Thursday, March 30, 2023

मनीषी डॉ. छगन मोहता

अगस्त, 1947 के पूर्वाध में जब देश आजादी की अगवानी में व्यस्त थातब भारतीय संघ में विलय से अनमने बीकानेर महाराजा सादुलसिंह कुचमादी में लगे थे। देशभक्त उत्साही 15 अगस्त, 1947 के दिन तिरंगा फहराने की इजाजत के लिए उनके पास गये तो इजाजत तो दी लेकिन इस शर्त के साथ कि तिरंगे के साथ बीकानेर रियासत का झंडा भी फहराना होगा। 

तर्कशील युवा डॉ. छगनउनके साथी तब उन्हें इसी नाम से पुकारते थेको यह शर्त जमी नहीं। उन्होंने तत्काल एक पर्चा निकाला और तर्क के साथ अपने इस आग्रह को उचित ठहराने की कोशिश की कि देश और रियासत के झंडों के साथ मेरे मुहल्ले तेलीवाड़े के झंडे को भी क्यों नहीं फहराया जाना चाहिए। आजाद होते विशाल भारत देश में बीकानेर रियासत का यदि अलग अस्तित्व है, तो मेरे मुहल्ले तेलीवाड़े का भी है! अपनी इसी थीसिस पर रामरतन कोचर के संपादन में निकलने वाले 'गणराज्य' के लिए तब एक व्यंग्य भी उन्होंने लिखा।

डॉ. छगन आजादी आंदोलन से सीधे तो नहीं जुड़े थे लेकिन समाज सुधार के कार्यों और बौद्धिक बहसों में सक्रिय रहे। आजादी के आंदोलनकारी आजादी बाद रियासती विलय का इंतजार कर रहे थे, तब भी उन्होंने हाथ पर हाथ धर कर बैठना उचित नहीं समझा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सामाजिक कार्यों में जुट गये। प्रजा परिषदï के लगभग हजार कार्यकर्ताओं ने बीकानेर की हरिजन बस्ती में केवल स्वच्छता अभियान चलाया, अभियान के दौरान खान-पान भी हरिजनों के साथ किया। इस अभियान में 18 लोग पुष्करणा ब्राह्मण समुदाय से थे। इनमें डॉ. छगन मोहता और छोटूलाल व्यास भी थे। 26 सितंबर, 1948 के दिन उन्होंने यह अभियान शुरू किया। ब्राह्मणों में अपने को श्रेष्ठ मानने वाले पुष्करणा समुदाय ने इन सभी को जाति-बाहर कर दिया। 

डॉ. छगन मोहता का जिक्र करते हुए लेखक-विचारक नन्दकिशोर आचार्य बताते हैं कि 1970 के दशक में कभी स्थानीय रोटरी क्लब ने 'भारतीय संस्कृति : मूल संकल्पना' विषय पर उनका व्याख्यान रखा। डॉ. छगन मोहता उसमें आमंत्रित नहीं थे। लेकिन उन्हें कहीं से पता चला तो बिन बुलाए ही व्याख्यान में पहुंच गये। उनसे मंच पर बैठने का आग्रह किया तो यह कह मना कर दिया कि मैं तो नन्दकिशोर को सुनने आया हूं। आचार्य का व्याख्यान हो गया। जिज्ञासाएं और प्रश्नों के लिए श्रोताओं को आमंत्रित कियालेकिन सभागार में सन्नाटा। डॉ. छगन मोहता समझ गये कि जिस शब्दावली और भाषा में व्याख्यान था, वह आम श्रोताओं के समझ में नहीं आया। खड़े हुए और बोलने की इच्छा प्रकट की। मंच तो यही चाहता थापोडियम पर आमंत्रित कर लिया। डॉ. छगन मोहता ने यह कर बोलना शुरू किया कि नन्दकिशोर ने बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं लेकिन जिस भाषा और शब्दावली में कही, शायद संप्रेषित नहीं हो पायी। व्याख्यान को मैंने जैसा समझा उसे बताने की मंच से इजाजत चाहता हूं। मंच तो कृतार्थ था ही। डॉ. साहब धाराप्रवाह बोलने लगे। सभागार में शुरू हुई हलचल से उसका चेतन होना जाहिर होता गया। डॉ. साहब ने बोलना बन्द किया तो पूरा सभागार चहचहाने लगा और यह मानने लगा कि आचार्य ने इतनी महत्त्वपूर्ण बातें कही और हमारी समझ में नहीं आयी। 

आचार्य इस आयोजन का जिक्र करते हुए यह जरूर बताते हैं कि मुझे उस दिन से मालूम हो गया कि आप कितने भी गूढ़ विषय पर बोलें, आपकी भाषा और शब्दावली उपस्थित श्रोताओं के स्तर की हो अन्यथा कितना भी महत्त्वपूर्ण कहा गया हो, वह सब व्यर्थ चला जायेगा।

एक और आयोजन का जिक्र जरूरी लग रहा है। अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त फोटोग्राफर शिवजी जोशी (दर्शनशास्त्र के व्याख्याता) तब बीकानेर में रहते थे। अपने दो साथियों देवीचंद गहलोत (फोटोग्राफर) और डॉ. पुरुषोत्तम आसोपा (हिन्दी के व्याख्याता) को साथ लेकर मरुधर कैमरा समिति का गठन किया और फेडरेशन ऑफ इंडियन फोटोग्राफी से उसे केवल संबद्ध करवाया बल्कि उसके 11वें द्वि-वार्षिक सम्मेलन की मेजबानी भी ले आये। तारीखें तय हुईं 17-18-19 दिसम्बर, 1983 और सभागार तय हुआ सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज का, जहां का फोटोग्राफी कक्ष देवीचन्दजी संभालते थे। उद्घाटन के लिए केन्द्र में तत्कालीन पर्यटन उपमंत्री अशोक गहलोत ने हां कर दी। लेकिन उद्घाटन की पूर्व संध्या पर आयोजकों को संदेश मिला कि गहलोत राजकार्य की अपरिहार्य व्यस्तता के चलते सुबह पहुंच नहीं पाएंगे। तैयारियों में पूरी तरह व्यस्त आयोजकों के हाथ-पाँव फूल गये। 

डॉ. छगन मोहता का ध्यान आने पर राहत महसूस इस शंका के साथ की कि हमने तो उन्हें इस आयोजन में आमंत्रित ही नहीं कियाऐसे में उन्हें किस मुंह से जाकर कहें कि उद्घाटन आप कर दें? यह सब विचारतेदेर शाम हो गयी और तय किया सुबह सीधे उन्हें लेने ही पहुंच कर क्षमा याचना कर लेंगे। सुबह आयोजक उनके आवास पहुंचे और सब कुछ बता दिया। डॉ. साहब ने पूछा कि कब आना है? शिवजी ने कहा, अभी हमारे साथ ही चलना है, देशभर के नामी-गिरामी फोटोग्राफर बीकानेर चुके हैं और तय समय पर वे हमारा इंतजार करेंगे। डॉक्टर साहब ने चलने के लिए बड़ी सहजता से कपड़े बदले और साथ चल दिये। उद्घाटन सत्र शुरू हुआ। आयोजकों ने आगंतुकों से रात से अभी तक के परिवर्तनों को संक्षिप्त में बताकर कार्यक्रम शुरू किया।

डॉ. छगन मोहता ने जब तक उद्घाटन उद्बोधन शुरू नहीं किया, तब तक आयोजक आशंकित रहे कि हमने इन्हें समय तो दिया नहीं, ऐसे में क्या और कितना बोलेंगे। लेकिन ज्यों-ज्यों डॉक्टर साहब बोलने लगे, सभी श्रोता उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनने लगे। उन्होंने फोटोग्राफी की दार्शनिक व्याख्या से अपना उद्बोधन शुरू किया और भारतीय और पश्चिमी माइथोलॉजी के सन्दर्भ देकर पुष्टि करने लगे। श्रोता तो श्रोता, आयोजक भी स्तब्ध। साथ ही आयोजकों के चेहरे पर संतोष का गहरा भाव झलकने लगा।

उद्घाटन सत्र के तुरंत बाद चाय पर सब के सब डॉक्टर साहब को घेरकर अपने प्रश्न और जिज्ञासाएं रखने लगे। डॉ. साहब ने यथासंभव सभी को संतुष्ट किया। 

रिकार्डिंग की जरूरत आयोजकों ने तब समझी नहींइतने साधन भी नहीं थे। डॉ. छगन मोहता के उस उद्बोधन को रिकार्ड कर पाने का मलाल जितना आयोजक को है उससे ज्यादा मुझे भी है। क्योंकि मैं उस कार्यक्रम में उपस्थित था, मुझे अपने मलाल का भान पूर्व में हो जाता तो कहीं से भी टेपरिकार्डर लेकर जाता, खैर!

ऐसे थे डॉ. छगन मोहता जिन पर लिखने का मन वर्षों से थाकेवल इसलिए नहीं कि लिखना है, बल्कि इसलिए भी लिखना है कि उनके सान्निध्य में अपने को जितना भी परिपक्व-पुष्ट किया और सीखा-समझा उससे थोड़ा ही सही, ऋण मुक्त होना है।

डॉ. छगन मोहता का जन्म 1907 में बीकानेर के पुष्करणा ब्राह्मण समाज के एक सामान्य परिवार में हुआ। घर के आर्थिक हालात ऐसे नहीं थे कि वे पढ़ पातेदूसरी-तीसरी कक्षा में ही पढ़ाई छोडऩी पड़ी। लेकिन पिता गोविन्दलाल को बालक छगन की जिज्ञासा प्रवृत्ति का भान हो गया और उसे सामाजिक-पारिवारिक रूढिय़ों में बांधने की कभी कोशिश नहीं की। लेकिन घर चलाने के लिए छगन को 12-13 की उम्र में ही आजीविका की तलाश में कलकत्ते जाना पड़ गया। इस उम्र में मानव-श्रम का काम तो उन्हें कौन देता। बंगाली के एक होमियोपैथ फिजिशियन को ऐसे ही बालक की तलाश थी जो उनके लिखे-इशारे की दवाइयां खुराक के अनुसार तैयार करके दे देवे।

क्लीनिक आते-जाते दुकानों पर लगे साइनबोर्ड पढ़-पढ़ कर बांग्ला सीखी। दोपहर में जब क्लीनिक बन्द होता तो किशोर छगन अखबार पढ़ता। अंग्रेजी 'लीडर' और उसका हिन्दी संस्करण 'भारत' क्लीनिक में आते थे। 'भारत' की खबरें 'लीडर' की खबरों का लगभग अनुवाद होती थीं। किशोर छगन खबर को पहले 'भारत' में पढ़ते और फिर उसी को 'लीडर' में अंग्रेजी में पढऩे का अभ्यास करते। अंग्रेजी पढऩा किशोर छगन ने इसी तरह सीखा। अंग्रेजी सीख लिए तो क्लीनिक में पड़ी होमियोपैथी की पुस्तकें पढऩे लगे। इस तरह होमियोपैथी की किताबों के अध्ययन से दवा देते समय समझ जाते कि मरीज की बीमारी के लक्षण क्या हंै।

पारिवारिक कारणों से कलकता प्रवास लम्बे समय तक नहीं निभा। छगन को बीकानेर लौटना पड़ा। लेकिन कलकत्ता के उस कुछ समय के प्रवास में उन्होंने केवल बांग्ला और अंग्रेजी पढऩा सीख लिया बल्कि होमियोपैथी के 'लॉजिक' पर अपनी पकड़ बना ली कि इस चिकित्सा पद्धति में निदान का आधार बीमारी नहीं मरीज के लक्षण हैं।

बीकानेर आकर करे तो क्या करेघर के माली हालात अच्छे नहीं थे। अनुभव और पढऩे की रुचि के आधार पर होमियोपैथी का सर्टिफिकेट कोर्स कर जैसे-तैसे साधन जुटा कर घर के पास ही होमियोपैथी का क्लीनिक शुरू कर लिया। इसी से युवा छगन की पहचान डॉ. छगन के तौर पर हुई। यहां अच्छी भली साख बनने के बावजूद बड़े परिवार का पालन उस क्लीनिक से संभव नहीं हो रहा था क्योंकि होमियोपैथी की साख तब और आज भी सस्ते इलाज की ही है।

क्लीनिक के अलावा डॉ. छगन सभा-गोष्ठियों में भाग लेते। पढऩे की रुचि को बनाये रखने के लिए पुस्तकालयों अन्य कहीं से भी पुस्तकें जुगाड़ते और उन्हें पढ़ते। अपनी स्मरण शक्ति और तार्किक बुद्धि के साथ बहसों में भाग लेते, प्रतिक्रिया देते। ऐसे ही एक दिन स्थानीय 'गुण प्रकाशक सज्जनालय' (पुस्तकालय-वाचनालय) में समाज सुधार पर गोष्ठी थी। जिसमें परम्परागत और रूढ़ सामाजिकों का उन्होंने तार्किक विरोध खुलकर किया। उसी गोष्ठी में सेठ रामगोपाल मोहता भी थेजो खुद केवल समाज सुधारक थे, बल्कि पढऩे-लिखने में भी उनकी गहरी रुचि थी। उस गोष्ठी में डॉ. छगन से सेठ रामगोपाल प्रभावित हुए और उन्हें अपने साथ रख लिया। यहीं से डॉ. छगन की जिंदगी में बदलाव आया, वे उन सेठ रामगोपाल के निजी सहायक की भूमिका निभाने लगे। इस संग-साथ से केवल घर-परिवार संभला, डॉ. छगन को अध्ययन-मनन की अनुकूलता भी मिली। पढऩे-लिखने की रुचि वाले सेठ रामगोपाल डॉ. छगन की रुचि की हर किताब उपलब्ध करवा देते। इनका अध्ययन कर दोनों उस पर गहन चर्चा, विमर्श करते। इस जुगलबंदी से सेठ रामगोपाल का निजी पुस्तकालय समृद्ध होता गया जो बाद में आनन्द निकेतन का समृद्ध पुस्तकालय बना। अब इस पुस्तकालय की कोई सार-संभाल नहीं है। 

सेठ रामगोपाल की समझदारी उदारता के चलते डॉ. छगन के व्यक्तित्व का भी विकास होता गया। एक समय ऐसा आया कि तब बीकानेर में किसी भी विधा-विषय की गोष्ठी होडॉ. छगन मोहता के बिना वह अधूरी लगने लगी। होमियोपैथी चाहे आजीविका नहीं रही हो, लेकिन उससे भी वे लगातार अपडेट रहते। किसी मरीज का कहीं इलाज नहीं होता तो वे डॉ. छगन के पास पहुंच जाते। वे सहर्ष सही परामर्श देकर इलाज भी कर देते।

बीकानेर में होमियोपैथी के वरिष्ठ फिजिशियन डॉ. दीपक एन. उभा (एमडी होमियोपैथ) बताते हैं कि जब कंप्यूटर नहीं आया था तब डॉ. छगन मोहता मरीज के लक्षण पता कर अपनी स्मृति के आधार पर दवा बताते और पुष्टि के लिए यह भी बताते कि पुस्तकालय की फलानी अलमारी में अमुक स्थान पर यह किताब रखी हैउसकी पृष्ठ संख्या इतने पर ऐसे लक्षणों के लिए इसी दवा की अनुशंसा की गयी है। डॉ. दीपक चकित होकर बताते हैं कि उनके बताए में राई-रत्ती अंतर नहीं होता। यही स्मरण शक्ति उनकी धर्म-दर्शन आदि अन्य विषयों की पुस्तकों को लेकर भी थी। चर्चा-बहस में जरूरत होने पर वे इसी तरह बता देते कि किताब  विशेष के अमुक पृष्ठ पर यह लिखा हैऔर वैसा ही लिखा मिलता भी।

होमियोपैथी इलाज को लेकर राजस्थान के पूर्व मंत्री और समाजवादी महबूब अली का किस्सा मशहूर है। उन्हें चर्म रोग हुआ। डॉक्टर साहब होमियोपैथी से इलाज कर रहे थे। होमियोपैथी दवाओं की प्रकृति अनुसार रोग एग्रावेट हुआ। महबूबजी दवा लेते रहे और तकलीफ पाते रहे। डॉक्टर साहब के पास नहीं गये। इन्हें मालूम हुआ तो महबूबजी को बुलाया और डांटते हुए कहा कि इलाज कोई मजहब नहीं जो पकड़कर बैठ गये, तकलीफ ज्यादा है तो ऐलोपैथी डॉक्टर को दिखलाओ।

महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण से प्रभावित डॉ. छगन मोहता का एम एन रॉय, अज्ञेय, जैनेन्द्र कुमार, मन्मथनाथ, डॉ. राधाकृष्ण आदि से जीवन्त संवाद रहा। बाद की पीढ़ी के किशोर सन्त, अनिल बोर्दिया, हरीश भादानी, नन्दकिशोर आचार्य, मानिकचन्द सुराना, गिरधर राठी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे।

रेडिकल और थियोसोफिस्ट रहे डॉ. छगन मोहता अपनी वृद्ध-वय में जब भक्ति-भागवत की ओर प्रवृत्त होने लगे तो 'प्रेमसाÓ नाम के उनके साथी ने उलाहना दिया कि डॉ. छगन, तुमने हमें तो नास्तिक बना दिया और खुद वहीं लौट गये। इस पर डॉ. छगन मोहता ने हंसते हुए जवाब दिया कि मैंने जड़ होने का नहीं, प्रोगे्रसिव बने रहने का कहा है। 

डॉ. छगन मोहता के सान्निध्य में बहुत सामान्य घरेलू बुजुर्ग स्त्रियों और पुरुषों के साथ भजन कीर्तन का सत्संग नियमित होता था, इस सत्संग में ढोलक डॉ. मोहता खुद बजाते वहीं सप्ताह में एक बार वेदविज्ञों के साथ होने वाले वैदिक सत्संग में बेहद गरमा-गरम बहस के साथ गंभीर चर्चा में भी भाग लेते। ऐसी गोष्ठियों में एक-दो बार मैं भी गयालेकिन लौटकर सिर पकड़ खुद से यही कहा कि यह सब अपने बस का नहीं है।

इतना ही नहीं, अपने को प्रतिभाशाली और पात्र मानने वाले कुछ मूढ़मति भी डॉ. छगन मोहता के साथ घंटों जुगाली करते और डॉक्टर साहब धैर्य से उनके साथ बातें करते। दो-तीन बार ऐसों में मैं भी फंस गया। डॉक्टर साहब से पुत्रवत् स्नेह हासिल था ही तो उनके जाने के बाद मैंने नाराजगी से कहा, आप ऐसों को क्यों बर्दाश्त करते हो, आपका कितना समय खराब कर दिया। इस पर डॉक्टर साहब ने हँसकर कहा, तुमने देखा नहीं यह कितने तनाव में आया था और अब रिलेक्स होकर गया है, मेरे लिए यह आत्मसंतोष कम नहीं है। 

मैंने जब प्रकाशन का काम शुरू करना तय किया तो यह भी निश्चय किया कि वाग्देवी प्रकाशन के पहले सैट में डॉक्टर साहब की पुस्तक भी होगी। लेकिन लिखने से हमेशा बचने वाले डॉ. छगन मोहता का लिपिबद्ध एक ही लेख मिला वह भी आकाशवाणी की उनकी वार्ता का। लोकायन, दिल्ली द्वारा डॉ. छगन मोहता के साथ तीन दिवसीय संवाद का आयोजन किया गया। जिसमें किशोर संत, पंकज, सुरेश शर्मा और नन्दकिशोर आचार्य आदि शामिल थे। इस संवाद के आधार पर दो आलेख तैयार हुए। प्रज्ञा परिवृत्त द्वारा आयोजित व्याख्यानों से भी दो आलेख तैयार किये गये। प्रज्ञा परिवृत्त और कुछ अन्य व्याख्यानों की रिकार्डिंग मेरे द्वारा की गयी, जिनकी कैसेट मेरे पास सुरक्षित थी। 

डॉ. छगन मोहता से उनकी किताब तैयार करने की बात चली तो पहले तो वे आनाकानी करते रहे। फिर उन्होंने मुझे तो नहीं, अपने पुत्र डॉ. श्रीलाल मोहता से कहा यह दीपा किताब छापने की जिद किये हुए है! मेरे पास पैसे नहीं है। इस योजना से वाकिफ डॉ. श्रीलाल मुस्कुरा कर रह गये। पुस्तक का सम्पादन नन्दकिशोर आचार्य को ही करना था। डॉक्टर साहब ने भी यही कहा, किताब नन्दकिशोर तैयार कर दे तो अच्छी बन जायेगी। 

इस तरह वाग्देवी प्रकाशन के पहले सैट के लिए 'संक्रान्ति और सनातनता' पुस्तक तैयार हुई। सैट की अन्य तीन पुस्तकें वी एम तारकुण्डे की 'नवमानववाद', नन्दकिशोर आचार्य की 'रचना का सच' और मख़्मूर सईदी की 'पेड़ गिरता हुआ' थी। 

इस सैट के प्रकाशन के साथ वाग्देवी प्रकाशन की देशव्यापी प्रतिष्ठा बनी, वे विद्वज्जन भी 'संक्रान्ति और सनातनता' कृति के माध्यम से डॉ. छगन मोहता की मनीषा से वाकिफ हुए जिन्होंने केवल उनका नाम भर सुना था। लगभग सभी प्रतिष्ठित अखबारों-पत्रिकाओं में पुस्तक की समीक्षाएं प्रकाशित हुईं।

डॉ. छगन मोहता के सन्दर्भ से 5, डागा बिल्डिंग का जिक्र हो तो बात अधूरी रह जायेगी। बीकानेर महात्मा गांधी रोड स्थित डागा बिल्डिंग का पांच नम्बर क्वार्टर आजादी, बाद सामाजिक-राजनैतिक, साहित्यिक चर्चाओं का केन्द्र रहा। राजस्थान के समाजवादी और पूर्व वित्तमंत्री रहे मानिकचन्द सुराना के इस क्वार्टर की चर्चाओं में शहर के तमाम युवा तुर्क और बौद्धिकगण शामिल होते। जिनमें कन्हैयालाल कोचर भी थेजो मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत के मीडिया सलाहकार रहे। हरीश भादानी के 'वातायन' का दफ्तर भी यहीं पर था। 

डॉक्टर छगन मोहता बीकानेर की अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और सामाजिक संस्थाओं से जुड़े रहे। इनमें से एक अनिल बोर्दिया और मेजर जनरल जयदेवसिंहजी के साथ मिलकर स्थापित बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति भी है। इस समिति से उनका विशेष लगाव था। उनकी कोशिश रहती कि संस्था का ढांचा निर्मल बना रहे और रहा भी। महबूब अली संस्था के सदस्य थे। महबूब अली मंत्री बने तो सदस्यता से इस्तीफा मांग लिया, ताकि राजनैतिक हस्तक्षेप की किसी तरह की गुंजाइश रहे। 

आज जब लोकतंत्र ताक पर है, संवैधानिक संस्थाएँ अपने अस्तित्व को जूझ रही हैं, बीकानेर शहर में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं जो वर्तमान की जिज्ञासाओं के समाधान दे सके, सवालों का तार्किक जवाब दे सके। तो 1986 में जा चुके डॉ. मोहता की कमी उन लोगों को ज्यादा खलती है, जो उनके साथ उठते-बैठते थे। अपने सवालों के जवाब उनसे पाते और जिज्ञासाओं के समाधान भी उनसे हासिल करते थे।

पिछली सदी के 9वें दशक में ओम थानवी को दिये साक्षात्कार में उन्होंने कहा, 'आज गांधी की सबसे ज्यादा जरूरत है।' गांधी की जरूरत उसी दशक में खत्म नहीं हो गयीवह जरूरत लगातार बढ़ती गयी है। अब तो केवल गांधी की बल्कि उन डॉ. छगन मोहता की जरूरत भी महसूस करते हैं जिन्होंने अपने अन्तिम दिनों में शुभू पटवा को दिए साक्षात्कार में वर्तमान परिदृश्य की भविष्यवाणी कर दी थी। शुभू पटवा ने उनसे प्रश्न किया कि क्या आप महसूस करते हैं कि इन परिस्थितियों में राजनैतिक क्रांति की आवश्यकता है? डॉ. मोहता का उत्तर था, ''राजनैतिक क्रान्ति तो अब हो नहीं सकती, यदि होगी तो वह प्रतिक्रांति होगी। राजनीतिक क्रान्ति के अब इससे आगे बढऩे की कोई संभावना नहीं है।'' इस पर पटवा ने प्रतिक्रान्ति का तात्पर्य जानना चाहा तो डॉ. मोहता ने इसे स्पष्ट करते हुए बताया, ''किसी तरह की 'डिक्टेटरशिप' स्थापित हो जाए अथवा कोई संकीर्ण विचारधारा वाली सत्ता आगे जाये, तो वह प्रतिक्रान्ति ही है।''

मैं उनमें से हूं जिन्हें डॉ. मोहता का सान्निध्य मिला। प्रतिदिन घंटों उनके साथ बैठने का, गूढ़ से गूढ़ और सामान्य से सामान्य बातें उनसे सुनने-समझने का, अपनी जिज्ञासाओं-सवालों के समाधान पाने का अवसर युवा होने की वय में हासिल था। 

दीपचंद सांखला

30 मार्च, 2023