Friday, July 21, 2023

वेटेनरी छात्र- आंदोलन : क्या खोया क्या पाया

 'किसने क्या खोया, क्या पाया', इस पर विचार किए बगैर यह स्वागत किये जाने योग्य है कि 23 दिन से चल रहा वेटेनरी छात्र आंदोलन कल वेटेनरी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. ए. के. गहलोत और छात्र प्रतिनिधियों की बातचीत के बाद समाप्त घोषित कर दिया गया है। अब दोनों पक्षों का दायित्व है कि पढ़ाई के लिए समुचित वातावरण बनाया जाए और 23 दिन की हड़ताल के चलते विद्यार्थियों की पढ़ाई का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जाए। इसमें स्थगित परीक्षाओं की तिथियां पुन: तय करने की बात भी शामिल है।

जिस तरह तुरत-फुरत हुई वार्ता में बिना किसी गतिरोध के आंदोलनरत छात्रों के उठाये मुद्दों पर सहमति बनी और आंदोलन समाप्त करने का निर्णय किया गया, उससे यही लगता है कि छात्र भी इस लम्बे चले आंदोलन से आजिज़ आ गए थे। तभी तो आंदोलन के सूत्रधार निष्कासित छात्र अम्बुज शर्मा को दरकिनार कर छात्र प्रतिनिधि वार्ता की मेज तक पहुंचे। शायद अपनी इसी उपेक्षा के कारण और अपने द्वारा शुरू करवाये गए आंदोलन का अपने हक में कोई नतीजा न निकलते देख कर ही अम्बुज शर्मा ने इस समझौते को छात्रों के साथ धोखा बताया हैा। अम्बुज के प्रति लगभग यही भावना उनके साथ जुड़कर आंदोलन में सहयोगी बने वेटेनरी छात्रों की भी रही। लम्बे चले आंदोलन के बीच शायद उन्हें अहसास हुआ कि इक्का-दुक्का छात्रों के निहित स्वार्थों का शिकार होकर आंदोलन मंझधार में फंस गया है। यही कारण रहा कि आंदोलन से थक चुके छात्रों ने विश्वविद्यालय प्रशासन से वार्ता के लिए 'बाहर' से मिले आमंत्रण को ही 'डूबते को तिनके का सहारा' समझा और जस-तस हुई सहमति को ही अपनी जीत मानकर धरना व अनशन समाप्त कर दिया।

वैसे गौर से देखा जाए तो वार्ता के बाद घोषित समझौते के बिन्दुओं में ऐसा कुछ विशेष नहीं है जो विश्वविद्यालय प्रशासन पहले से कह न चुका हो। आईसीएआर मॉडल एक्ट लागू करने, निजी कॉलेजों को बंद करने, पी.जी. प्रवेश नियमों में बदलाव, पी.जी. स्टाइपेंड बढ़ाने जैसे मामलों पर विश्वविद्यालय प्रशासन जो बातें पहले कह चुका था, वही समझौते में भी रखी गई। आंदोलन के दौरान छात्रों के खिलाफ बनाए गए मुकदमों पर सहानुभूति से विचार का आग्रह संबंधित पक्षों से करने के आश्वासन के अलावा नई परीक्षा तिथियों के बारे में विचार करने की बात भी समझौते में शामिल है जो स्वाभाविक ही है।

कुल मिलाकर 'क्या खोया, क्या पाया' के आकलन के बाद छात्रों को लग सकता है कि क्या उन्होंने इसके लिए अपनी 23 दिन की पढ़ाई की कुर्बानी और परीक्षाओं के बहिष्कार का खतरा उठाया है? इससे सबक लिया जा सकता है कि मुद्दों के औचित्य-अनौचित्य पर गंभीरता से विचार किए बगैर निहित स्वार्थों के बहकावे में आकर आंदोलन में कूद पडऩा कतई समझदारी नहीं है। खासकर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले, कॅरियर के लिए संघर्ष कर रहे छात्रों के लिए तो बिलकुल भी नहीं।

—दीपचन्द सांखला

4 जुलाई, 2012

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