Monday, July 24, 2023

आये दिन होती दुर्घटनाएं

 बिंब यह तब का है जब शहर के सभी रेल फाटक इन दिनों की तरह डण्डे की मानिंद आकर नहीं गिरते थे। रेलगाड़ी के आने से पहले एकल पल्ले के तीस पैंतीस फुट लम्बे दोनों तरफ के फाटक एक के बाद एक बन्द किये जाते थे। तब साइकिलें ज्यादा थीं-बन्द फाटक के दौरान साइकिलों को निकालने को फाटक के एक तरफ एक रास्ता इस तरह का होता था कि एक बार में एक ही साइकिल वाला निकल सके तो दूसरी और पैदल निकलने वालों के लिए चरखियां होती थीं-उस तरह की चरखियां आज भी कई जगह देखने को मिलती हैं। कोटगेट और सांखला फाटक की इन चरखियों पर तो सुबह-शाम लाइनें सी लग जाया करती थीं। तब की याद है कि कोई बच्चा इस चरखी से गुजरता तो उसके पीछे वाला या सामने वाला व्यक्ति यह सावधानी रखता था कि उसकी हड़बड़ी से कहीं उस बच्चे की ऐडी के ऊपर वाला हिस्सा चोटिल न हो जाए। क्योंकि निकलने वाले की असावधानी और उसके पीछे वाले की हड़बड़ी के चलते इस तरह की आशंका बनी रहती थी।

उस तरह की चरखियां म्यूजियम के पास स्थित वृद्धजन भ्रमण पथ पर आज भी हैं। दो-तीन साल पहले की बात है, एक बच्चा चरखी से प्रवेश कर रहा था तो दूसरी तरफ से प्रवेश करने वाले एक बुजुर्ग को यह गुस्ताखी लगी कि उसे देखकर वह बच्चा रुक क्यों नहीं गया। जबकि इन चरखियों से दोनों तरफ से एक साथ गुजरा जा सकता है। वे बुजुर्ग उस बच्चे को चरखी से लगभग धकियाते गुजर गये। वे बुजुर्ग कवि होने का दावा भी करते हैं और सामान्यत: माना जाता है कि कवि संवेदनशील होते हैं।

यों तो उक्त सबकी जानकारी सम्पादकीय में देना अटपटा लग सकता है लेकिन बीकानेर में इन दिनों लगातार हो रही सड़कीय दुर्घटनाओं का एक कारण हमारी संवेदनाओं का सूख जाना भी हैं। वह बालक चरखी से सुरक्षित गुजर जाए-उन कवि में इस तरह की सजगता तो दूर बल्कि वह तो उसे सबक सिखाने को उतारू थे।

लगभग इसी तरह आजकल हमारा ट्रैफिक भी हो गया है-जिसके पास भी बड़ी गाड़ी है उसे छोटी गाड़ी का पास से गुजर जाना भी नागवार लगता है तो छोटी गाडिय़ों के पास से गुजरना तौहीन। हो सकता है ऐसे चालकों की हेकड़ी के चार्जर के तार किसी न किसी सत्तारूप से जुड़े हों। जैसे किसी को किसी नेता या अफसर या थानेदार से निर्भय वरदान मिला होता है या किसी दबंग ने कह रखा होता है कि परवाह मत करना, भिड़ जाना।

शहर में यातायात का अधिकांश कबाड़ा या तो ऑटो रिक्शाओं ने कर रखा है या फिर धड़धड़ा कर चलने वाली यूटिलिटी, कैम्पर आदि ने। ऑटो रिक्शाओं को तो अपनी यूनियनों की पूरी शह होती है। इन यूनियनों ने कभी इन ऑटो रिक्शा चालकों को कुछ सिखाने के मकसद से कोई आयोजन किया हो-ध्यान में नहीं। न ही कभी ऐसा कोई समाचार मिलता है कि पुलिस ने या यूनियन ने बिना लाइसेंस के या बेतरतीब मुड़ते किसी चालक को पकड़ा हो।

इसी तरह यह युटिलिटी, कैम्पर आदि लेकर निकलने वालों को अपने किसी न किसी आका की शह होती है। यह आका अधिकतर तो राजनीति में टांग फंसाई रखने वाले होते हैं।

आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं में कोई परिवार कुछ न कुछ या बहुत कुछ हमेशा के लिए खो देता है। बावजूद इसके न तो हमारी लापरवाहियों पर लगाम लगती है और न ही हमारी संवेदनाएं हरी होती हैं। अब तो यह लोक कैबत अधूरी लगती है कि एक अंगुली की चोट का दर्द पास वाली अंगुली को नहीं होता जबकि अब हो यह रहा है कि चोटिल अंगुली को भी दर्द नहीं होता?

—दीपचन्द सांखला

29 अगस्त, 2012

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