Wednesday, September 28, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-21

 महाराजा सादुलसिंह और उनके सहयोगी अब तक पूरी तरह बौखला चुके थे। स्वामी केशवानन्द को जाटों के अंसतोष को दबाने के लिए तैयार कर लिया। स्वामी केशवानन्द भी तैयार हो गये। वे जाटों में यह धारणा बनाने लगे कि हमें राजनीति में नहीं पडऩा चाहिए और अपने समाज के उत्थान में लग जाना चाहिए। लेकिन चौ. कुम्भाराम तथा उनके साथियों ने स्वामी केशवानन्द को कह दिया कि 'कौम में आयी जागरूकता के समय आप की बात मानना सामाजिक चेतना की पीठ में छुरा घोंपना है। हमें अपने भरोसे पे छोड़ दें और आप जो शिक्षा के काम में लगे हैं, वह करते रहें।'

पूरी रियासत में आजादी का आन्दोलन परवान पर था। ऐसे समय में वकील रामचन्द जैन ने रायसिंहनगर में 30 जून 1 जुलाई, 1946 के दिन विशाल राजनीतिक सम्मेलन आयोजित करने की घोषणा की। मजिस्ट्रेट ने आदेश दे दिया कि सम्मेलन में तो कोई झंडा फहराया जायेगा, नौकरशाही के खिलाफ कोई नारा लगाया जायेगा। इस आदेश के खिलाफ महाराजा को तार दिया, जिसका कोई जवाब नहीं आया। जवाब के इंतजार में 30 जून को सम्मलेन के संभागी संयमित रहे, लेकिन दूसरे दिन यह सम्मेलन आयोजकों के काबू में नहीं रहा। 

एक जुलाई को जनता पूरे जोश-खरोश में थी। प्रशासन ने सम्मेलनों में झंडा फहराने की इजाजत तो दे दी, लेकिन जुलूस में झंडा लेकर चलने की छूट नहीं दी। सम्मेलन के बाद चौ. हनुमानसिंह, भाई बेगाराम लौटने के लिए स्टेशन पहुंचे और टिकट लेने के लिए झंडे का डंडा खिड़की के पास रखा तो उसमें लिपटा तिरंगा खुल गया। वहां तैनात पुलिस को ये बरदाश्त नहीं हुआ और बेगाराम को पकड़ कर ले जाने लगी। इसकी जानकारी जैसे ही सम्मेलन स्थल पर पहुंची। लोगों का एक हुजूम स्टेशन की ओर चल पड़ा। उस भीड़ में एक दलित युवक बीरबलसिंह तिरंगा थामे इस संकल्प के साथ चला कि वह झंडे को किसी भी सूरत में झुकने नहीं देगा। उद्वेलित जनता के हुजूम पर लाठियां बरसाई गईं, तिरंगे छीनने की कोशिश की गई। लेकिन बीरबलसिंह अपने संकल्प से नहीं डिगे। इस अफरा-तफरी के बीच फौजियों नेे पहुंचकर गोलीबारी शुरू कर दी। गोली मजबूती से तिरंगा थामे बीरबलसिंह को लगी और उसने वहीं दम तोड़ दिया। इस गोलीबारी मेें चार अन्य भी घायल हुए, गोलीबारी शुरू होते ही भगदड़ मच गई। इस तरह देश की आजादी के आंदोलन में बीकानेर रियासत में पहले और एकमात्र शहीद दलित समुदाय से बीरबलसिंह हुए।

2 जुलाई को बीरबलसिंह की अंत्येष्टि में हजारों लोग शामिल हुए। 10 जुलाई के दैनिक हिन्दुस्तान में 'राष्ट्रीय झंडे की रक्षा में एक हरिजन युवक का बलिदान' जैसे शीर्षक और 'गोलीबारी से जनता में भारी रोष : निष्पक्ष जांच की मांग' जैसे उपशीर्षक के साथ खबर विस्तार से और फोटुओं के साथ लगी।

इस घटना के बाद पूरी रियासत में झंडे का रंग ऐसा चढ़ा कि बिना तिरंगे कोई प्रदर्शन हुआ ही नहीं। एक जुलाई से पहले पूरे गंगानगर जिले में और फिर पूरी रियासत में धारा 144 लगा दी गई। क्योंकि 6 जुलाई का दूधवाखारा दमनचक्र शुरू होने की पहली बरसी थी और 22 जुलाई को प्रजा परिषद् का स्थापना दिवस। इन दोनों तारीखें में बड़ी रैलियां होनी थी। बीकानेर शहर में 6 जुलाई को किसान दिवस के रूप में स्वामी कर्मानन्द की अध्यक्षता में मनाया गया। पहले स्टेशन पर स्वामी का भव्य स्वागत हुआ और फिर वही भीड़ जुलूस में तबदील होकर शहर की ओर बढ़ गयी। जुलूस ऐसा अभूतपूर्व था कि वह धारा 144 के बावजूद मोहता चौक पहुंचा तो ऐसा लगा कि पूरा शहर उसमें शामिल हो गया। मोहता चौक में पुलिस को भान हुआ कि तिरंगा लोगों से नहीं छीना तो नौकरी से हाथ धो बैठेंगे। पुलिस जैसे ही सक्रिय हुई तो अफरा-तफरी मच गयी। ऐसे में चंपालाल रांका ने सूझबूझ और हिम्मत से काम लिया और ये ऐलान करते हुए कि 'तिरंगे का अपमान नहीं होने देंगे'— एक बड़ा झंडा लेकर तांगे पर चढ़ कर उसे मजबूती से थाम लिया। भीड़ ने भी उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। ऐसे में पुलिस वाले वहां हाथ मलते रह गये, लेकिन कोटगेट पर झंडा छीनने की पुलिस ने ठान ली। 

जुलूस कोटगेट पर पहुंचा तब पुलिस ने पहले तो रोकने की कोशिश की, नहीं रुका तो वहां तैनात डीएसपी ने उत्तेजित होकर रिवाल्वर निकाल ली। लगने लगा कि रायसिंहनगर दोहराया जायेगा। तभी हृष्टपुष्ट मूलचन्द पारीक ने हिम्मत करके डीएसपी को अपनी बाहों में जकड़ लिया। इस तरह फायरिंग होते-होते टल गयी। जुलूस रतनबिहारी पार्क पहुंच गया। जहां मूलचन्द पारीक और गंगादत्त रंगा को गिरफ्तार किया गया लेकिन रात को ही वापस छोड़ दिया।

इन सबके चलते शासन-प्रशासन दोनों हताश और खीज से भर गये। रतनगढ़ की ही तरह साजिश कर प्रशासन ने दूसरे ही दिन 7 जुलाई 1946 . को शहर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा करवा दिया। फौजियों ने गोलीबारी की, जिसमें तीन लोग मारे गये और अनेक घायल हुए, तब विरोध में एक सप्ताह तक शहर बन्द रहा। उधर निर्वासन का उल्लंघन कर गिरफ्तार हुए रघुवरदयाल गोईल को जेल में साधारण कैदियों की तरह रखा गया, जिसके विरोध में उन्होंने जेल में भूख-हड़ताल कर रखी थी।

इस बीच 14 जुलाई की अद्र्धरात्रि में स्वामी कर्मानन्द की अध्यक्षता में प्रजा परिषद् की गुप्त बैठक हुई जिसमें गंगादास कौशिक, मूलचन्द पारीक, रावतमल पारीक, चम्पालाल रांका, सोहनलाल मोदी, चिरंजीलाल स्वर्णकार, भिक्षालाल बोहरा, मुल्तानचन्द दर्जी, श्रीराम शर्मा, नानुड़ी, खेतुड़ी, गंगादत्त रंगा, ख्यालीसिंह वकील, मोहनलाल खत्री और लक्ष्मीनारायण पारीक आदि शामिल हुए। इस दमनकाल में परिषद् से दो नये चेहरे भी शामिल हुए : ऊदाराम हटीला (बाद में नोखा विधायक रहे) और वासुदेव विजयवर्गीय (जिन्होंने बाद में लोकदशा नाम से अखबार निकाला), जिनमें वासुदेव विजयवर्गीय रेलवे में सरकारी नौकरी पर थे। लेकिन देशसेवा के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उदाराम हटीला अनेक बार हवालात में बन्द रहे।

दीपचंद सांखला

29 सितम्बर, 2022