Tuesday, February 14, 2023

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-29

 वैद्य मघाराम (जिनके नाम से कॉलोनी बसी है) और उनके बेटे रामनारायण बधुड़ा का उल्लेख भी जरूरी है। प्रजा मण्डल के संस्थापकों में से एक वैद्य मघाराम भी यातनाओं और देश निकाले के बाद एक बारगी शान्त हो गये थे। लेकिन बाबू मुक्ताप्रसाद की तरह छिटका के कहीं चले नहीं गए। लौटकर आये और पुन: प्रजा परिषद् के साथ सपरिवार सक्रिय हो गये। वैद्य मघाराम के परिवार का बीकानेर में अकेला उदाहरण था जिसमें उनके बेटे रामनारायण, मघारामजी की मां और बहनों ने जब भी जरूरत पड़ी आजादी के आंदोलन में जैसी-तैसी भूमिका निभाई। बल्कि रामनारायण बधुड़ा की सक्रियता को गंगादास कौशिक की कॉपी के तौर पर भी याद किया जा सकता है।

इसी तरह सेनानियों के बीच आपसी सम्पर्क सूत्र के तौर पर और यहां की खबरें गुपचुप बाहर भिजवाने की जैसी मास्टरी मूलचन्द पारीक को हासिल थी। वह कम उल्लेखनीय नहीं। देखा जाय तो पिछली सदी के पांचवें दशक के आजादी आंदोलन की पूर्णाहुति काल में जब सादुलसिंह शासन के जुल्म बहुत बढ़ गये थे तब सम्पर्क-सूत्र के तौर पर मूलचन्द पारीक ने ही आन्दोलन को जोड़े रखा। वे नहीं होते तो हो सकता है आन्दोलन बिखर जाता। रेवाड़ी मूल के गंगानगरिये राव माधोसिंह का योगदान भी उल्लेखनीय था। नागौर के एक शिवदयाल दवे ने भी जोधपुर से प्रकाशित और जयनारायण व्यास द्वारा संपादित 'प्रजा सेवक' के लिए बीकानेर आकर काम किया। लेकिन उन्हें ज्यादा दिनों तक यहां काम करने नहीं दिया गया।

चौ. कुम्भाराम का योगदान आजादी के आन्दोलन में उल्लेखनीय जरूर था लेकिन यश-लालची होने की वजह से वे संदिग्ध भी रहे। इसी तरह प्रो. केदार की भूमिका भी संदिग्ध रही। लेकिन आजादी बाद चौ. कुम्भाराम कांग्रेस की राजनीति करते हुए मंत्री बने, वहीं समाजवादी प्रो. केदार ने भी जनता पार्टी और जनता दल के माध्यम से सत्ता में भागीदारी हासिल की।

बीकानेर इतिहास के छिटपुट संदर्भ

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अंत में बीकानेर के इतिहास की लोक प्रचलित विसंगतियों का बिन्दुवार उल्लेख जरूरी है। 

बीकानेर के संस्थापक राव बीका के बाद बीकानेर के किसी भी शासक का शौर्य और साहस उल्लेखनीय नहीं है। बल्कि राव बीका जो बना गये, उनसे बाद के शासकों में उसे सहेज कर रखने का माद्दा भी नहीं दिखता। इसीलिए बीका के उत्तराधिकारियों ने पहले मुगलों की अधीनता स्वीकार कर काम चलाया, फिर अंग्रेजों की।

विकास के मामले में महाराजा गंगासिंह का उल्लेख बहुत किया जाता है, वे राजा थे इसीलिए विकास उनके नाम मान लें। जबकि किया-धरा सब अंग्रेजों का ही था।

अपनी खुदमुख्तारी के समय यहां के शासक अपने नाम के आगे बजाए राजा-महाराजा लगाने के-राव लगाते थे, नाम के बाद सिंह भी नदारद था। नाम के आगे राजा-महाराजा और पीछे सिंह लगाने का चलन मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के बाद शुरू हुआ। राजा-महाराजा, सिंह आदि लगाने की स्वीकृति मनसबदारी अनुसार मिलती गयी।

आजादी के आन्दोलन को कुचलने की मानसिकता का गंगासिंह-सादुलसिंह (पिता-पुत्र) के बरताव में भारी अन्तर मिलता है। पहली वजह तो यह कि गंगासिंह जब तक थे तब तक यही धारणा थी कि भारत को पूर्ण आजादी नहीं मिलनी है। इसलिए यह मान लिया गया कि जिस तरह अंग्रेजों ने अपने अधीन इलाकों में विधान मण्डल बनाकर उत्तरदायी शासन की स्थापना की, उसी तर्ज पर रियासतों को भी वैसा ही करना पड़ सकता है। दूसरा बड़ा कारण गंगासिंह-सादुलसिंह की समझ का फर्क था। गंगासिंह शातिर और चतुर थे जबकि सादुलसिंह पूरी तरह अपने सलाहकारों पर निर्भर थे, सादुलसिंह की समझ का अकाल इतना था कि वे सलाहकार भी ढंग के चुन नहीं सके, इस वजह से उनके कार्यकाल में पोत बार-बार चौड़े आए। जो गंगासिंह अपने रियासत के जागीरदारों के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों को कुचल रहे थे, जो गंगासिंह अपने यहां आजादी के आन्दोलन की गतिविधियां बरदाश्त नहीं कर रहे थे, वही गंगासिंह जोधपुर रियासत के स्वतंत्रता सेनानी जयनारायण व्यास की पैरवी में वहां के राजा को लम्बा पत्र लिखते हैं।

सादुलसिंह के शासनकाल के दो उल्लेखनीय कामों का जिक्र तक नहीं होता, जिनमें एक गंगासिंह के शासन तक चली रही चूल्हे दीठ कर प्रणाली को राज संभालने के पहले ही दिन खत्म करने की घोषणा करना। चाहे ऐसा वाहवाही के लिए ही किया गया हो, जनहित का यह निर्णय उल्लेखनीय था। दूसरा काम अंग्रेजों की योजनानुसार मुहल्लेवार और कुओं पर पानी भरने के सार्वजनिक स्टैण्ड बनवाना।

गोलमेज सम्मेलनों को लेकर गंगासिंह का बहुत उल्लेख मिलता है। पहली बात यह कि गोलमेज सम्मेलन में राजाओं में केवल गंगासिंह अकेले ने ही शिरकत नहीं की बल्कि अन्य अनेक रियासतों के शासक भी थे। दूसरी बात उस शिरकत में गंगासिंह की हैसियत तमाशबीन से ज्यादा की नहीं थी। गोलमेज सम्मेलन के लालगढ़ पैलेस में लगे फोटो में देख सकते हैं कि उनके लिए सम्मेलन में सीट ही मुकर्रर नहीं थी। इतना ही नहीं खड़े लोगों में भी वे चौथी-पांचवीं पंक्ति में खड़े हैं।

जूनागढ़ का निर्माण वैसे तो कई चरणों में हुआ। लेकिन उसकी सीमा बढ़ाने का काम एक ही बार हुआ। मूल किला एकदम चौकोर था। चौतिने कुएं की तरफ की भव्य अट्टालिका ही परकोटे का काम करती थी। कचहरी की तरफ हाथी पोलजिसमें गढ़ गणेश मन्दिर हैमुख्य द्वार था। सूरसागर के सामने गिन्नाणी और मुख्य डाकघर की तरफ जो परकोटा है, वही किले को चौकोर आकार देता है। बाद में केवल चौतिने कुएं की तरफ वाला हिस्सा (जहां आजकल सेना की देखरेख में पार्क विकसित है) बढ़ाकर परकोटा बनाया गया। इसी तरह कचहरी की ओर राव बीका की मूर्ति से लेकर वर्तमान मुख्यद्वार वाले हिस्से को कचहरी की ओर बढ़ाते हुए निर्माण करवाया गया। क्रमश...

दीपचंद सांखला

24 नवम्बर, 2022