Thursday, June 28, 2018

बीकानेर के मीडिया को 'पाटाई नोस्टाल्जिया' से अब तो बाहर आ लेना चाहिए


बीकानेर का मीडिया जब-तब अपनी बात पाटों के माध्यम से कहता रहा है। चार दशक पूर्व शुभू पटवा के संपादन में निकलने वाले 'सप्ताहांत' में डॉ. राजानन्द भटनागर का लोकप्रिय कॉलम 'पाटा गजट' हो या कजलीदास हर्ष के पाक्षिक 'चौकसी' का 'पाटातरी'—समयानुसार उनकी चर्चा राजनेताओं और उनके हलर-फलरियों में होती रही है। कुछ चर्चा उनमें भी होती रही है, जो राज-समाज में रुचि रखते हैंवैसे आज ही की तरह शेष शहरियों का कोई खास सरोकार तब इस सब में रहा हो, प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता।
आजादी बाद के इन सत्तर वर्षों में राजनीतिक परिवर्तनों के समानांतर जो भी सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन देश में होते और देखे जाते रहे तो उन सबसे बीकानेर भी अछूता कैसे रहता? इनसे इतर बीते तीन-चार दशकों में तकनीक और संचार माध्यमों के भगदड़ीय विकास ने समाज के रंग-रूप और तौर-तरीकों को लगभग पलटकर ही रख दिया।
राजनैतिक सन्दर्भों में बीकानेर की बची-खुची कसर विधानसभा सीटों के परिसीमन ने पूरी कर दी। परकोटे के भीतरी हिस्सों को छोड़ इस परिसीमन ने शहर के राजनीतिक जोगराफिये को पूरी तरह बदल दिया है। बावजूद इस सब के, बीकानेर का मीडिया अब भी पाटों के हवाले से ही शहर के मन को टटोलने में लगा रहता है। इसे और बेहतर समझने के लिए अंग्रेजी शब्द 'नोस्टाल्जिया' के सहारे पाटा नोस्टाल्जिया कहना ज्यादा उचित लगता है। 'घर की याद जो रोग बन जाए', 'भूतकाल के किसी क्षण-अवधि की याद' और 'यह इच्छा की वह क्षण फिर लौट आए ऐसे'—नोस्टाल्जिया के इन हिन्दी भावार्थों से इसे अच्छे से समझ सकते हैं।
शहर के पाटों की संस्कृति उस समर्थ समाज की संस्कृति है जो रजवाड़ों के समय से ही देश-समाज और राजनीति में खूब प्रभावी रहे और कमोबेश अब भी हैं। बीकानेर के सन्दर्भ में इन पाटों के जिक्र में समाज का वह बड़ा वर्ग जिसमें अन्य पिछड़ी जातियां, अनुसूचित जातियां और अल्पसंख्यक वर्ग आता है, यह बड़ा वर्ग इस पाटा संस्कृति से लगभग 'अलूफ' है। ऐसे में शहर के मन को हम कब तक इन 'पाटों' के माध्यम से टटोलते रहेंगे, वह भी तब जब इन परम्परागत पाटों ने खुद अपने तौर-तरीके बदल लिए हों। शहर के अधिकांश पाटे मुख्यत: तीन समुदाय के मुहल्लों में मिलते हैं, ओसवाल वणिक, माहेश्वरी वणिक और पुष्करणा ब्राह्मण। इनमें से दोनों वणिक समुदाय ने इन पाटों से दूरी लगभग बना ली है, पुष्करणा समुदाय के लोगबाग अपने-अपने चौक-मुहल्लों के इन पाटों पर कुछ रौनक अब भी बनाए हुए हैं, लेकिन इस उपस्थिति का अब भी मकसद पाटा संस्कृति को बचाए रखना ही है,  कहना अतिशयोक्त होगा। उन सब के बीच बैठने वालों को वहां देर रात तक बैठने वालों के बैठने और वहीं सो जाने के कारणों और मजबूरियों का पता है।
इसमें दो राय नहीं कि शहर में सबसे मुखर पुष्करणा समुदाय है, जिसे मनीषी डॉ. छगन मोहता कण्ठबली भी कहा करते थे, बावजूद इसके ऊपर उल्लेखित तमाम बदली परिस्थितियों में क्या इन पाटों के माध्यम से शहर के मन की बात को टटोल सकते हैं?
परिसीमन के बाद बाहरी होने का ठप्पा नये बने पूर्व विधानसभा क्षेत्र पर भले ही लगाएं, बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र भी अब कितना''भीतरी' रह गया है! जवाहर नगर, मुरलीधर व्यास कॉलोनी को लगभग भीतरी शहर मान भी लें तो रामपुरा बस्ती, मुक्ताप्रसाद कॉलोनी, बंगला नगर और उसकी उप कॉलोनियां सर्वोदय बस्ती, प्रताप बस्ती, नत्थूसरबास, श्रीरामसर, सुजानदेसर, गंगाशहर पुरानी लाइन, भीनासर के पश्चिम जैसा बड़ा हिस्सा इस पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र में शामिल हो लिया और जिस तरह से यह इलाका फैला है, ऐसे में इन सब इलाकों के बाशिन्दों का मन पाटों के माध्यम से कितना'क टटोल पाएंगे, कहना मुश्किल है।
'सप्ताहांत' के पाटा गजट और 'चौकसी' की पाटातरी कॉलमों के जमाने तक बीकानेर शहर ही क्यों, अद्र्धांग कोलायत विधानसभा क्षेत्र तक का मन टटोल लिया जाता था, जिला-प्रदेश, देश-विदेश के लफ्फे हो लेते थे। लेकिन बदले जोगराफिया में क्या वैसा ही अब भी संभव है? पाटों पर भले ही आज भी शहर के मुखर और प्रभावी समुदायों के लोग हथाई करते हों, लेकिन नहीं लगता कि विस्तार खाए इस शहर के मन की बात करना तो दूर, लफ्फे भी अच्छे से किये जाते हों। इस जमाने में जब तकनीक से मन के मुखर होने के माध्यम चौफालिए भले ही हो लिए हों, पर अवाम के मन की थाह पाना अब ज्यादा मुश्किल हो गया है।
दीपचन्द सांखला
28 जून, 2018

Thursday, June 21, 2018

बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल की गति और दुर्गत


मनीषी डॉ. छगन मोहता महात्मा गांधी के हवाले से कहा करते थे कि स्वयंसेवी संस्थाओं और समूह संगठनों को उनकी स्थापना से दस वर्ष में या उद्देश्य पूर्ण होने पर उससे पहले ही समेट देना चाहिए। गांधी और मोहता की बात में अब और भी कुछ जोडऩे की जरूरत महसूस होने लगी है, वह यह कि 'ऐसी सभी संस्थाओं की खुद की ना कोई चल सम्पत्ति होनी चाहिए और ना ही अचल संपत्ति। संस्थाएं ऐसी सभी जरूरतें किराये पर या लीज पर लेकर या आपसी सहयोग से पूरी करे तो सदस्यों और पदाधिकारियों की आपसी टकराहटों से बचा जा सकता है।
बीकानेर शहर की प्रतिष्ठ संस्था बीकानेर व्यापार उद्योग मण्डल पिछले दस वर्षों में जिस तेजी से दुर्गत को हासिल हो रही है, वह खास चिन्ता का कारण इसलिए है कि आजादी बाद इसका गठन बीकानेर के 'चेम्बर ऑफ कॉमर्स' की तर्ज पर किया गया था, जिसमें विभिन्न व्यवसायों और क्षेत्रों के संगठन एक वृहत मण्डल के संरक्षण में विकसित हो सकें और अपने हितों की रक्षा कर सकें। शुरुआत को छोड़ दें तो इस बीकानेर व्यापार मण्डल का उत्तराद्र्ध हिचकोले खाता दिखने लगा है। पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से इसने अपनी बड़प्पन की कैसी भी जिम्मेदारी निभाई हो, कोई उदाहरण नहीं मिलता।
अपनी आलेख शृंखला में इस संस्था में पूर्व के विभिन्न उद्वेलनों के समय जो कुछ कहा, उसके हिस्से आप पढेंग़े तो तब की कही वह मंगलवार 19 जून, 2018 को गठित इस मण्डल की विवादास्पद कार्यकारिणी को उन पुराने सन्दर्भों में समझा जा सकता है।
शुरुआती कई दशकों तक इस संगठन के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे। औपचारिक सहयोग छोड़ दें तो कोई व्यापारी समय देने को ही उत्साहित नहीं था। इसीलिए बीच के लंबे समय तक सोमदत्त श्रीमाली ही अध्यक्ष बने रहे। जैसी कि लोक में कैबत है कि झगड़े की जड़ अधिकांशत: जर और जमीन ही होती है। इस संगठन में भी झोड़ के यही दो कारण हैं। यूआईटी ने जमीन दे दी तो जैसे-तैसे भवन बन गया। जमीन की लोकेशन आबाद हुई तो एक बैंक और अन्य किरायेदार के रूप में आ गये। मंडल के आर्थिक हालात ठीक हुए तो ऐसे लोग, जो संपन्न थे या जो बहुत संपन्न नहीं भी थे, उन्हें भी इसके माध्यम से अपनी छोटी-मोटी राजनीतिक-प्रशासनिक महत्वाकांक्षाएं पूरी होती दीखने लगी। अहम् और स्वार्थ टकराने लगे, मंडल के उद्देश्य गौण हो गये। बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल की वर्तमान अराजक स्थिति के कमोबेश यही कारण हैं।
('विनायक' 2 नवम्बर, 2011)
व्यापार उद्योग मंडल की करोड़ों की सम्पत्ति और लाखों की मासिक आय है। कइयों की गिद्धदृष्टि इस पर होगी ही। व्यापार मंडल और संरक्षक परिषद के सदस्य खुद जिम्मेदारी नहीं दिखाते हैं तो सरकार को चाहिए कि इस मंडल पर कोई रिसिवर बिठा दे या लम्बे समय तक निर्वाचित पदाधिकारी नहीं हैं तो मंडल का पंजीकरण रद्द करके सम्पत्ति अपने कब्जे में ले ले। अन्यथा हो सकता है कि कुछ स्वार्थी लोग ऐसी गोटी बिठाएं कि वे इस सम्पत्ति पर हमेशा के लिए कुंडली मार कर बैठे जायेंगे, क्योंकि व्यापारियों में से अधिकांश ऐसे ही हैं कि उन्हें अपने व्यापार से फुरसत नहीं है। इसकी बानगी में व्यापार मंडल के चुनाव लम्बे समय से न होना तो है ही, उससे संबद्ध लगभग सभी छोटे व्यापार संघों के चुनाव भी लम्बे समय से नहीं हुए हैं। संविधान पालना के अभाव में अधिकांश व्यापार संघ अधिकृत नहीं रहे हैं, ऐसे में केवल संरक्षक परिषद ही है, जो इस मंडल पर अधिकृत हक रखने की स्थिति में है!
('विनायक' 7 दिसम्बर, 2012)
जिन प्रतिष्ठ शिवरतन अग्रवाल पर भरोसा और उम्मीदें कर अध्यक्ष बनाया, नहीं पता किन दबावों में या कौनसी नाड़ दबने के चलते वह लगभग कब्जाधारी होकर अपने मान को धूल-धूसरित होने दे रहे हैं। 'विनायक' में इस संस्था की कार्यप्रणाली को लेकर पहले भी कई बार लिखा जा चुका है। 2011 में जब अग्रवाल ने पहले तो अपने द्वारा मनोनीत कार्यकारिणी को ही इस्तीफा सौंपा और बाद इसके कार्यकारिणी द्वारा मंजूर न करने की बिना पर आज भी अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। जबकि विधान के अनुसार अध्यक्ष का कार्यकाल दो वर्ष का ही होता है।
लगभग देश की आजादी के साथ ही स्थापित बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल के विधान में अपर हाउस की तर्ज पर संरक्षक परिषद का प्रावधान है। शिवरतन अग्रवाल का संस्थान के विधान में अगर विश्वास होता तो वे इस संरक्षक परिषद के मुखातिब होते न कि स्वयं द्वारा ही घोषित कार्यकारिणी के। अग्रवाल 27 जनवरी, 2009 को अध्यक्ष निर्वाचित हुए, उस हिसाब से 26 जनवरी, 2011 से पहले मण्डल अध्यक्ष का चुनाव हो जाना चाहिए था, जो आज तक लंबित है।
('विनायक' 19 नवम्बर, 2015)
इन पुराने सन्दर्भों के आलोक में 19 जून, 2018 मंगलवार को बनी कार्यकारिणी की गठन प्रक्रिया को समझा जाना चाहिए। कार्यकारिणी में कौन है, उनकी मंशा क्या है, इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन जिस दबंगई और पुलिस संरक्षण में उन्होंने गपड़चौथ की, उससे सन्देह तो पैदा होता ही है। संस्था के सविधान के चुनावी प्रावधानों की अनदेखी और अवमानना से चुनकर आए ये पदाधिकारी इस संस्था का कितना मान रख पाएंगे, समय ही बताएगा। वैसे संस्था का पिछले दो-तीन दशकों का जो नाकारापन रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि इसे भंग ही कर देना चाहिए, ताकि पहले से अनेक बदमजगियां भुगत रहा यह समाज आए दिन की एक बदमजगी से तो कम-से-कम बच ही जाएगा।
आजादी बाद की ऐसी समाजसेवी संस्थाओं और उनके नियन्ताओं पर नजर डालें तो उन महानुभावों का स्मरण हो आता है जो खुद संस्थाजीवी ना होकर संस्था और उसके उद्देश्यों को आत्मसात् कर अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय रहे, इनमें सोहनलाल मोदी, हिम्मतभाई परीख और डॉ. छगन मोहता विशेष स्मरणीय हैं। इन्होंने क्रमश: सर्वोदय-खादी, व्यापार-उद्योग और प्रौढ़-अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र की संस्थाओं को जीवन्तता से जीया था।
दीपचन्द सांखला
21 मई, 2018

Thursday, June 14, 2018

एलिवेटेड रोड : कोटगेट यातायात समस्या का समाधान--अंत पंत यही है

बीकानेर शहर की फिलहाल सबसे बड़ी समस्या दो रेल फाटकों के चलते कोटगेट क्षेत्र का बार-बार जाम होता यातायात है जिसके एलिवेटेड रोड से समाधान पर सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपने इस कार्यकाल के पहले वर्ष में ‘सरकार आपके द्वार’ के तहत 2014 के जून के उत्तरार्द्धी पखवाड़े में जब यहां रही, अपनी सहमति दे दी थी। जून 2018 में राजे की उस सहमति को चार वर्ष पूरे हो रहे हैं। तब से यह शहर चकवे पक्षी की मुद्रा में एलिवेटेड रोड रूपी स्वाति नक्षत्र की उस बूंद को मुंह बाये ताक रहा है।
इन चार वर्षों में जब भी इस समाधान पर बात होती है, शहर कांग्रेस बायपास का राग अलापने लगती है। वहीं महात्मा गांधी रोड के कुछ व्यापारी विरोध में आ खड़े होते हैं तो प्रतिक्रिया में कुछ भाजपाई एलिवेटेड रोड के समर्थन में! इस बीच शहर के संतोषी बाशिंदों को बहलाने के लिए राज्य सरकार इस छोटी-सी योजना के लिए केन्द्र सरकार के परिवहन मंत्रालय के आगे हाथ पसार गुहार लगाती है और केन्द्र सरकार का परिवहन मंत्रालय भी ‘ले सवा लख’ की मुद्रा में अपनी दातारी दिखा देता है। वसुंधरा सरकार के इस छोटे लोभ ने शहर के उन ऐसों को अपनी शेखी बघारने का अवसर दे दिया जिन्हें इस शहर के हित अपने तरीके से साधने की सनक हो। तरीका व्यावहारिक है या नहीं उन्हें उससे मतलब नहीं। राज्य सरकार अपने 2 लाख 12 हजार करोड़ रुपये के वर्ष 2018-19 के बजट में यदि बीकानेर की इस एलिवेटेड रोड हेतु मात्र 135 करोड़ का भी प्रावधान कर देती तो हाइकोर्ट कम-से-कम इस बहाने तो इसे उलझाता नहीं।
ठीक इसी तरह एलिवेटेड रोड के वर्ष 2006-07 के नक्शे में उसकी चौड़ाई उतनी ही बढ़ाते जितने से, दोनों तरफ के किसी दुकान-मकान में टूटा-भांगी की आशंका नहीं होती तो योजना क्षेत्र के व्यापारियों के विरोध का हाव इतना नहीं खुलता, जितना अभी खुला है। इसे 12 मीटर विद पेव्ड सोल्डर तक बढ़ाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि सघन बसावट के बाद हर शहरी क्षेत्र में यातायात बढ़ने का एक चरम बिन्दु होता है जिसके हिसाब से बिना कैसी भी टूट-भांग के जितनी चौड़ी एलिवेटेड रोड बन सकती है, इस क्षेत्र के भविष्य के यातायात के लिए भी वह पर्याप्त होती। लेकिन राज का राजा कौन? कोई समझाए तो समझने को भी तैयार नहीं! लोभ में एन एच ए आई का घोचा डलवाया, अब तो लगता है एलिवेटेड रोड की चौड़ाई बढ़ाने का मकसद भी यही था कि सरकार को काम ना करने का बहाना मिल जाये!
इन सब रुकावटों को साधने का काम जनप्रतिनिधि कर सकते हैं। लेकिन अपने जनप्रतिनिधियों के ऐजेंडे में शहर की इस समस्या का समाधान ना कभी पहले वालों में था न अभी वालों में है। अपने सांसद अर्जुनराम मेघवाल की ऊठ-बैठ जिनके बीच रही है, उनसे इन्होंने चाहे कुछ और सीखा या नहीं, वे इतना जरूर सीख गये हैं कि बळती में हाथ नहीं देना है और यह भी कि मारो-मारो करते रहो पर मारना एक को भी नहीं है।
बीकानेर पूर्व की विधायक सिद्धिकुमारी जनप्रतिनिधि का धर्म निभाने को चुनाव कभी लड़ती ही नहीं, राज के रुतबे को भोगने के लिए लड़ती हैं और जनता अपनी खम्मा घणी मानसिकता में उन्हें जिता भी देती है। सिद्धिकुमारी को इस शहर के लिए कुछ करना तो दूर की बात, शहर की चिन्ता में कुछ सोचना भी ना पड़ जाय, इसलिए यहां कभी रहती भी नहीं हैं।
रही बात बीकानेर पश्चिम के विधायक गोपाल जोशी की तो सिद्धिकुमारी की तरह ही वे भी राज के रुतबे के लिए ही चुनाव लड़ते हैं। एक बार वे डॉ. बीडी कल्ला के नाकारापने से जीत लिये तो दूसरी बार जनता को मोदी द्वारा भरमाये जाने से। कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान पर तो उनकी स्थिति बेगम अख्तर की गायी दाग  दहलवी की इन पंक्तियों से अच्छे से समझ सकते हैं–
खूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं,
साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं!
ऐसे में कहें कि इस शहर का ‘राम’ ही मालिक है या इस शहर का कोई धणी-धोरी है ही नहीं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी!
इस सब का लबो-लुआब यह है कि सूबे में भाजपा की वसुन्धरा सरकार चार वर्षों तक इस शहर के लिए कुछ ना करते हुए भी करते हुए का स्वांग कर बहलाती रही और अपनी पारी लगभग पूरी खेल ली है। लगभग तीन महीने बाद चुनावी आचार संहिता लग जानी है और उसके पेटे कुछ ना कर पाने की लाचारी दिखाने का सरकार को बहाना भी मिल जाना है। चुनाव बाद सरकार किसी की भी आये उसका रंग-रूप बदला हुआ होगा। नई सरकार तक शहर की बात फिर से पहुंचाने में समय लगेगा। सरकार भाजपा की आयी तो देर-सबेर यही कवायद फिर शुरू होगी और कांग्रेस की आई तो बन्द गली के आखिरी मकान पर रेल बायपास जा के खड़ा हो लेना है। हालांकि जो संभव नहीं है उसकी संभावना भी कभी ना कभी खत्म होगी ही-इसमें दस लगे या बीस वर्ष, तब तक शहर को अपने अति-संतोषी होने का दण्ड कोटगेट क्षेत्र के जाम में भुगतते रहना है।
अब भी जिन्हें लगता है कि इस समस्या का समाधान रेल बायपास है, उन्हें 6 अप्रैल 2017 का ‘बायपास के बहाने एलिवेटेड रोड का विरोध करने वाले बीकानेर के शुभ चिन्तक हैं या शहर के खिलाफ साजिश में शामिल?’ आलेख को और जिन्हें लगता है अण्डर-पास समाधान है तो उन्हें 17 जून 2015 के ‘कोटगेट-सांखला फाटक : समाधान के लिए एकमत से सक्रिय होने का यही समय’आलेख का ‘रेल अण्डरब्रिज’खण्ड एक बार पढ़ लेना चाहिए। ये दोनों आलेख deepsankhla.blogspot.com पर उपलब्ध हैं।
–दीपचन्द सांखला
14 जून, 2018

Thursday, June 7, 2018

'गांव बंद' की पृष्ठभूमि और उसकी नौबत : सरकार-शहरियों की जिम्मेदारी


अपने हकों के लिए किसान-पशुपालक अब मुखर होने लगे हैं। सामान्यत: संतोषीयह समुदाय आजादी बाद के लम्बे समय तक अपने स्वभाव के चलते या इस उम्मीद में कि देश आजाद हुआ है, फिरते-फिरते दिन हमारे भी फिरेंगे, चुप्प रहा। कोशिशें भी हुईं, जो नेहरू के समय ही शुरू हो गईं थी। बड़े बांध और उनसे निकली नहरें सिंचित क्षेत्र के किसानों को सुखद और समृद्ध करती गईं। बीजों की गुणवत्ता से लेकर खेती के आधुनिक साधनों तक पर काम हुआ। इन सबके कुछ नकारात्मक परिणाम भी आए, सुविधा पाए किसान अपनी परम्परागत उपज और पशुपालन जैसे कामों को छोड़ अधिक लाभ के लालच में अधिक आय वाले किसानी कार्यों में लग गए, कम पानी की प्रकृति वाली जमीनें अधिक पानी मिलने से नाकारा होने लगी। वहीं दूसरी ओर किसानों का वह वर्ग जो सिंचाई के आधुनिक साधनों से महरूम था, उसकी पीड़ाएं-शोषण लगातार बढ़ते गये। जैसे तैसे कर्ज लेकर खेती करने वाले किसान को जब लगने लगता है कि वह कर्जा चुका ही नहीं पाएगा तो निराशा में मरने के अलावा उसे अन्य कोई उपाय सूझता नहीं।
बारानी इलाकों के जिन किसानों ने देखा-देखी में कैसे भी साधन जुटा नलकूप खुदवा खेती शुरू की, उन्होंने अपने क्षेत्र का पानी रसातल में पहुंचा दिया। नलों से घर-घर पानी पहुंचा तो तालाबों की कद्र खत्म हो ली। इस तरह अधिकांश इलाकों का आम ग्रामीण अब पीने के पानी का भी मुहताज हो लिया। मानवीय विवेक की कमी ने तकनीक के प्रयोग में आम गांववासी के लिए तकलीफें बढ़ा दीं, क्योंकि तकनीक अपने दुरुपयोग की आशंकाएं साथ ले कर आती है। अभावों में जीने वाला किसान तकनीक से लाभान्वित होने की बजाय संक्रमित होने लगा।
भारत देश का जैसा भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचा था, उसमें विकास का पश्चिमी मॉडल कारगर नहीं था, गांधी इसे अच्छी तरह समझे हुए थे। इसीलिए वे पारम्परिक साधनों-संसाधनों और तौर-तरीकों की पैरवी करते रहे, गांवों पर ध्यान देने की बात करते रहे। लेकिन यूरोप में पढ़े नेहरू पश्चिम से चुंधियाएं हुए थे, पढ़े तो गांधी भी यूरोप ही में लेकिन वे बौराए नहीं थे।
आजादी बाद नेहरू और अन्य कांग्रेसियों ने गांधी की कई बातों, धारणाओं-अवधारणाओं को नजरअंदाज किया, विकास का पश्चिमी तरीका अपनाया। कहा जाता है कि विकास का गलत मॉडल चुनने का एहसास नेहरू को होने लगा था, मृत्यु पूर्व सन्दर्भित विषय पर हुई बातचीत में नेहरू को यह कहते सुना गया कि 'लगता है गांधी की बात नहीं मान कर हमने बड़ी भूल कर दी।' अपने इस एहसास के बाद भूल सुधारने को नेहरू ज्यादा जीए नहीं। उनके सभी उत्तराधिकारीअन्य पार्टियों के भीउसी रास्ते चलते गये। उस भूल को बजाय सुधारने के उसी पर चलते रहने की मजबूरी ही थी कि देश को 1991 में वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपनाना पड़ा। वैसे अपनी भूलों का एहसास भी संवेदनशील नेहरू जैसे को ही हो सकता है। बावजूद इन सबके नेहरू को खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि नेहरू ने अर्थ व्यवस्था के पश्चिमी  मॉडल के बावजूद जो दिया, वर्तमान देश की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सभी तरह की उपलब्धियां उसी की बदौलत खड़ी हैं।
इस नई अर्थव्यवस्था में किसानी में लगा कृषि-प्रधान देश का बड़ा वर्ग आज न केवल उद्वेलित है बल्कि आन्दोलनरत है। वह अप्रासंगिक होता जा रहा है, राजनैतिक दल और सरकारें किसान की कीमत वोट बटोरू 'ईवीएम' से ज्यादा नहीं आंकती।
आजादी बाद से हमारे इस इलाके के पशुपालक वर्ग के बड़े हिस्से को अपनी आजीविका छोडऩे को मजबूर होना पड़ा, वहीं खेतिहर किसान भी लाचार होता गया।
देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानी में लगे इस बड़े समुदाय की दशा सुधारने की मंशा सरकारें जाहिर तो करती रही हैं लेकिन उसे क्रियान्वित करने से बचती भी रही। मनमोहनसिंह के नेतृत्व में संप्रग-एक की सरकार ने बड़ी उम्मीदें जताते हुए कृषि विशेषज्ञ एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया। उस आयोग ने लगभग दो वर्ष लगकर 2006 में खेती-किसानी के धंधे की दशा सुधारने के लिए अपनी रिपोर्ट में कई सुझाव दिये, जिसमें किसानों को उनकी उपज की लागत से दुगुना भुगतान दिलाने, कर्जे में राहत, फसलों का बीमा, अच्छे बीज और अन्य जरूरतें पूरी करने की बात कही, लेकिन मनमोहनसिंह सरकार इस पर विचार ही करती रही, इसी बीच 2014 में लोकसभा के चुनाव आ लिए, और सरकार चली गई।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने चुनावी वादों की झड़ी लगाई, उन्होंने ना केवल आमसभाओं में वादे किये बल्कि अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भी उपज की लागत पर 50 प्रतिशत जोड़कर भुगतान करवाने की बात कही। जिस किसान को लागत का आधा भी हासिल नहीं होता, उससे जब लागत का ड्योढ़ा देने का वादा किया गया तो उसकी उम्मीदें हरी होना वाजिब है।
मोदी सरकार को शासन में आए चार वर्ष हो गये, इनके द्वारा किए अन्य सभी वादों की जो गत है उससे कुछ ज्यादा बुरी गत किसानों से किए वादों की है। इस राज में हताश किसानों की आत्महत्याएं बढ़ी हैं। यहां तक कि इस नाउम्मीदी ने राजस्थान में भी दस्तक दे दी है। लगता है राजस्थान में वह सामाजिक सौजन्यता खूटने लगी है, जिस पर हम अक्सर आत्ममुग्ध हुए बिना नहीं रहते आए हैं। अब तो जब-तब हमारे प्रदेश से भी किसानों की आत्महत्या के समाचार मिलने लगे हैं।
ऐसे में अब सरकार को किसानों की इन वाजिब मांगों को स्वीकारने की कार्ययोजना बना लेनी चाहिए। कर्जा माफी जैसे वोट बटोरू उपायों के बजाय उपज की लागत का डेढ़ा-दुगुना दाम दिलाने की पुख्ता व्यवस्था करना और किस क्षेत्र के किन किसानों को कौन सी फसलें लेनी है, उसकी कार्ययोजना भी इस हिसाब से बनवाना कि उपज आने पर ऐसा ना हो कि कोई फसल दोगुनी-चौगुनी आ जाए और कोई आए ही नहीं? उपज में संतुलन के मद्देनजर बुआई से पूर्व अलग-अलग फसलों की क्षेत्रवार खरीद की दरें घोषित हों ताकि क्षेत्र-विशेष के किसान उसी फसल की बुआई करें। फसल बीमा और बुआई से संबंधित सभी जरूरतों की पूर्ति गुणवत्तापूर्वक करना भी सरकार जरूरी समझे।
मोदीजी की सरकार नाइजीरिया के किसानों से तय भाव की शर्त पर दालें खरीदने का समझौता कर सकती है तो भारतीय किसानों को डेढ़े भाव देने का कोरा वादा ही क्यों?
रही बात 'गांव बंद' की तो हम शहरियों को खुद को समझदार और ग्रामीणों को गंवार समझना अब छोड़ देना चाहिए। हमें इस आन्दोलन के साथ ना केवल सद्भावना जतानी चाहिए बल्कि किसानों और पशुपालकों की उपज और उत्पादों से जुड़े शहरी उद्योगों और दुकानदारों को आन्दोलन के सहयोग में अपने धंधों को बन्द रखना चाहिए। यही असली राष्ट्र भावना है और जिस राष्ट्र भावना का हम दम भरते नहीं थकते, उसकी मैली मंशा तो केवल वोट बटोरने की है।
दीपचन्द सांखला
07 जून, 2018