Monday, July 17, 2023

प्रणब मुखर्जी

 जैसा कि आडवाणी ने कल सुबह कहा था कि राष्ट्रपति के  यह चुनाव सन् 1969 जैसे ही कुछ होंगे। लेकिन शाम होते-होते जिस तरह फि•ाा बदली उन्हें शायद लगने लगा होगा कि उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था।

कल शाम जब 'संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन' की मुखिया सोनिया गांधी ने गठबंधन की बैठक के  बाद राष्ट्रपति पद के  लिए वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का नाम संप्रग के  उम्मीदवार के  रूप में घोषित किया, उसके  तुरत बाद से न केवल मीडिया-जिसकी आदत ही मुद्दे को लपकना और जिस रंग में रंगा मुद्दा दीखता है उसी रंग को गहराने का प्रयास करना-इस तरह से खबर देने और चर्चाएं करने लगा कि प्रणब शपथ लेने ही वाले हों! यह तो रही मीडिया की बात लेकिन जो राजनीति करते हैं या उसमें रुचि रखते हैं वे सब भी इसी कल्पना में गोते खाते देखे गये-टीवी कार्यक्रमों में विपक्षी पार्टियों के मुख्य समूह 'राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन' के नेताओं और प्रवक्ताओं से भी प्रणब की उम्मीदवारी पर कुछ कहते नहीं बन रहा था। ममता भी जो इस मुद्दे पर दो दिन से लगभग फुंफकार कर बोलती रही थी, ने भी यही कह कर मीडिया से पीछा छुड़वाया कि वह अपनी प्रतिक्रिया कल देंगी।

तो क्या प्रणब का व्यक्तित्व सचमुच ऐसा है कि उनकी उम्मीदवारी घोषित होते ही राजनीति का समन्दर कृष्ण पक्ष की मुद्रा में आ गया। संप्रग-दो की सरकार के  संकटों के  समय जिस तरह प्रणब दा हर बार लगभग संकटमोचक की भूमिका में दिखे उससे उनके व्यक्तित्व ने इस तरह की छाप छोड़ी ही है। लेकिन इन्दिरा गांधी के  समय से ही औसत से कम कद होने के  बावजूद उनका व्यक्तित्व न केवल अपने समकक्षों में अलग दीखता था बल्कि वे वरिष्ठों के बीच भी अपनी ओर ध्यान खींचे बिना नहीं रहते थे।

सामान्यत: प्रणब दा अपनी महत्वाकांक्षाओं को जाहिर नहीं होने देते हैं। 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या के  समय कांग्रेसी संस्कृति के  खिलाफ जाकर प्रधानमंत्री हो सकने की इच्छा का उनके  द्वारा जाहिर करना और उसके  बाद राजीव गांधी मंत्रिमंडल में शामिल न करने पर अलग पार्टी बनाकर राजनीति करने और सफल न होने पर वापस कांग्रेस में लौटने की मजबूरी जैसे घटनाक्रम ने शायद उन्हें पर्याप्त परिपक्व और चतुर बना दिया है-पिछली सदी के आखिरी दशक की शुरुआत से लेकर कल की घड़ी तक प्रणब दा कांग्रेस हाइकमान के  प्रति जिस तरह निष्ठावान रहे वह उल्लेखनीय है। यहां तक कि 2004 में जब उन्हीं के मातहत रहे डॉ. मनमोहनसिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया तब भी। 1984 में यदि प्रणब दा को कांग्रेसी संस्कृति की समझ होती और तब उनकी महत्वाकांक्षा मुंह नहीं निकालती तो संभव है वे 2004 में प्रधानमंत्री होते! यद्यपि इस तरह के  कयासों को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। लेकिन वैकल्पिक संभावनाओं पर विचार तो किया जा सकता है!

खैर! कांग्रेस हाइकमान के  प्रति प्रणब दा की पिछले 24 वर्षों की सलवट-विहीन निष्ठा का फल उन्हें मिलने जा रहा है। आडवाणी के  कहे अनुसार 1969 जैसा कोई चमत्कार घटित न हो तो प्रणब दा ही भारत गणराज्य के 13वें राष्ट्रपति होंगे।

—दीपचन्द सांखला

16 जून, 2012

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