कोयले की खंख से घिरे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने अपनी वेबसाइट पर अपनी और अपने सहयोगियों की चल-अचल सम्पत्ति का ब्योरा डाला है। उसके हिसाब से प्रधानमंत्री की कुल सम्पत्ति पिछले वर्ष से दोगुनी हो गई। इसकी मुख्य वजह यह मानी जा रही है कि चण्डीगढ़ और दिल्ली के उनके दोनों फ्लैटों की कीमत पिछले वर्ष जो 1.78 करोड़ दिखाई गई थी-वह इस वर्ष बढ़ कर 7.27 करोड़ हो गई है।
वैसे भी यह ‘लोकसेवक’ जिनमें एमएलए-एमएलसी और सांसद सभी शामिल हैं-अपनी तनख्वाहें और भत्तों को जब इच्छा होती है, बढ़ा लेते हैं। इस तरह की सभी बढ़ोतरियां संसद और विधानसभाओं में ध्वनिमत से पारित होती है। जबकि स्त्रियों की भागीदारी और लोकपाल जैसे विधेयक दशकों लटके रहते हैं।
राजस्थान के मुख्यमंत्री के खाते में भी नकद राशि में बढ़ोतरी दर्ज की गई। कहा जाय तो कमोबेश सभी ‘लोकसेवकों’ की गुल्लक भारी हुई है। पिछले कुछेक वर्षों में जब से यह जाहिर हुआ कि निजी सम्पत्तियों को सार्वजनिक करना होगा, लगता है तब से यह सभी लोकसेवक सावचेत हो गये हैं तथा इनको ऊपर की आमदनी को मैनेज करने की अतिरिक्त माथा-पच्ची से भी दो-चार होना पड़ता है। ऐसा करना अपने देश में मुश्किल तो है, नामुमकिन नहीं।
इस व्यवस्था को अगर और पारदर्शी करना हो तो यह व्यवस्था भी की जा सकती है कि इन लोकसेवकों के निकटस्थ परिजन जैसे बालिग पुत्र-पुत्रियां, बहू-जंवाई, भाई-बहिन और भाभी-बहनोई के साथ-साथ निकट सम्बन्धी जिनमें सास-श्वसुर, साले-साली, साढू-सलहज और समधी-समधिनों की परिसम्पतियों को भी सार्वजनिक किया जाना जरूरी कर दिया जाना चाहिए। अगर ऐसा हो जाता है तो उन लोगों की पूछ और भरोसा दोनों बढ़ेगा जिनका इन लोकसेवकों के साथ पारिवारिक रिश्ता तो नहीं होता लेकिन वे पूरी उम्र इनके साथ रगड़ीजते रहते हैं या ऐसे वे जिनके ताळवें में मात्र गुड़ चिपका कर ये ‘लोकसेवक’ अपना सबकुछ साधते रहते हैं।
वर्गीज कुरियन ‘असल लोकसेवक’
एक दुखद खबर और भी है कि भारत में दुग्ध की क्रान्ति लाने वाले वर्गीज कुरियन का नब्बे वर्ष की उम्र में निधन हो गया-अगर कुरियन न होते तो शायद देश की अधिकांश आबादी या तो दूध से वंचित होती या फिर सिंथेटिक दूध पीने को मजबूर होती। उन्होंने यह क्रांति ‘अमूल’ के नाम से गुजरात में सहकारिता के माध्यम से शुरू की, जिससे प्रेरणा लेकर अन्य राज्यों ने भी उनके मॉडल को अपनाया-अपने राजस्थान में ‘सरस’ उसका एक उदाहरण है-यह बात अलग है कि इन सहकारी आन्दोलनों पर भी भ्रष्टाचार की खंख तारी है वहींअमूल के कुछ प्रॉडक्ट ज्यादा ही महंगे हैं। खैर हम कुरियन की बात कर रहे थे, उन्होंने अमूल में अपना कॅरिअर 600 रुपये की मासिक पगार से शुरू किया और 2006 में सेवानिवृत्ति के समय उनकी पगार मात्र पांच हजार रुपये थी। लेकिन उनको पुरस्कार इतने मिलते रहे कि उन्हें अपनी अन्य न्यूनतम जरूरतें पूरी करने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई-कोई बहुत बड़ी आकांक्षाएं उन्होंने पाली भी नहीं थी-वे असल लोकसेवक जो थे!
— दीपचन्द सांखला
09 सितम्बर, 2012
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