Wednesday, June 21, 2023

निराशा और ऊब से मुठभेड़

 मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ

विष से अप्रसन्न हूँ

इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए।

मुक्तिबोध

देश, काल, परिस्थितियां निराशा और ऊब पैदा करने वाली हो तो और भी चुनौतीपूर्ण हो जाती है। पिछले एक अरसे से ऐसी ही मन:स्थिति है, जिसमें कुछ कहने का मन नहीं होता, ऐसा तो नहीं है कि कुछ कहने-लिखने से बचना चाहता हूँ, बचने जैसा तो नहीं है, सोशल मीडिया पर लिखना इसका सबूत है?

लेकिन निराशा तो है, झूठ और पाखण्ड के इस बोल-बाले में जब कुछ ही लोग सत्य को, मानवीय को अभिव्यक्त करते हैं तो प्रेरित होता हूँ।

1947 में देश आजाद हुआ। सर्व समावेशी, समतामूलक मानवीय संविधान लागू हुआ, देश के लिए ये नये सवेरे जैसा था। पता नहीं कितनी सदियों से हमारा समाज गैर बराबरी को ढो रहा था। उसी सामाजिक गैर बराबरी ने ही गुलामी को अनुकूलता दी, फिर वह गुलामी स्थानीय सामन्तों की हो या विदेशी। विशिष्ट वर्ग ने उस गुलामी में भी अपनी विशिष्टता बनाये रखने की अनुकूलता बना ली। गुलाम होते हुए भी एक छोटा वर्ग समूह विशिष्ट बना रहा। उसी समूह के एक वर्ग को यह आजादी, बराबरी को हासिल करती सामाजिकता रास नहीं रही है। उसे लगता है कि इस तरह हमारा वैशिष्टय धीरे-धीरे नष्ट हो जायेगा। ये समूह आजादी के आन्दोलन में साथ नहीं था। क्योंकि गांधी के नेतृत्व में रूपांतरित हुआ आजादी का आन्दोलन सामाजिक समानता के आह्वान के साथ ही पुरजोर हुआ।

वह कथित विशिष्ट समूह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) में मुखरित हुआ, जो आजादी बाद से ही अपने उद्देश्य कोजाहिर है यह समूह सत्ता के सभी रूपों-यथा शासन, प्रशासन और धनोपार्जन के साधनों की चाबी अपने पास रखता रहा था। आजादी बाद उसकी यह अनुकूलता लगातार खत्म होती जा रही थी। बावजूद इसके वह कभी निराश हुआ और कभी हार मानी। अफसोस और आश्चर्य यह है कि अन्य तमाम बौद्धिक विचारधाराएं, यथा-समाजवादी, गांधीवादी, मध्यमार्गी, यहां तक कि वामपंथी तक उनके इस खतरे को भांप नहीं पाये। बल्कि समाजवादियों और गांधीवादियों का एक समूह तो आज भी आसन्न गुलामी के इस खतरे से आंखें मूंदे संघ (आर एस एस) के प्रति उदार भाव रखे हुए है।

वह संघ-जिसका लोकतंत्र में विश्वास है, ही सामाजिक समानता में-सत्य से तो उसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं है, वास्ता है तो इतना ही कि वह झूठ को सच के तौर पर स्थापित करने में लगा है। ऐसा ही वास्ता उसका धर्म के साथ है, वह अधर्म को धर्म के तौर पर स्थापित करने में लगा है और सफल भी होता दिख रहा है। 

सफल इसलिए कि आजादी के इन पचहत्तर वर्षों में संविधान सम्मत नागरिक जागरूकता के कोई प्रयास नहीं हुए। आजादी का मतलब हो गया अराजकता। जिसका जितना बस चला भ्रष्ट हो गया, जहां बस चला अतिक्रमण कर लिया, हरामखोरी पर उतर आया। इस सबके चलते वही हुआ जो होना था। वही विशिष्ट समूह जिसके पास जाति वर्गीय विशिष्टता थी, धन बल था, दबंगई थी वह लगातार ताकतवर होता गया और अब तो उसने अपनी ताकत को बढ़ाने और बनाये रखने के लिए धर्म (असल में जो अधर्म ही है) की आड़ ले ली, और उसी वर्ग को सम्मोहित करसेवक और दास बनाकर जिसका शोषण करना ही मकसद है। आज की वर्गीय शब्दावली से समझें तो वह वर्ग है दलित और ओबीसी। ये दोनों वर्ग अपने उस इतिहास से आंखें मूंदे हैं जिसमें ओबीसी वर्ग की सामाजिक स्थिति सेवकों की थी और दलितों की दासों की। यही दो वर्ग कथित धर्म की आड़ में अपनी गुलामी न्योत रहे हैं। केवल न्योत रहे बल्कि उसे अपने कंधों पर लिवा ला रहे हैं।

वे यह भूल रहे हैं कि धर्म निजी आस्था का मसला है, प्रदर्शन का नहीं। वे ये भी भूल रहे हैं कि जिस धर्म की आड़ में अपनी गुलामी को न्योत रहे हैं उसी धर्म की आड़ में उनके लिए कितनी सीमाएं-वर्जनाएं और मर्यादाएं थोपी हुई थी। 

इसलिए कहना यही है कि उस हिन्दू धर्म की चिंता छोडिय़े जिसका मुगलों और अंग्रेजों के हजार वर्ष के शासन में कुछ नहीं बिगड़ा- मुगल इस्लामी थे और अंग्रेज ईसाई। धर्म को निजी आस्था का मसला रखें और अपनी सामाजिक-आर्थिक हैसियत की चिंता करें, वह हैसियत जो बड़ी जद्दोजेहद के बाद 1947 में हासिल होनी शुरू हुई है।

संघ की आज की कथित उदारता रणनीतिक है। जैसे ही सत्ता के  सभी संसाधनों पर वे पूरी तरह काबिज होंगे, दलितों और पिछड़ों को उनका स्थान दिखाते देर नहीं करेंगे। लेकिन यह बात इन दोनों ही वर्गों को समझ नहीं रही। मेरी निराशा और ऊब की वजह यही है। लेकिन इस निराशा और ऊब से मुठभेड़ कर निकल लेंगे, ऐसी उम्मीद है। यह टीप उसी मुठभेड़ का नतीजा है।

दीपचन्द सांखला 

22 जून, 2023