कार्टूनों का इतिहास मोटा-मोट अठारहवीं (ईस्वी) शताब्दी के अन्तिम वर्षों से और शुरुआत अमेरिका से मानी गई है। किसी सूचना को या किसी नापसन्दगी को तीखे ढंग से अभिव्यक्त करने या किसी बात को सीधे-सीधे न कहने की आजादी न होने पर यह विधा बहुत कारगर मानी गई है। लगभग चित्रात्मक इस विधा में रेखाओं के माध्यम से एक दृश्य उत्पन्न किया जाता है, और कलाकार गहरे व्यंग्य या तंज के साथ अपनी बात को कह डालता है। अच्छा कार्टून उसे ही माना गया है जिसमें किसी संदेश को या बात को तंज के साथ अभिव्यक्त करने के लिए न्यूनतम शब्दों का सहारा लिया गया हो।
अपने देश में आर के लक्ष्मण ने अंग्रेजी अखबारों के माध्यम से बरसों-बरस तक इस विधा का न केवल भरपूर उपयोग किया बल्कि वह भारत में इस विधा के लगभग ट्रेड सैटर भी माने जाते हैं। बाद में जनसत्ता के साथ आये काक ने शुरुवाती दौर में काफी लोकप्रियता हासिल की-लेकिन बाद के उनके कार्टून लगभग हाइगोल होने लगे। बाद में राजेन्द्र घोड़पकर ने अपने कार्टूनों के माध्यम से आकर्षित किया लेकिन अब उन्होंने भी इस विधा को लगभग छोड़ दिया है। हमारे शहर के सुधीर तेलंग और पंकज गोस्वामी ने भी इस विधा में राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है।
कार्टूनों का टारगेट अधिकांशत: राजनीति रही तो गैर राजनीतिक कार्टूनों की टारगेट स्त्री। राजनीति को टारगेट किया जाना तो समझ में आता है लेकिन स्त्रियों को टारगेट करना समझ से परे है।
लेकिन इन दिनों भ्रष्टाचार के बोल-बाले और नई आर्थिक नीतियों के चलते गरीब और अमीर के बीच लगातार बढ़ती खाई के परिणामत: इस विधा में कुण्ठाएं भी देखने मिलने लगी है।
असीम त्रिवेदी इसके ताजा उदाहरण हैं। जिन्होंने अपनी कुण्ठाओं को जाहिर करने का माध्यम कार्टून विधा को चुना सो तो ठीक लेकिन जिन प्रतीकों को उन्होंने काम में लिया वह राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक हैं-जैसे राष्ट्रचिह्न अशोक स्तम्भ, भारत माता और संसद भवन। मानवीय सभ्यता में प्रतीकों के माध्यम से गौरवान्वित-श्रद्धावनत होने की लम्बी परम्परा रही है-सामान्यत: यही होता आया है कि ऐसे प्रतीकों से असहमतियां होने के बावजूद सम्मान चाहे न प्रकट करें लेकिन निरादर का भाव नहीं देखा गया है। इसके पीछे कारण यह माना जाता रहा है उन प्रतीकों के प्रति सम्मान का भाव रखने वालों की भावना आहत न हो-जो उचित ही है।
जैसी कि परिस्थितियां देश और समाज में है उसके चलते असीम त्रिवेदी की कुण्ठाएं जायज ही हैं लेकिन उन्हें इतना तो ख्याल रखना चाहिए था कि वह अपनी विधा के माध्यम से अशोक चिह्न में शेरों की जगह भेड़िये और सत्यमेव जयते की जगह भ्रष्टमेव जयते न दिखाते या राजनीतिज्ञों और अफसरशाही के सहयोग से भ्रष्टाचार को भारत माता का बलात्कार करते न दिखाते या लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सर्वोच्च प्रतीक संसद भवन को कमोड के रूप में चित्रित न करते।
इन कार्टूनों पर किसी वकील द्वारा थाने में रिपोर्ट करने के आधार भर से ही देशद्रोह मान लेना और असीम त्रिवेदी को हिरासत में लेना भी कानून व्यवस्था में लगे लोगों की हड़बड़ी कहा जायेगा। क्योंकि कानून के रखवालों का शर्मनाक ढंग से ‘बेकफुट’ होना यह जाहिर करता है कि हर किसी प्रतिक्रिया को देशद्रोह नहीं माना जा सकता है। ठीक उसी प्रकार से जैसे माओवादियों की हिंसा को आप आतंकवादी हिंसा नहीं कह सकते।
— दीपचन्द सांखला
12 सितम्बर, 2012
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