Friday, July 21, 2023

शहर के खिलाफ आंदोलन

 आजादी के बाद देश ने विकास के जिस मॉडल को अपनाया वह शहर आधारित था, और है। जिसके कारण गांव सिकुड़ते और शहर विकराल होते जा रहे हैं। कहने को तो भारतीय नागरिक कह सकते हैं कि इसके लिए हम जिम्मेदार क्यों हैं-ऐसा कहना एकबारगी तो उचित जान पड़ता है। क्योंकि हो यही रहा है कि जिन्हें वह चुन कर भेजते हैं वे सर्वजन की भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं बन पाते। अफसरशाह और प्रभावी जनप्रतिनिधि जो तय कर देते हैं अधिकतर जनप्रतिनिधि उसको समर्थन देने के अलावा कुछ नहीं करते। नतीजा यह कि हम ऐसी लम्बी सुरंग में प्रवेश कर गये हैं जिसमें भीड़ के रैले के साथ धकियाते-खिसकने के अलावा अन्य कोई विकल्प आम आवाम के लिए नहीं रह गया है।

बीकानेर शहर की बात करें तो राजस्थान पत्रिका में एक रिपोर्ट छपी है जिसमें बताया गया है कि शहर की जनसंख्या वृद्धि किस तेजी से हो रही है। अलावा इसके प्रतिवर्ष हजारों परिवार आस-पास के गांवों से विस्थापित हो कर बीकानेर आकर बस जाते हैं। शहर की सीमाएं लगातार बढ़ रही हैं।

राजस्थान के इस उत्तर-पश्चिमी भू-भाग का अर्थ-आधार सदियों से पशुधन आधारित रहा है। इसलिए यहां के बड़े आबादी क्षेत्रों के आस-पास की भूमि को पशुओं के चरने के वास्ते आरक्षित करने की परम्परा है। इस आरक्षित भूमि को गोचर या ओरण कहा जाता रहा है। अपने शहर की बात करें तो हमारा यह शहर पसर कर सरह नथानिया, भीनासर और सुजानदेसर की गोचर को छूने ही क्या, बांहों में लेने लगा है। कई भूमाफियाओं की आंख है तो सरकार को भी जन सुविधा के विकास के लिए कभी विश्वविद्यालय के वास्ते तो कभी पट्टी पेड़ों, गैस गोदामों और रिंग रोड के लिए इस गोचर का कुछ हिस्सा अधिग्रहण करना या करने की योजना बनानी पड़ती है।

भूमाफियाओं का मामला तो कानून व्यवस्था का हो सकता है। लेकिन सरकार यदि इस गोचर या ओरण की भूमि को अधिगृहीत करती है तो उसे पहले अधिगृहीत भूमि के एवज में दूसरी भूमि आवंटित करनी चाहिए। लेकिन देखा गया है कि सरकार और सरकारी मुलाजिम इसके प्रति मुस्तैद नहीं हैं।

ऐसी स्थिति में शहर की नुमाईंदगी करने वालों की ड्यूटी यह बनती है कि पहले तो सरकार पर दबाव बना कर गोचर की पूर्व में अधिगृहीत भूमि के एवज में भूमि आवंटित करवायें और फिर जन सुविधाओं के लिए न केवल नई-नई योजनाएं बनवायें बल्कि उन योजनाओं को मूर्त करवाने के लिए हर सम्भव सहयोग करें। इसमें भूमि उपलब्ध करवाना पहला काम हो सकता है।

आजादी बाद से ही बीकानेर शहर का यह दुर्भाग्य रहा है कि इसे एक भी नेता या जनप्रतिनिधि ऐसा नहीं मिला जिसके पास इस विकराल होते शहर को विकसित करने की दृष्टि या विजन हो!

अब जब जनसुविधा के लिए बायपास सड़क, गंदे और दूषित पानी को उपयोगी बनाने का संयंत्र, पट्टी पेड़ा और गैस गोदाम आदि की जरूरत है तो यह सब हवा में तो बन नहीं सकते-इनके लिए भूमि की जरूरत है और अब शहर से लगती यह गोचर ही बची है तो इस गोचर के एवज में अन्य सरकारी भूमि आवंटित करवा कर जरूरत की भूमि गोचर से लेने में कोई एतराज किसी को नहीं होना चाहिए।

लगता है इस मुद्दे पर ये नेता या तो राजनीति कर रहे हैं यह फिर इस शहर की जनता की सुविधाओं के लिए कोई ²ष्टि उनके पास नहीं है। शहर के नेता और जनप्रतिनिधि इस मुद्दे पर सीधे-सीधे दो हिस्सों में बंटे दीख रहे हैं। या तो वे मौन हैं या फिर देवीसिंह भाटी के साथ हैं-जो मौन है उनमें से कुछ बाद में भाटी के समर्थन में मुखर भी हो रहे हैं जैसे कल धरने के पांचवें दिन बीकानेर पूर्व की विधायक सिद्धिकुमारी ने भाटी समर्थन का बयान जारी किया है– पश्चिम के विधायक गोपाल जोशी पहले से भाटी के साथ हैं। कुछ बड़े भाजपाई अभी तक मौन हैं तो कांग्रेसी व अन्य पार्टियों के नेता या तो इस मुद्दे की करवट समझने की कोशिश कर रहे हैं या फिर वे निसंग होने का स्वांग कर रहे हैं।

भाटी दबंग हैं। सभी तरह के पॉवरों से लेस हैं-अपनी क्षमता का भान भी है उन्हें। असम्भव के अलावा भाटी सभी कुछ सम्भव कर लेते हैं। हो सकता है वह गो सेवा के नाम पर इस आंदोलन को भी सफल कर लें। इसी गो सेवा के नाम पर उन्होंने धर्मगुरुओं को भी इकट्ठा कर लिया है।

गोचर में से बीकानेर विश्वविद्यालय को भूमि का आवंटन 2003 से पहले का है। उसके बाद 2008 के चुनावों से पहले भाटी जब पुन: भाजपा में आ गये तब सरकार भी भाजपा की थी। भाटी बतायें कि उन्होंने तब इस गोचर भूमि की प्रतिपूर्ति के लिए क्या किया था? तब तो वह सरकार से सौदेबाजी की स्थिति में भी थे?

देवीसिंह भाटी, उनके समर्थक और सभी धर्मगुरुओं में गाय के लिए अचानक उमड़े इस अनुराग के परिप्रेक्ष्य में इन कुछ बातों पर उन्हें विचार करना ही चाहिए कि निम्न तरह की बेहूदगियों को समाज में खत्म करवाने हेतु अब तक खुद उन्होंने क्या कुछ किया है :

-शहर के कई गो-पालकों द्वारा दूध दुह कर गायों को आवारा छोड़ दिया जाता है।

-इस तरह छोड़ी गई गायें दिन भर अखाद्य खाने को मजबूर होती हैं।

-प्लास्टिक की थैलियों और कैरीबैग पर रोक के बावजूद शहर में धड़ल्ले से चल रही हैं। इन थैलियों के कारण जिस एकमात्र जीव की जान जोखिम में आती है वह गाय या गो वंश ही है!

-कृत्रिम गर्भाधान के प्रचलन के बाद गोधे किस दयनीय स्थिति में शहर में देखे जाने लगे हैं-उन्हें पौष्टिक तो दूर भरपेट चारा तक नहीं मिलता है!

-शहर में बिकने वाले अधिकांश पशु आहार में अखाद्य चीजों की भारी मिलावट होती है जिससे पशु न केवल भयंकर वेदना भोगते हैं बल्कि कई बार मर भी जाते हैं।

-दूध का धंधा करने वाले बछड़े को छटांक दूध भी नहीं पीने देते। इससे भी बदतर स्थिति यह कि इंजेक्शन लगा कर दूध को तब तक निकालते रहते हैं जब तक कि दूध के साथ खून न आने लगे!

—दीपचन्द सांखला

14 जुलाई, 2012

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