Wednesday, April 26, 2023

सचिन पायलट के दावों की पड़ताल

 2013 के राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि की विधानसभाओं और 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व अन्ना आन्दोलन, निर्भया कांड और महालेखा परीक्षक विनोद राय के नकारात्मक खुलासों के माध्यम से देश में कांग्रेस के खिलाफ जबरदस्त माहौल बनाया गया। आरोप है कि अन्ना आन्दोलन और केग के खुलासे आरएसएस तथा प्रमुख विरोधी भारतीय जनता पार्टी द्वारा स्क्रिप्टेड थे। इसी दौरान जून, 2013 में गोवा में भाजपा कार्यसमिति ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपना चुनावी चेहरा घोषित कर दिया। नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद और साम-दाम-दण्ड भेद के साथ मैदान में उतर गये। कांग्रेस विरोधी माहौल, देश-खासकर हिन्दी पट्टी-ने उन्हें हाथों हाथ लिया।

इसी माहौल में दिसम्बर 2013 में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम की विधानसभाओं के चुनाव हुए। दिल्ली की जिस शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली तीन बार की कांग्रेस सरकार ने राजधानी का हुलिया बदल दियावहां भी कांग्रेस बुरी तरह हारी। दिल्ली विधानसभा की कुल 70 में से 2008 के चुनाव परिणाम में कांग्रेस के पास जहां 43 सीटें थी, वहां 2013 में सीधे 8 सीटों पर गिरी। राजस्थान में कांग्रेस का लगभग इतना ही बुरा हाल हुआ। 2008 में 200 के सदन में कांग्रेस के पास 96 विधायक थे—2013 में मात्र 21 ही रह गये। घोर एंटीइनकंबेंसी के बावजूद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें रिपीट कर गयीं। जिस तरह का माहौल था उसमें इस तरह के चुनाव परिणामों पर किसी एक को दोषी ठहराना सही आकलन नहीं हो सकता।

इसी परिप्रेक्ष्य में बात राजस्थान की करते हैं। गहलोत नेतृत्व की अच्छी-भली सरकार के चुनावी हश्र का जिक्र कर ही दिया। चुनाव परिणाम के तुरंत बाद बदलाव के लिए जनवरी, 2014 में केन्द्र में मंत्री और अजमेर सांसद सचिन पायलट को राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। सचिन पायलट उन राजेश पायलट के बेटे हैंजिन्हें खुद राजीव गांधी अपनी मित्रता के चलते राजनीति में लेकर आये। जनता पार्टी के असफल प्रयोग के बाद 1980 के लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश मूल के दिल्ली निवासी राजेश पायलट को कांग्रेस ने राजस्थान के भरतपुर लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया। जनता पार्टी से मोहभंग के उपरांत हुए इन चुनावों वे जीत गये।

राजेश पायलट की पत्नी भी राजनीति में राजस्थान के माध्यम से आयीं। 1990 और 1998 में हिंडोली विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक चुनी गयीं।

1984 के चुनाव में सीट बदल कर राजेश पायलट दौसा गये और 2000 में सड़क दुर्घटना में निधन तक राजेश पायलट दौसा से ही चुने जाते रहे। उनके निधन के बाद 2001 में हुए मध्यावधि चुनाव में रमा पायलट वहीं से चुनाव जीत गईं।

वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में रमा पायलट राजनीति से बाहर हो लीं, और पुत्र सचिन पायलट राजनीति में लिए। 2004 के चुनाव में सचिन दौसा से ही चुन कर लोकसभा में पहुंचे। पायलट परिवार की राजनीति और राजस्थान दोनों में एंट्री का इतिहास यही है। 2009 में दौसा सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित हो जाने पर सचिन पायलट अजमेर चले गये और चुनाव जीत गये। दूसरी बार जीतने पर सचिन पायलट केन्द्र में मंत्री बनाए गये। पढ़े-लिखे थेउसी प्रकार के उनके पास मंत्रालय थे। राज्यमंत्री होते हुए भी स्वतंत्र प्रभार के मंत्री रहे।

2013 में राजस्थान में कांग्रेस की हार के बाद जनवरी, 2014 में सचिन पायलट को राजस्थान प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बना दिया गया। यह फेरबदल मई 2014 में आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर किया गया, सचिन पायलट के पीसीसी चीफ रहते कांग्रेस केवल 25 की 25 सीटें हार गयी, बल्कि केन्द्र में मंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए खुद सचिन पायलट भी अजमेर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हार गये।

देश में माहौल ऐसा था जिसमें सचिन ही क्यों, कोई और भी उनकी हैसियत में होता तो परिणाम यही रहते। इसलिए सचिन पायलट जब बार-बार 2013 में गहलोत की हार का जिक्र करते हैं तो अपनी जिम्मेदारी में हुई हार को भूल जाते हैं।

1980 से राजस्थान में राजनीति करने वाले उत्तरप्रदेश मूल के पायलट परिवार ने आज तक राजस्थान में स्थाई निवास नहीं बनाया। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद भी सचिन अतिथि की तरह जयपुर आते और अधिकतर पार्टी मुख्यालय में अपने गुट के लोगों के साथ बैठक कर दिल्ली लौट जाते। उनके जयपुर होने का समाचार सुन प्रदेशभर से पार्टी कार्यकर्ता पहुंचते लेकिन भीड़ में अपने को असहज पाने वाले पायलट अधिकतर से मिलने की जरूरत तक नहीं समझते। जो व्यक्ति दिल्ली में रहता हो, उससे प्रदेश के जिला-तहसील, गांव तक पहुंचने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। 

सोशल मीडिया के सचिन समर्थक ट्रोलरों से मैं दो सवाल करता हूं। पहलाअपने साढ़े छह वर्ष के अध्यक्षीय कार्यकाल में कुल जमा डेढ़ वर्ष भी सचिन राजस्थान में रहे क्या? दूसरा सवाल कि राजस्थान में 33 जिले हैं, साढ़े छह वर्ष के कार्यकाल में प्रत्येक जिले की तीन यात्राओं का औसत भी उनका है क्या? मेरे ये दोनों ही सवाल हर बार अनुत्तरित रहे। इन सवालों से इतना सुकून जरूर मिलता कि वे ट्रोलर नदारद हो लेते हैं।

इसी बीच अशोक गहलोत का जिक्र करना यहाँ जरूरी है। 2014 में लोकसभा की जबरदस्त हार के बाद गहलोत को पार्टी में संगठन महासचिव की जिम्मेदारी दी गयी। जयपुर निवास के बावजूद उन्होंने केवल दिल्ली में संगठन महासचिव जैसी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया, जब भी समय मिलता केवल जयपुर में नजर आते बल्कि प्रदेश के किसी भी कोने में पहुंचने का उन्हें बहाना मिल जाय तो वे पहुंचते। 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव को देखते हुए पार्टी ने संगठन महासचिव जैसी पूर्णकालिक जिम्मेदारी के बावजूद गुजरात का प्रभार भी उन्हें दिया गया। चुनाव पूर्व एक वर्ष तक दिल्ली और राजस्थान की दोहरी जिम्मेदारी के होते अधिकतर समय उन्होंने गुजरात को दिया। गुजरात के मृतप्राय सांगठनिक ढांचे को पंचायत तहसील स्तर तक पुनर्जीवित किया। गुजरात में सरकार चाहे बनी हो लेकिन सीटों और वोट प्रतिशत में आश्वस्तकारी बढ़ोतरी हुई। 2018 के बाद गुजरात में यदि गहलोत की तरह ही ध्यान दिया जाता तो 2022 के चुनावों में वहां कांग्रेस की वह गति नहीं होती जो हुई।

सचिन पायलट 2018 के चुनावों में जीत का श्रेय लेते भूल जाते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में वे खुद केवल प्रदेश अध्यक्ष थे बल्कि सूबे के उप मुख्यमंत्री भी थे। ऐसे में 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सभी 25 सीटें क्यों हार गयी?

2018 के विधानसभा चुनावों की हार-जीत का मेरा आकलन यह है कि उस चुनाव में कांग्रेस को जितवाने में मोदी-शाह की कम भूमिका नहीं थी। आपको ध्यान हो तो संघ-भाजपा और मोदी भक्तों में अंदर खाने एक नारा बहुत चला 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं।'  यह नारा मोदी-शाह की उस खीज की उपज था जो वसुंधरा राजे द्वारा उन्हें भाव देने से उपजी थी। वसुंधरा के आगे मोदी और अमित शाह जैसे 'तुर्रमखां' असहाय थे। 2018 के चुनाव परिणामों को औसत में मापा जाय तो आकलन यही है कि कांग्रेस की 99 सीटें आने का 40 प्रतिशत श्रेय मोदी-शाह समर्थकों के उस खीज भरे नारों को, 40 प्रतिशत अशोक गहलोत की साख और संबंधों को और चूंकि पार्टी अध्यक्ष सचिन पायलट थे और गुर्जर-मीणाओं ने उस चुनाव में कांग्रेस को वोट किया, इसलिए शेष 20 प्रतिशत का श्रेय पायलट को दे सकते हैं।

कांग्रेस की सरकार गिराने के जून, 2020 के मानेसर षडयंत्र को उचित ठहराते हुए सचिन पायलट समर्थक गुट कहता है कि 2018 में मुख्यमंत्री बनने का हक सचिन का था, जिसे अशोक गहलोत ने हड़प लिया। दूसरी बात वे ये कहते हैं कि उप-मुख्यमंत्री पद के बावजूद गहलोत उन्हें कोई काम करने नहीं दे रहे थे।

पहली बात का जवाब तो यह है कि सोनिया-राहुल की कांग्रेस का काम करने का तौर तरीका इंदिरा-राजीव की कांग्रेस के तौर-तरीके से ज्यादा लोकतांत्रिक है। इंदिरा-राजीव निर्णय थोपते थे। सोनिया-राहुल पार्टी को आम राय से चलाने के पक्षधर रहे हैं। 2018 के चुनाव परिणाम के बाद जब नेता चुनने के लिए आये पर्यवेक्षकों ने विधायकों की राय जानी तो 99 में से 23 विधायकों ने ही सचिन पायलट के पक्ष में राय दी और 76 विधायकों ने अशोक गहलोत के पक्ष में। ऐसे में हाइकमांड सचिन को कैसे थोप सकते थे?

उनकी दूसरी बात कि अशोक गहलोत उन्हें काम करने नहीं दे रहे थे! यहां यह बताना जरूरी है कि सचिन के लिए जब उपमुख्यमंत्री पद तय हुआ तो सचिवालय के संपदा अधिकारियों ने अपने हिसाब से भवन में उपमुख्यमंत्री का सचिवालय तैयार कर लिया। जब सचिन कार्यालय पहुंचे तो उसे पूरी तरह से खारिज करके, भवन के दूसरे हिस्से में अपने हिसाब से सचिवालय तैयार करवाया। लेकिन पता कीजिए सचिन उसमें बैठे कितने दिन? सचिन पायलट को सार्वजनिक निर्माण विभाग, ग्रामीण विकास विभाग, पंचायती राज विभाग जैसे बड़े बजट के महत्त्वपूर्ण विभाग दिये गये। वे चाहते तो अपने इन तीन विभागों के माध्यम से प्रदेश के कोने-कोने तक अपनी जड़ें जमा सकते थे। अलबत्ता तो अधिकतर वे रहते ही दिल्ली थे और आते भी तो जरूरी फाइलें जयपुर के अपने अस्थाई निवास या पीसीसी कार्यालय में मंगवा कर खानापूर्ति करते रहे। जयपुर आने का असल काम उनका विधायकों से सम्पर्क का था ताकि कैसे भी वे उनके पक्ष में आकर मुख्यमंत्री बनवा दें। 

सचिन की इसी लालसा में अति महत्त्वाकांक्षी उनके लोगों और पार्टी विरोधियों ने अवसर देखा और मानेसर बगावत की भूमिका तैयार कर दी। याद कीजिये जून 2020 में जब प्रदेश ही नहीं पूरे देश में कोरोना ने पांव पसार (कोविड-19 महामारी ने) अपनी गिरफ्त में ले लिया था। ऐसे में जब केन्द्र सरकार के रस्म अदायगी सहयोग के बावजूद राजस्थान की सरकार इस महामारी से उपजी आपदा के बेहतर से बेहतर प्रबंधन में जुटी थी, तब प्रदेश के ग्रामीण विभाग जैसे महकमे वाले उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट को गांव-ढांणी तक राहत पहुुंचाने में जुटना था। तब यही सचिन पायलट मुख्यमंत्री बनने के लालच में विरोधियों के षडयंत्र में फंसकर 18 विधायकों को लेकर पड़ोसी भाजपा शासित राज्य हरियाणा के मानेसर स्थित विलासी रिसोर्ट में जा बैठे। अशोक गहलोत को भी सूबे की कांग्रेस सरकार को बचाने के लिए अन्य रिसोर्ट में शरण लेनी पड़ी। पहली बात तो यह कि सचिन पायलट को कोई शिकायत थी तो पार्टी के मंच पर उठाते। तब हाइकमांड सचिन की केवल सुनता था बल्कि जब मरजी आये सोनिया-राहुल से वे मिल भी सकते थे। लेकिन बगावत का रास्ता अपनाकर पहले सोनिया-राहुल का भरोसा उन्होंने खोया और बाद उसके एक-एक कर सब शुभचिंतकों में अपनी साख खो दी।

मानेसर षडयंत्र से अपनी साख खो चुके सचिन और उनके समर्थक 25 सितम्बर, 2022 को हाइकमांड के पर्यवेक्षक मल्लिकार्जुन खरगे और प्रदेश प्रभारी अजय माकन द्वारा आहूत बैठक में विधायकों के आने की आड़ में मानेसर के अपने पाप धोना चाहते थे। लेकिन पार्टी विधायकों की गुटबाजी को और विरोधी दल के साथ मिलकर पार्टी की सरकार को गिराने के षडयंत्र को एक कैसे मान सकते हैं? मानते हैं कि पार्टी पर्यवेक्षकों द्वारा बुलाई गई बैठक में विधायकों का उपस्थिति होना अनुचित था लेकिन जैसा विधायकों ने बताया कि जिन प्रभारी महासचिव को निष्पक्ष रह कर विधायकों की राय जाननी थीवे ही अजय माकन विधायकों से मोबाइल पर अलग-अलग बात कर सचिन पायलट के पक्ष में राय देने का दबाव बना रहे थे।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो 25 सितम्बर, 2022 का अपना डेमेज कन्ट्रोल कर लिया। वहीं सचिन पायलट की स्थिति यह है कि उनसे सोनिया मिलना चाहती है और राहुल गांधी। 25 सितम्बर, 2022 के एपिसोड में अपने साथी अजय माकन के ऐजेन्डे से वाकिफ मल्लिकार्जुन खरगे अब राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उनकी राय को इससे समझ सकते हैं कि अजय माकन की राजस्थान की उस भूमिका के बाद पार्टी अध्यक्ष ने उन्हें सभी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया।

मेरा आकलन यही है कि उप मुख्यमंत्री बनने के बाद सचिन पायलट बिना किसी दुराग्रह के अपना मंत्रालय संभालते और बेहतर उदाहरण पेश करते तो 2022 में जब कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए अशोक गहलोत के नाम पर सहमति बनीतब हाइकमांड के यहां अपनी साख के चलते वे गहलोत के स्वाभाविक उत्तराधिकारी होते। अशोक गहलोत चाहकर भी विरोध नहीं कर पाते। 

अधकचरे मीडिया मित्रों, नासमझ सलाहकारों और अंधभक्तों के प्रभाव में अच्छे भले नेता सचिन पायलट ने विरोधियों के षडयंत्र में फंस अपनी सारी इमेज खत्म कर ली। बल्कि उसके बाद भी ऐसा कोई प्रयास नहीं किया जिससे अपने मानेसर डैमेज को कंट्रोल किया जा सके। उन्होंने अब अपनी स्थिति ऐसी कर ली है कि पार्टी में रह कर 2028 तक कुछ खास हासिल कर पाएंगे और पार्टी के बाहर जाकर।

सचिन के समझदार और अच्छा डिबेटर-ऑर्रेटर होने के नाते मैं कभी प्रशंसक था, अब लगता है कि ऐसी धारणा बनाते समय व्यक्ति की निष्ठा और नीयत की पड़ताल भी अवश्य करनी चाहिए।

और अंत में...वसुंधरा राजे 2013 से 2018 तक मुख्यमंत्री थीं तब अशोक गहलोत ने विधानसभा में सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये और इसी मुद्दे पर सचिन पायलट की अगुवाई में कांग्रेस ने प्रदर्शन भी किये।

अभी चार वर्ष बाद अचानक सचिन ने भ्रष्टाचार के उन आरोपों के आधार पर अपनी ही सरकार को घेरने के लिए 11 अप्रेल को 5 घंटे के उपवास की घोषणा कर दी। पार्टी हाइकमांड के रुख को देखकर तत्काल ही उस उपवास का रुख वसुंधरा की ओर मोड़ दिया, ऐसे में आयोजन तो हुआ, लेकिन उद्देश्य ऊक-चूक हो गया।

यहां मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार के इस तरह के आरोप सरकारों पर आजादी बाद से ही लगते रहे हैं। कई बार सरकारें मुसीबत में आईं तो कभी सरकारें चली भी गयीं। लेकिन सरकार बदलने पर बदले की भावना 1977 थी जनता पार्टी सरकार के समय में और अब 2014 के बाद मोदी-शाह के राज के अलावा कभी नहीं देखी गयी।

इसके मानी यह कतई नहीं है कि भ्रष्टाचार का विरोध नहीं होना चाहिए। भ्रष्टाचार की जांच कर उजागर करने वाले स्थानीय एंटी-करप्शन ब्यूरो से लेकर ऊपर सीबीआई, ईडी और सीएजी तक को दक्ष और निष्पक्ष बनाये रखना जरूरी है। सूचना के अधिकार कानून के साथ लोकपाल जैसी व्यवस्थाएं भी लागू होनी चाहिए। लेकिन क्या इतने भर से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जायेगा! तब तक नहीं लगता जब तक हम में से प्रत्येक खुद भ्रष्टाचार करें- भ्रष्ट नेताओं को चुने। यह सब नहीं होता है तब तक भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना ढोंग ही लगेगा। कोई राजनीतिक दल या नेता ऐसा नहीं है जो यह दावा करता हो कि उसके चुनाव-उसकी रैलियों और अन्य आयोजनों में अवैध धन नहीं लगा है। ऐसा दावा नहीं है तो राजनीतिक अस्तित्व के लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध किये जाने वाले आयोजन-उपवास हास्यास्पद ही होंगे। 

वैसे भी भ्रष्टाचार के मुद्दे की पूर्णाहुति अन्ना हजारे 2014 में चुके हैं।

दीपचंद सांखला

27 अप्रेल, 2023