज लोगों के बरगलाने से बहुत थोड़े से दहशतगर्द अपनी जान पर खेलकर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। दु:खद और कार्यरतापूर्ण ऐसे कृत्यों से ना केवल पूरी कश्मीरियत बल्कि पूरी एक कौम भी बदनाम होती है। कश्मीर की कुल आबादी लगभग एक करोड़ है, गृह मंत्रालय की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो इनमें से दहशतगर्द चार सौ से भी कम हैंं, इन्हें सहयोग करने वाले प्रति दहशतगर्द चार और गिन लें, क्योंकि घाटी में जितनी चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्थाएं हैं, उसके चलते दहशतगर्दी में ज्यादा लोगों की लिप्तता संभव नहीं है। लगभग एक करोड़ की आबादी में मात्र 2000 लोग यदि गलत हैं तो सभी कश्मीरियों को निशाने पर लेना कितना उचित है। पिछले बीस वर्षों से कश्मीर में पांच से साढ़े सात लाख सैनिक, अद्र्धसैनिक और पुलिस बल तैनात रहते हैं यानी चौदह-पन्द्रह कश्मीरियों पर एक सिपाही तैनात है। अटलबिहारी सरकार की कश्मीरियों के साथ सदाशयता के बाद वहां माहौल बदला, दहशतगर्दी की घटनाओं पर अंकुश लगा और कश्मीर घूमने आने वाले पर्यटकों में जबरदस्त इजाफा हुआ। कश्मीरियों को रोजगार की सहूलियतें बढ़ी। कश्मीर में इस सदाशयता को मनमोहनसिंह सरकार ने बनाये रखा। उम्मीद थी कि मनमोहनसिंह अटलबिहारी सरकार के प्रयासों को आगे बढ़ायेंगे लेकिन ऐसा नहीं किया गया। अटल सरकार के ही प्रयासों का परिणाम था कि लगभग दस वर्षों तक कश्मीर में असंतोष कम रहा। मोदी सरकार के आने के बाद असंतोष और दहशतगर्दी की घटनाओं में अचानक बढ़ोतरी के कारणों का विश्लेषण अभी होना है। कहां क्या गड़बडिय़ां रही जिनकी वजह से घाटी फिर उद्वेलित हुई और देश का सुकून छिनता जा रहा है।

देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरियों और कश्मीर के विद्यार्थियों के साथ जो बदमजगियां हो रही हैं वह चिन्ताजनक और दु:खद इसलिए हैंं कि अटलबिहारी सरकार और पिछली सरकारों ने कश्मीरी विद्यार्थियों को भटकावों से बचाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उन्हें पढ़ाने की व्यवस्था की, जिनके सकारात्मक परिणामों का जिक्र ऊपर किया है। पुलवामा पर जयपुर की निम्फ यूनिवर्सिटी और अन्य कई जगह पढ़ रहे कश्मीरी विद्यार्थियों की प्रतिक्रिया, कश्मीरी युवतियों के साथ बलात्कार जैसी बदमजगियां कभी-कभार होती हैं उसे लेकर उनमें आक्रोश है। ऐसे विद्यार्थियों को आज अच्छी काउंसलिंग की जरूरत है ना कि दण्डित करने की। ऐसे अराजक दुव्र्यवहारों के चलते यदि ये विद्यार्थी वापस कश्मीर लौटते हैं तो वे अपने गांव-कस्बे पहुंचकर क्या करेंगे इसका अन्दाजा अभी नहीं लगाया जा सकता।

जिस 20 वर्षीय आदिल डार ने पुलवामा की घटना को अकेले अंजाम दिया उसकी जानकारी होना जरूरी है। तीन वर्ष पूर्व आदिल जब मात्र 17 वर्ष का था, अपने सहपाठी विद्यार्थियों के साथ जब वह घर लौट रहा था तो अद्र्धसैनिक बलों के कुछ जवानों ने यह आरोप लगाते हुए कि तुम पत्थरबाज हो, उससे ना केवल उठक-बैठक करवाई बल्कि अपने जूतों पर नाक भी रगड़वाई। घर लौटकर उसने अपने माता-पिता से शिकायत कीजैसा अधिकांशत: होता है, माता-पिता निरुतर थे। आदिल घर छोड़कर चला गया और नहीं लौटा। उसके माता-पिता ने बताया कि उन्होंने मान लिया था कि अब उसकी मौत के समाचार ही आएंगेवही हुआ। यह बताने का मकसद आदिल के कृत्य को जस्टीफाई करना कतई नहीं है। पर हमें ऐसी घटनाओं पर एकांगी होकर विचार नहीं करना चाहिए। देश में जो कुछ भी गड़बड़ है तो किसी न किसी प्रतिकूल परिस्थितियों की वजह से है, अत: उग्र तो हरगिज नहीं होना चाहिए। इस तरह देश के नागरिक होने के नाते इन गड़बडिय़ों के लिए अंशमात्र ही सही हम प्रत्येक जिम्मेदार होते हैं और इसलिए भी चूंकि हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और उस राज को हम मिलकर चुनते हैं जिसकी लापरवाहियों की वजह ऐसी गड़बडिय़ां होती है। खैर, इतनी बारीक बातों से आपको कोफ्त हो सकती है, लेकिन सच यही है।

यह सब लिखने का मकसद इतना भर ही है कि हमें एक जिम्मेदार नागरिक होने की शर्त के अनुसार विवेकशील भी होना चाहिए। बिना उत्तेजना, घृणा के और बिना बदले की भावना के सभी पक्षों को ऐसी घटनाओं और बदमजगियों पर विचारना चाहिए अन्यथा हमारा आक्रोश 'खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे' कहावत के आधार पर खिसियाना माना जाएगा और हमारा रियेक्शन लोक प्रचलित उस चुटकले 'रामस्वरूप ने चोरी की, फलस्वरूप पकड़ा गया' में गिना जाएगा। गलती कौन कर रहा, सजा का भागी आप किसी और को बना रहे हैं? यदि न्याय यही है तो फिर एक दिन इस आदिम न्याय से कोई भी बच नहीं पाएगा।
दीपचन्द सांखला
20 फरवरी, 2019

Thursday, February 14, 2019

भारतीय जनता पार्टी के लिए आत्ममंथन और बदलाव का समय


लोकतंत्र की आदर्शतम बहुदलीय संसदीय प्रणाली में ही धुर विरोधी विचार वाली और व्यक्ति आधारित पार्टियों का अस्तित्व एक साथ संभव है। लोकतंत्र के इस नकारात्मक पक्ष को उसका सकारात्मक पक्ष मान सकते हैं। यह छूट लोकतंत्र में ही संभव है। शासन की आदर्शतम व्यवस्था के तौर पर 'अराजकÓ शासन की कल्पना की जाती है, लेकिन उसके लिए नागरिक के त्रुटिहीन होने की शर्त है जबकि कमियां होना ही मनुष्य होने की पहचान है। अन्य जीवों की जो कमियां गिनवाई जाती है, वे कमियां नहीं जीव विशेष की प्रकृति में आ जाता है।
बात भारतीय जनता पार्टी के सन्दर्भ से करनी है, वहीं लौटते हैं। दक्षिणपंथी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 1951 में स्थापित राजनीतिक इकाई जनसंघ नामांतरण के बाद भाजपा हुई, इस तरह इस राजनीतिक दल का इतिहास लगभग अड़सठ वर्षों का हो रहा है। संघ और भाजपा के घालमेली अस्तित्व की अब तक कई रंगतें रही हैं। जनसंघ अपने विचारों पर जब तक अडिग रहा उसका कोई खास अस्तित्व नहीं बन पायाउदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में कट्टरपंथ की गुंजाइश या कहें अवधि लम्बी नहीं हो सकती। इसे वामपंथी पार्टियों के अस्तित्व से भी समझा जा सकता है।
भाजपा के वर्तमान अस्तित्व का मूल श्रेय अटलबिहारी वाजपेयी को दिया जाना चाहिए। वाजपेयी का शुरुआती प्रशिक्षण संघ का चाहे हो लेकिन व्यावहारिक राजनीति का प्रशिक्षण देश के शुरुआती संसदीय नेताओं की संगत में हुआ जो वर्तमान नेताओं से ज्यादा लोकतांत्रिक, उदार और संजीदा थे। ऐसे प्रशिक्षण का अभाव नरेन्द्र मोदी में आसानी से देखा जा सकता है। वाजपेयी के नेतृत्व में ही भाजपा ने अपनी उपस्थिति देशव्यापी बनायी। यह वही भाजपा है, जिसके 1984 में लोकसभा में मात्र दो सदस्य थे और उसके 12 वर्ष बाद ही ऐसी स्थितियां बनी कि मात्र सोलह दिन के लिए ही सही देश की इस दक्षिणपंथी रुझान वाली पार्टी के अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और फिर 1999 से वे ही पूरे पांच वर्ष प्रधानमंत्री रहे। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ना पूर्ण बहुमत की सरकार की ही पैरवी करने वालों को पूर्ण लोकतांत्रिक कहा जा सकता और ना ही किसी विशेष पार्टी मुक्त भारत की बात करने वालों को। बहुदलीय संसदीय प्रणाली ना केवल राष्ट्रपति प्रणाली से ज्यादा लोकतांत्रिक है बल्कि दो दलीय संसदीय प्रणाली से भी बेहतर है। अधिनायकत्व की आशंका जिस तरह राष्ट्रपति प्रणाली और दो दलीय प्रणाली में बनी रहती है, वैसी ही आशंकाएं बहुदलीय संसदीय प्रणाली में किसी एक पार्टी को पूर्ण या तीन चौथाई बहुमत में भी कम नहीं होती। बहुदलीय संसदीय प्रणाली में ही गठबंधन सरकारों की संभावना बनती है जो प्रकारान्तर से समन्वय की जरूरत के साथ अपनी प्रकृति में ज्यादा लोकतांत्रिक होने की गुंजाइश लिए होती है। गठबंधन सरकारों में अनैतिक दबाव की बात हो सकती है, लेकिन इतना बर्दाश्त तो करना होता है।
आजादी बाद के शुरुआती चुनाव परिणामों पर इसलिए बात नहीं करते क्योंकि आजादी की लड़ाई कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी गई और देशव्यापी अस्तित्व तब उसी पार्टी का था, अन्य पार्टियां अपना अस्तित्व बनाने में लगी थी। लेकिन 1967 आते-आते अन्य दल ज्यों ही अस्तित्व में आए, कांग्रेस के लिए वे चुनौती बन गये। इसके अलावा जिन चुनावों में पूर्ण बहुमत से सरकारें बनी उनका विश्लेषण इन्हीं सन्दर्भों में करेंगे तो यह विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। 1971, 1977, 1980, 1984 या 1991 अथवा 2014 के चुनावों के परिणाम या तो जनता की प्रतिक्रिया स्वरूप थे या आवेश से ग्रस्त। हालांकि अधिनायकत्व की आंच 1971 और 2014 में बनी सरकारों से ही महसूस की गई, इसीलिए गठबंधन की सरकारें लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ज्यादा अनुकूल कही जा सकती हैं। अलग-अलग विचार वाली पार्टियों की गुंजाइश वाली लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विमर्श की संभावनाएं एवं अनुकूलताएं ज्यादा होती हैं।
इसलिए जो नेता पूर्ण बहुमत के शासन की बात करते हैं उनमें अधिनायकत्व की बू महसूस की जा सकती है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह इसी प्रवृत्ति के नेता हैं। भाजपा वर्तमान में जब अपने सबसे अच्छे दौर से गुजर रही है तो उसे अपने भीतर को टटोलना चाहिए कि यह सर्वोत्कृष्ट दौर उसे एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव हो सका है। 2011 और उसके बाद जब अन्ना हजारे के प्रायोजित विरोध के चलते कांग्रेस विरोध का देशव्यापी माहौल बना और भाजपा ने जून 2013 में नरेन्द्र मोदी को पार्टी का लगभग सर्वेसर्वा नियुक्त कर दिया तभी अपनी एक टिप्पणी में आगाह कर दिया था कि भाजपा ने अपने अनुकूल समय में प्रतिकूल निर्णय ले लिया है। लोकतांत्रिक मूल्यों में थोड़ा-बहुत विश्वास करने वाले भाजपाइयों को अब वह बात सत्य लग सकती है। 2013 में मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में नहीं भी आते तब भी 2014 में केन्द्र में भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने की पूरी गुंजाइश थी। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी ने अपने इतिहास का दिखावटी अच्छा दौर चाहे देख लिया हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि शीर्ष के बाद ढलान को भोगना नियति होता है। पार्टी के लिए यह समय है मोदी और शाह के विकल्पों पर विचारने का अन्यथा इतिहास इसी स्वर्णकाल को कलिकाल में दर्ज करते देर नहीं लगाएगा। रही संघ की बात तो अटलबिहारी वाजपेयी ने संघ के साथ संतुलन को जिस तरह साध रखा था उसी चतुराई की जरूरत अब भी है।
लोकतांत्रिक आकाश के इन्द्रधनुष में अनेक विचारों का होना ही उसे खूबसूरत बनाता है। द्वन्द्व की गुंजाइश भिन्न विचारों में ही संभव है, बिना वैचारिक द्वन्द्व के अधिकतम मानवीय व्यवस्था संभव नहीं। फुलप्रूफ शासन व्यवस्था की उम्मीद करने वाले को विचारना इस तरह भी चाहिए कि जब मनुष्य खुद ही पूर्ण नहीं है तो उससे किसी फुलप्रूफ शासन व्यवस्था की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि व्यक्ति या विचार-विशेष के प्रभुत्व की पैरवी करना राख में दबी हिंसा की चिनगारी को ही हवा देना है। इसलिए संजीदा राजनेताओं का लोकतांत्रिक मूल्यों के आलोक में सक्रिय होना जरूरी है, फिर वह भाजपा हो या कांग्रेस या वामपंथी-समाजवादी और व्यक्तिवादी पार्टी ही क्यों ना हो। चूंकि अभी देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा है इसलिए भाजपा के हवाले से ही बात की गई है।
दीपचन्द सांखला
14 फरवरी, 2019

Thursday, February 7, 2019

मोदी-शाह की करतूतों को समझना और उनसे बचना जरूरी


बीते चार वर्षों से देश अजब अनर्गलताओं से गुजर रहा है। इससे पूर्व जब केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकारें रहीं तब यही लग रहा था कि देश में या तो घोटाले हो रहे हैं या बलात्कार। लगातार बढ़ती महंगाई से जनता में रोष व्याप्त हो रहा था। तब लगभग तय हो गया था कि यह सरकार तो वापस नहीं आनी, वही हुआ। संप्रग सरकार के खिलाफ आक्रोश बढ़ाने में संघानुगामियों ने अन्ना हजारे जैसे डाफाचूक का ओर योगधंधी रामदेव व धर्मधंधी रविशंकर जैसों का भरपूर उपयोग किया। इस बीच दूसरे विकल्प के तौर पर भारतीय जनता पार्टी ही थी जो उस समय सुन्नपात में थी और आत्मविश्वासहीन भी। भाजपा की ऐसी परिस्थितियों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके सर्किट अमित शाह ने धनबल के आधार पर योजनाबद्ध तरीके से पूरी पार्टी का अपहरण कर लिया। लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेता हक्का-बक्का रह गये तो सुषमा स्वराज और राजनाथसिंह जैसे दूसरी लाइन के नेता मोदी-शाह के चंवर डुलाने लगे। चुनाव हुए, अप्रत्याशित तौर पर स्पष्ट बहुमत के साथ नाम मात्र के राजग गठबंधन के बैनर से भाजपा सत्ता में आ गई।
मोदी सरकार के पांच वर्ष बीतते न बीतते उपलब्ध्यिां गिनें तो बलात्कारों की दरों में कोई कमी नहीं आयी, संप्रग सरकार के सभी घोटाले ना केवल काफूर हो लिए बल्कि खुद कांग्रेसनीत राज में उनके जो मंत्री घोटालों में अन्दर हुए थे, एक-एक कर सभी बाहर आ लिए। महंगाई का बढऩा लगातार जारी है। जिन मुद्दों पर नरेन्द्र मोदी ने 2013-14 का चुनाव लड़ा उन पर कोई सत्ताधारी अब बात तक नहीं करना चाहता। भ्रष्टाचार का इंवेट हो लिए चुनाव पहले से ज्यादा खर्चीले हो गये। चुनावी खर्च, पार्टी और उसके नेताओं के खर्चे उठाने के लिए कांग्रेस और अन्य पार्टियां जिन भ्रष्ट तौर-तरीकों से पैसे जमा करती थी, मोदी-शाह ने उसका तरीका बदल लिया। उन्हें लगा कि इस नये तरीके से बदनाम कम होंगे। बदले तरीके में कुछ घराने तय कर लिए कि पार्टी के चुनावी और नेताओं के खर्चें यही घराने उठायेंगे-बदले में उनके लिए लूट के सभी दरवाजे खोल दिए गए। यह तरीका मोदी ना केवल गुजरात में कारगर तौर से आजमा चुके थे बल्कि प्रमोद महाजन की असमय मृत्यु के बाद पार्टी के केन्द्रीय संगठन से संबंधित सभी खर्चों की पूर्ति वे इसी तरह से करवाने लगे। अंबानी-अडानी जैसे बड़े समूहों से लेकर मेहुल, नीरव मोदी जैसे छुटभैयों को इसी के मद्देनजर परोटा जाने लगा है। प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी की अब तक की विदेश यात्राएं देश के लिए कम और इन घरानों के लिए ज्यादा हुई हैं।
मोदी की बड़ी कमजोरी अधिनायकवादी तरीके से राज करने की रही है। गुजरात में विपक्ष और तटस्थ मीडिया की लगभग समाप्ति के बाद उन्होंने वहां निर्बाध राज चलाया। दिल्ली के राज को वे उस तरह मैनेज नहीं कर पाये जिस तरह गुजरात में कर लिया करते थे। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने प्रगति के सभी मानकों और आंकड़ों में 7 से 14 वें नम्बर पर रहने वाले अपने प्रदेश का गुजरात मॉडल के नाम पर ढिंढोरा ऐसे पिटवाया कि वह सभी प्रदेशों में सिरमौर है। मोदी को जब यह समझ आ जायेगा कि भारत जैसे देश को चलाना गुजरात को हांकने जैसा नहीं है, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
कहने को मोदी राज के बड़े घोटाले सामने नहीं आ रहे, क्योंकि उन्हें पुराने तरीके से अंजाम नहीं दिया जा रहा। रफाल की खरीद और कृषि व स्वास्थ्य बीमा जैसी भारी गड़बडिय़ां हैं। लेकिन इनके चौड़े आने के सभी रास्ते इस राज में बन्द कर दिये गये हैं। आरटीआइ के जवाब नहीं दिये जा रहे है। वहीं महालेखा परीक्षक (CAG) और संसदीय समितियों को कुछ करने जैसा छोड़ा ही नहीं हैं। जबकि ऐसे ही माध्यमों से संप्रग सरकार की गड़बडिय़ां सामने लाईं गई थी।
कोढ़ में खाज यह कि नोटबंदी और अनाड़ीपने से जीएसटी लागू करने जैसी मुर्खताओं से देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया गया। मोदी सरकार अपनी अक्षमताओं को बीते 70 वर्ष की जो आड़ देती रही उसकी पोल भी धीरे-धीरे सामने आने लगी है। रिजर्व बैंक ने हाल ही में बताया है कि संप्रग-2 सरकार के मुकाबले मोदी राज में बैंक घोटाले तीन गुना बढ़े हैं, विकास दर बताने में जो घपले किये जा रहे हैं वह अलग है।
चार वर्षों बाद भी स्मार्ट सिटी, आदर्श गांव, उज्ज्वला योजना, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, स्टार्टअप आदि-आदि या तो धरातल पर कहीं दीख नहीं रहे हैं या दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। इनके बजट का आधे से ज्यादा खर्च तो इनके विज्ञापनों पर ही लगा दिया गया।
भ्रष्टाचार कम होने का ढिंढोरा सबसे ज्यादा पीटा जा रहा है। जबकि इस राज में रिश्वत की दरें पिछले राज से तीन से चार गुना बढ़ी हैं, आम आदमी का वास्ता तो इसी से पड़ता है। 2 करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष रोजगार देने का वादा था, पर 30 लाख रोजगार भी प्रतिवर्ष यह सरकार नहीं दे पायी है। झूठे आंकड़ों से भरमाने के अलावा प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के मंत्री कुछ कर नहीं पा रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री विलासिता का जीवन जीने के अलावा क्या करते हैं, समझ से परे है।
उक्त सबके अलावा संघानुगामियों द्वारा फैलाई जाती रही गलत धारणाएं इस राज में विस्फोटक होने लगी। राजग की सरकारें पहले भी रही हैं लेकिन ऐसी स्थितियां पहले कभी नहीं आयी। मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एक शताब्दी से घोले जा रहे जहर के दुष्परिणाम सामने आने लगे। गाय के नाम पर मनुष्यों की हत्याएं होने लगी। संघ-विचार और मोदी के खिलाफ बोलने वाले को बर्दाश्त नहीं किया जाता, असहिष्णुता चरम पर है। किसानों व सेवानिवृत्त सैनिकों को केवल लॉलीपॉप थमाये जा रहे हैं। अच्छे दिनों के नाम पर शासन में आने वाले खुद इस जुमले से अब बचने लगे हैं। जुमले की बात आई तो प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख आने के आश्वासन को खुद अमित शाह जुमला बता चुके हैं। पाकिस्तान-चीन की छोडिय़े यहां तो नेपाल, म्यंमार, मालदीप जैसे छोटे पड़ोसी देश भी आंखें दिखाने और मुंह मोडऩे लगे हैं। सीबीआइ, प्रवर्तन निदेशालय और इनकम टैक्स जैसे विभागों का उपयोग विरोधियों की नकेल कसने में किया जा रहा है।
देश की जनता इतनी भोली है कि वह आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी नेताओं के भरमाने में आ जाती है। कांग्रेस का भरमाना लो-पिच का भरमाना था, मोदी-शाह हाइ-पिच पर भरमाते हैं, जनता है कि इनकी बातों में आ लेती है। ऐसा जब तक चलेगा, ये नेता नहीं सुधरेंगे-फिर वह चाहे किसी भी पार्टी का हो।
समय आ गया है कि भाजपा के संजीदा नेताओं को मुखर होना चाहिए, पार्टी की साख और देश के सौहार्द को बचाना ज्यादा जरूरी है। मोदी और शाह को शासन और पार्टी से बेदखल करने की जुगत बिठानी चाहिए, अन्यथा ये दोनों दीमक की तरह पार्टी और देश को पूरी तरह जर्जर करने से नहीं चूकेंगे।
पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया आदि के वर्तमान हालात कट्टरपंथ और तानाशाही के चलते ही हुए। क्या भारत को भी हम वैसा ही देखना चाहते हैं?
दीपचन्द सांखला
07 फरवरी, 2019