जनता दल (यू) के नेता शरद यादव का एक बयान आया है जिसमें उन्होंने सुझाव दिया है कि मन्दिरों में जमा अनाप-शनाप धन का उपयोग उसी मन्दिर के तीर्थ स्थान के विकास पर खर्च किया जाना चाहिए। यादव के इस सुझाव को वाजिब कहा जाएगा क्योंकि उक्त मन्दिर के इलाके की व्यवस्था पर जो भी खर्च आता है उसमें से अधिकांश वहां आने वाले श्रद्धालुओं के चलते ही आता है। इसलिए यह अनुचित नहीं है कि उस इलाके की हर तरह की व्यवस्था में आने वाले खर्च को मन्दिर की आय से ही लिया जाय।
लेकिन क्या इस सुझाव पर भरोसा किया जा सकता है? क्योंकि पच्चीसेक साल पहले देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी स्वयं यह कह चुके हैं कि सरकारी धन के गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते पचासी प्रतिशत की छीजत आ जाती है। इस कुव्यवस्था में किसी भी मन्दिर की व्यवस्था या उसकी श्रद्धालु जनता यह क्यों चाहेगी कि धन सरकार को सौंप दें। और यह भी संभव नहीं है कि किसी मन्दिर के आस-पास के क्षेत्र की व्यवस्था मन्दिर ट्रस्ट को सौंप दी जाय क्योंकि इससे तो शासन के समानांतर शासन की व्यवस्था बनेगी जो किसी भी तरीके से व्यवहारिक नहीं होगी।
शरद यादव, जिन्हें पिछली सदी के आठवें दशक की शुरूआत में जयप्रकाश नारायण के माध्यम से जनता ने जबलपुर लोकसभा चुनाव में लोक उम्मीदवार बनाया और जिता कर भरोसा जताया था, उनकी ही जिम्मेदारी बनती है कि वह पहले राजनीति को और फिर शासन को और उसके बाद प्रशासन को इस भरोसे योग्य बनाएं कि लोग आपकी इस तरह की बातों को वजन दे सकें। ―दीपचन्द सांखला
13 जुलाई, 2012
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