Monday, July 24, 2023

हित-समूह से गिरोह में तब्दील होते संघ और यूनियन

 कोटगेट रेलवे फाटक की जगह प्रस्तावित अण्डरब्रिज के विरोध की जो सुगबुगाहट कुछ दिन पहले शुरू हुई थी वह अब मुखर होने लगी है। सुगबुगाहट जिन्होंने शुरू की वो भी राजनीति करते हैं। इसलिए न्यास अध्यक्ष के लिए उन्हें सन्तुष्ट करना आसान था, वे हो भी गये। कहते भी हैं कि गूंगे की भाषा गूंगा जल्दी समझता है। लेकिन कल इस मुद्दे पर अचानक आई मुखरता चौंकाने वाली तो नहीं है, सवाल बनता है कि कल के मुखर हुए ये व्यापारी नुमाइंदे इस मुद्दे पर अब तक मौन क्यों थे? यह जानने की उत्सुकता जरूर बनी। महात्मा गांधी रोड के व्यापारियों की नुमाइंदगी का दावा करने वाले यह लोग तब भी सक्रिय दिखे, जब एलिवेटेड रोड की योजना आयी थी। तब तो इन्होंने पूरे शहर के व्यापार उद्योग जगत की नुमाइंदगी करने वाले संघ को ही हाइजेक कर लिया था। व्यापार-उद्योग मण्डल के तब के नियन्ताओं ने भी इनके स्वार्थी हबीड़े को न केवल विवेकहीन स्वीकृति दे दी थी बल्कि उस योजना को ठण्डे बस्ते में ही डलवा दिया!

लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी समूह की नुमाइंदगी करने वालों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने समूह के हितों की रक्षा तो करें, लेकिन इस हित रक्षा की सीमा वहां समाप्त हो जाती है, जहां किसी अन्य समूह या व्यापक समाज या देश और इससे भी आगे की बात करें तो इस चर-अचर जगत के हितों की जहां अनदेखी या नजरंदाजी शुरू होती है। अन्यथा यह हितसमूह जिन्हें प्रकारान्तर से संघ, एसोसिएशन या यूनियन कहा जाता है, सीमा का उल्लंघन करने वाले ऐसे सभी समूह गिरोह में तबदील हुए दिखाई देने लगते हैं।

गड़बड़ तब से शुरू होने लगी जब ऐसे संघों आदि की नुमाइंदगी किसी बड़े धनी को, किसी राजनीतिक आका के हाजरिये को या किसी कण्ठबलि को जो हाके अच्छे कर सकता हो, या किसी बूकिये वाले दबंग को देनी शुरू कर दी गई। इनको नुमाइंदगी देने का मतलब यही माना जा सकता है कि आप अपने संघ, यूनियन, एसोसिएशन को हितसमूह की जगह स्वार्थी गिरोह में बदलना चाहते हैं।

अपनी समझ पर आयी धुंध को थोड़ा साफ करके इन हितसमूहों को समझने की कोशिश करेंगे तो आपको लगने लगेगा कि इनमें से अधिकांश आज एक गिरोह के रूप में काम कर रहे हैं।

खैर, कल जिन्होंने कोटगेट आरयूबी का विरोध किया है, उन्होंने इकतरफा यातायात व्यवस्था का भी विरोध किया और इन्होंने ही पहले एलिवेटेड रोड का भी विरोध किया था। क्या ये सभी अपने स्वार्थी कवच से बाहर आकर यह बताएंगे भी कि इस शहर के बढ़ते यातायाती दबाव का समाधान फिर क्या है? वे यह भी समझें कि सबके हितों से उनके स्वयं के हित भी सधेंगे क्योंकि अन्तत: इन 'सब' में वे भी शामिल हैं।

—दीपचन्द सांखला

9 अगस्त, 2012

No comments: