Monday, July 17, 2023

पानी रे पानी...

 भुट्टो के बास तथा आसपास के मुहल्लों में पानी की आपूर्ति में कमी से उकताए लोगों ने कल अपने गुस्से का इ•ाहार किया। कहा जा रहा है कि पिछले लम्बे अरसे से उनके घरों तक पानी पहुंच नहीं रहा या उसकी आपूर्ति का दबाव इतना कम होता है कि घर-परिवार की जरूरत जितना पानी भी वे सहज नहीं पाते हैं।

उकताते और गुस्साते वे लोग ही हैं जो बेबस होते हैं। अन्यथा जो समर्थ होते हैं वे चोरी-छिपे और दबंग हों तो चौड़े-धाड़े बुस्टर (मोटरपम्प) लगा कर न केवल अपना काम निकाल लेते हैं बल्कि पानी की फिजूलखर्ची की गुंजाइश भी निकाल लेते हैं। बिना इसकी परवाह किये कि उनके बुस्टर लगा लेने से उनके अड़ोस-पड़ोस के लोगों को जरूरत भर का पानी भी नहीं मिलेगा। अलावा इसके जो समर्थ होते हैं वे पानी का टैंकर डलवा कर अपनी जरूरत और विलासिता, दोनों की पूर्ति कर लेते हैं।

लेकिन कल जिन मुहल्लों के उकताए बाशिन्दों ने जलदाय विभाग के अधिकारियों के आगे मटके फोड़ कर अपना रोष प्रकट किया वे मुहल्ले ऐसे हैं जहां के अधिकतर निवासी इस स्थिति में ही नहीं हैं कि बुस्टर लगा सकें या टैंकर मंगवा सकें। इन मुहल्ले के कुछ घर-परिवार तो ऐसे भी होंगे कि वह पानी का कनेक्शन लेने की स्थिति में भी अपने को नहीं पाते होंगे। ऐसी स्थिति में वे लोग सार्वजनिक नलों और उदारमना पड़ोसियों से पानी लेकर अपना काम चलाते हैं।

सभी लोग पानी को किफायत से बरतें और बिना जरूरत का न गिरायें तो वर्तमान व्यवस्था में ही इतनी क्षमता है कि शहर के प्रत्येक नागरिक की जल की न्यूनतम ही नहीं सामान्य जरूरत भी पूरी हो सकती है।

अखबारों में रोज छपता है कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियां सूख रही हैं, कुओं के जल स्तर लगातार नीचे जा रहे हैं, तालाबों के आगोर हमने कब्जा लिए हैं। रईसों ने अपनी हवेलियों और बंगलों में बरसाती पानी को सहेजने हेतु बावडिय़ां और कुओं का निर्माण करवाना बंद कर दिया है। जिन पुरानी हवेलियों में ये हैं भी तो उन्हें उपयोग में नहीं लाया जा रहा है। इस तरह की खबरों पर आंख-कान न लगाना और लग भी जाये तो गौर नहीं करने का खमियाजा हमारी भावी पीढिय़ां भुगतेंगी, इसका एहसास भर न होना चिन्ता की बात है।

कहते हैं जो वस्तु हमें बिना किसी खास प्रयत्न और न्यूनतम धन देने से मिल जाती है उसके प्रति हमारा बरताव लापरवाही की सभी हदें पार कर जाता है। पानी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

अपने घर में या आस-पड़ोस में कोई अस्सी-नब्बे की उम्र की महिला हो तो उनसे उनकी किशोरवय और जवानी की कथा सुनोगे तो वह पानी को वापरने, परोटने की बात को अपने समय की व्यथा के रूप में नहीं वरन् अपने और अपने हमउम्रों की चतुराई के बखान के तौर पर बतायेंगी।

—दीपचन्द सांखला

14 जून, 2012

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