सूचना का अधिकार कानून (आर.टी.आइ.) बनाया तो इसलिए गया है कि अफसरशाही को जवाबदेही के प्रति अधिक जिम्मेदार बनाया जा सके और आमजन की दुश्वारियां कम करने के लिए उनके हाथ में एक और हथियार थमाया जा सके। सूचना का अधिकार कानून जून, 2005 में संसद में पारित किया गया और उसी साल अक्टूबर से इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया था। आरटीआइ को लागू हुए सात साल हो चुके हैं लेकिन इतने वर्षों बाद भी इसके उपयोग के प्रति जागरूकता अभी शैशवकाल में ही है। शुरू से ही आरटीआइ को अपने कामकाज में दखलंदाजी मानने वाली अफसरशाही की मानसिकता में भी अब तक कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता। जो मुट्ठी भर लोग इस कानून के जरिये सूचनाएं प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
पहले तो आवेदन के स्तर पर ही सूचना चाहने वाले को टरकाने का प्रयास किया जाता है। फिर आवेदन स्वीकार कर भी लिया जाता है तो सूचना देने को लेकर टालमटोल की जाती है। एक-दो स्मरण पत्र के बगैर सूचना नहीं देना आम बात है। कई मामलों में आवेदक को जवाब नहीं देने और फिर सूचना नहीं देने का रवैया भी अपनाया जाता है। अन्तत: राज्य सूचना आयोग में अपील होती है और जुर्माने की नौबत आने के बाद सूचना दी जाती है।
यहां तक ही बस नहीं है। आमजन तो आवेदन देने के कुछ ही दिन बाद हार मानकर बैठ जाता है। इसी को देखते हुए आरटीआइ कार्यकर्ताओं का एक वर्ग अस्तित्व में आया है। कुछ एनजीओ के अलावा ऐसे लोग भी हैं जो अपने लिए सूचनाएं लेते-लेते इस कानून की बारीकियां समझने लगे हैं और अब वे इस के तहत राहत चाहने वालों का मार्गदर्शन भी करने लगे हैं।
पर ऐसे लोगों को भी सूचना प्रदाता के आक्रोश का सामना करना पड़ता है। ऐसे ही आरटीआइ कार्यकर्ता उदयरामसर के बालकिशन यादव ने पुलिस अधीक्षक को की गई शिकायत में बताया है कि पंचायत से सूचना मांगने का खमियाजा उन्हें किस तरह चुकाना पड़ रहा है। झूठे मुकदमों के साथ ही मारपीट की घटनाओं से भी उन्हें दो-चार होना पड़ा। यही नहीं, राजकीय सेवा में कार्यरत यादव को अपने कामकाज से संबंधित कई शिकायतों का भी सामना करना पड़ा। हालांकि जांच में ये शिकायतें निराधार पाई गई। सूचना समय पर नहीं देने के कारण राज्य सूचना आयोग समय-समय पर संबंधित लोक सूचना अधिकारी पर जुर्माना भी लगाता रहा है। पर इसके बावजूद नीचे के स्तर पर अधिकारियों के रवैये में परिवर्तन नहीं आया।
बीकानेर के नगर विकास न्यास से सूचना मांगने वाले की अपील पर राज्य आयोग ने हाल ही में न्यास सचिव पर 25 हजार रुपए का जुर्माना लगाया है। ऐसे जुर्माने भी प्रशासनिक अधिकारियों का तौरतरीका बदलने में सार्थक साबित नहीं हो रहे। कुल मिलाकर आरटीआइ के जरिये राहत चाहने वालों का मार्ग कंटकापूर्ण ही है। जब तक अफसरशाही के रवैये में बदलाव नहीं होगा, इस कानून का समुचित लाभ नहीं मिल सकेगा।
— दीपचन्द सांखला
25 सितम्बर, 2012
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