Monday, July 17, 2023

आपातकाल और बीकानेर–2

 देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था के खिलाफ जेपी की जगाई अलख पर मिट्टी डालने को आपातकाल लगाया गया और उस प्रत्येक को जो इन्दिरा गांधी के खिलाफ था-देश के खिलाफ मान लिया गया। ऐसे सभी विरोधियों को मीसा में या फिर डी आई आर में बंद कर दिया गया था। लेकिन जेलें तो उसी कुव्यवस्था की हिस्सा थी जिसके खिलाफ आक्रोश पनपा था। बीकानेर की जेल भी कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार से अछूती नहीं थीं। इस जेल में जीवन की न्यूनतम जरूरतों की व्यवस्था भी सलीके से नहीं थी। न ढंग के बैरक, न पाखाने और खान-पान तो ऐसा कि जानवर भी उसे विकल्पहीनता की स्थिति में ही खाए।

पांच-दस दिन तो इन राजनीतिक कैदियों ने देखा-समझा और भुगता लेकिन उसके बाद वे अपनी पे आ गये-जिस आपातकाल के शुरू में लोग डकार और उबासी के लिए मुंह खोलने से पहले विचारते थे उसी आपातकाल के पहले महीने में जेल की कुव्यवस्था के खिलाफ सर्वोदयी सोहनलाल मोदी, समाजवादी आर के दास गुप्ता और माक्र्सवादी शोपतसिंह ने भूख हड़ताल कर दी-प्रशासन भी शायद इनकी इच्छाशक्ति को तोलने में लगा होगा। तभी यह भूख हड़ताल पन्द्रह दिन चली-इसी दौरान आर के दास गुप्ता ने बीकानेर के तत्कालीन जिला कलक्टर अरुण कुमार को कैदियों की सुविधाएं जेल मैन्युल के अनुसार करवाने को पत्र लिखा तथा उसमें गुप्ता ने जिला कलक्टर को आगाह इस भाषा में करवाया कि 'कल के बन्दी आज के शासक हैं और आज के बंदी कल के शासक होंगे'। बाद में जब जनता पार्टी की सरकार में आर के दास गुप्ता विधायक चुने गये तो उन्हीं अरुण कुमार ने जयपुर में गुप्ता से मुलाकात होने पर उनका स्वागत करते हुए उनका वही वाक्य उद्धृत किया।

पन्द्रह दिन बाद जेल और जिला प्रशासन को झुकना पड़ा और न केवल इन राजनीतिक बन्दियों हेतु व्यवस्था को सुधारा गया बल्कि जेल के सभी बन्दियों के खान-पान और रहन-सहन में सुधार किया गया क्योंकि इन सत्याग्रहियों की मांगों में सभी कैदियों के लिए व्यवस्था सुधारना भी शामिल था।

बाद में तो इन राजनीतिक कैदियों ने अपने जेल जीवन को सहज-सरस बना लिया था, कभी विचारोत्तेजक बहसें होती तो कभी कवि गोष्ठी। मक्खन जोशी ने अपना बहुत-सा स्वाध्याय इसी दौरान किया-बाहरी मित्र उन्हें पुस्तकें उपलब्ध करवा दिया करते थे। मक्खन जोशी पहलवान भी थे, कभी जोर भी आजमा लेते और अकसर हंसी-ठठ्ठा करते। समाजवादी आर के दास की माक्र्सवादी शोपतसिंह और हेतराम से वैचारिक चर्चा के दौरान कई बार गरमा-गरमी भी हो जाती। पूर्णानन्द व्यास अन्य कैदियों को माक्र्सवाद समझाने का मौका तलाशते रहते। कुछ बाद में आये सोमदत्त श्रीमाली कभी सहज नहीं हो पाये, वे या तो अपने भविष्य की चिन्ता करते या फिर उसके लिए पूजा-पाठ।

1977 के आते-आते इन्दिरा को शायद अपने लोकतान्त्रिक संस्कार कचोटने लगे। उन्हें विदेशों में अपनी साख भी पुनस्र्थापित करनी थी। उधर सरकार के खुफिया विभाग ने भी पता नहीं कैसे रिपोर्ट दे दी कि अभी चुनाव होते हैं तो इन्दिरा गांधी सत्ता में लौट आएंगी। इन्हीं सबके चलते इन्दिरा ने आम चुनावों की घोषणा कर दी-और धीरे-धीरे इन सभी कैदियों को छोड़ा जाने लगा। फिर क्या था लोकतन्त्र का पिटारा पुन: खुल गया और पूरे देश की फि•ाा बदल गई। ज्यों-ज्यों मतदान की तारीख नजदीक आती गई त्यों-त्यों इन्दिरा और उनके सिपहसालारों में हतप्रभता बढ़ती गई। चुनाव हुए तो लोकसभा की रंगत भी बदल गई! 24 मार्च, 1977 को देश की पहली गैर कांग्रेसी संघीय सरकार ने शासन सम्हाल लिया।

समाप्त

—दीपचन्द सांखला

27 जून, 2012

No comments: