Monday, July 17, 2023

नुगरे हम और पर्यावरण दिवस

 आज विश्व पर्यावरण दिवस है। हमारे लोक में दिन उनका मनाया जाता है जो हमेशा के लिए छोड़ जाता है। लेकिन सभ्य कहे जाने वाले समाज में दिन मनाने की यह परम्परा लगभग पिछली एक सदी से शुरू हुई है, शायद पश्चिम के  प्रभाव में। इन दिवसों में उलटबांसी देखने को मिलती है। जैसे पर्यावरण को ही लें-पर्यावरण हमें छोड़ कर नहीं गया, हमने ही उसकी सुध लेनी छोड़ दी है। इसलिए 364 दिन उसे बिसारने को पुष्ट करते हुए एक दिन उसे याद करने की रस्म अदा करते हैं। ऐसे ही मां दिवस, मानवाधिकार दिवस, अहिंसा दिवस, महिला दिवस, जल दिवस आदि-आदि भी मनाये जाते हैं। यह सब दिवस उनके  हैं जिन्हें हमने भुला दिया या जिन्हें हमने मान देना छोड़ दिया है। पर्यावरण तो है वो कहीं छोड़कर नहीं गया है हमें। पर्यावरण नहीं रहेगा तो हम भी नहीं रहेंगे। हेकड़ी में बिना पर्यावरण के रहने की ठान भी लेंगे तो न मिनख-से रहेंगे और न लगेंगे। शरीर पर कवच होगा-पीठ पर ऑक्सीजन का सिलेण्डर होगा और मुँह पर मास्क। ऐसा नहीं है कि यह सब बातें हमारे कानों में नहीं पड़ती हैं, पड़ती हैं-या तो हम अनसुना करते हैं या फिर इस पर ध्यान देने की प्राथमिकता और अवकाश नहीं है हमारे पास। किसी प्रकार की भविष्य चिन्ता के  बिना लगे हैं पर्यावरण को नष्ट-भ्रष्ट करने। यह जानते हुए भी कि न केवल जीवन बल्कि जीवन के आनन्द का दाता भी पर्यावरण ही है। इसकेे लिए राजस्थानी में हमारे लिए एक शब्द है नुगरा। वैसे इसका शाब्दिक अर्थ है जिसके  गुरु नहीं हो या जिसने गुरु से ज्ञान नहीं लिया है। लेकिन लोक में इस शब्द को कृतघ्न के  लिए काम में लेते हैं। कृतघ्न यानी वो जो अपने पर किये उपकार  को भूल जाता है। हम चलते-फिरते, सोते-उठते जिस तरह से व्यवहार करने लगे हैं, वो नुगरों के श्रेणी में ही आता है। हममें से प्रत्येक जैसे ही समर्थ होता है वह नुगरा होने को तत्पर हो जाता है।

पिछली लगभग दो सदियों से विकास की जिस सुरंग में हम घुस गये या घुसा दिये गये हैं उसमें हम नुगरा होने को अभिशप्त भी हो गये हैं। पर यह खतरनाक ज्यादा है कि हमें नुगरे हो जाने का एहसास नहीं होता।

हम जो अपने जायों के  लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं-तब हम यह कैसे भूल जाते हैं कि हम अपने जायों के  जाये के  लिए क्या छोड़कर जाएंगे? इसका भान जब नहीं होगा तब अपने जायों के  लिए कुछ करने का भी कोई मतलब है क्या!! विकास की इस अंधी सुरंग से तो शायद अब न निकल पायें हम, लेकिन नुगरे होने के  कलंक से बचने को तो अब भी बहुत कुछ शेष है।

दीपचन्द सांखला

5 जून, 2012

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