Monday, July 24, 2023

सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

 सबसे खतरनाक होता है

मुर्दा शान्ति से भर जाना

न होना तड़प का, सब सहन कर जाना

घर से निकलकर काम पर

और काम से लौटकर घर आना

सबसे खतरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना

पंजाबी कवि 'पाश' की कविता की इन बहु-उल्लेखित पंक्तियों का स्मरण कल तब हो आया जब अन्ना ने अपने और अपने साथियों के अनशन की समाप्ति की घोषणा के साथ राजनीतिक विकल्प देने की बात कही, यह उस आम मध्यम वर्ग के सपनों के मर जाने से कम नहीं है जिन्होंने अन्ना में उम्मीदों के सपने देखे थे।

भ्रष्टाचार के खिलाफ और कारगर लोकपाल विधेयक के लिए अन्ना के आन्दोलन का यह चौथा पड़ाव था। पहले दो पड़ाव-26 फरवरी, 2011 (दिल्ली) और 15 अगस्त, 2011 (दिल्ली) 'ज्वार: की भांति थे। तीसरा पड़ाव मुम्बई में 27 दिसम्बर, 2011 से घोषित तीन दिन के अनशन को दूसरे दिन ही वापस लेना और एक जनवरी से प्रस्तावित 'जेल भरो आन्दोलन' को रद्द करना और अब हाल ही के इस चौथे चरण का उतार 'भाटा' की तरह आना यह दर्शाता है कि अन्ना और उनकी टीम के पास न तो आन्दोलन को लेकर कोई दृष्टि है और न ही कोई ठोस कार्यक्रम और न हीं दृढ़ इच्छाशक्ति। इससे जाहिर होता है कि बिना गांधी को पूरा समझे गांधीवादी होना कितना निराशा पैदा करने वाला हो सकता है।

भ्रष्टाचार में लगभग आकण्ठ डूबी देश की इस व्यवस्था से धाये लोगों ने अन्ना में उम्मीद की रोशनी देखी थी। टीम अन्ना की अपरिपक्वता के चलते आमजन को इस तरह निराशा देना अच्छा नहीं है। यह नाउम्मीदगी भविष्य के ऐसे ही किसी सकारात्मक प्रयास में बाधा का काम करेगी।

गांधी उपवास को अनुष्ठान की तरह करते थे तो अन्ना ने अनशन को हथियार के रूप में काम में लिया। गांधी का मानना है किसी पर दबाव बनाने के लिए अनशन नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन अन्ना ने अपने अनशन दबाव के लिए किये। अन्ना ने गांधी को शायद ऊपरी तौर ही देखा-समझा है अन्यथा सन् 1922 के चौरीचौरा में हुई हिंसा के बाद अपने सहयोगियों की जबरदस्त खिलाफत के बावजूद असहयोग आन्दोलन को वापस लेना और सन् 1942 में पूरी कांग्रेस के विरोध के बावजूद 'भारत छोड़ो' आन्दोलन का 'हेला' देना गांधी के पास अपने निर्णयों का दृढ़ आधार होना दर्शाता है। इन दोनों ही निर्णयों के सही होने की पुष्टि बाद की घटनाएं करती भी हैं।

भारत की आजादी के आन्दोलन में शामिल होने से पहले गांधी ने देश को पूरी तरह जाना-समझा था। अन्ना भी ऐसा करते तो वह आज इस मुकाम पर नहीं होते। भारत में चुनाव लडऩा और जीतना जितना मुश्किल अन्ना जानते-समझते हैं उससे कई गुना ज्यादा मुश्किल ही नहीं बिना भ्रष्ट करतूतों के चुनाव लडऩा लगभग नामुमकिन ही है।

अन्ना वो सब आसान रास्ते से हासिल करना चाहते हैं जो अब कम से कम पीढिय़ों में ही हासिल हो सकता है-अन्ना सचमुच कुछ करना चाहते हैं तो पहले वह मतदाताओं को शिक्षित करने का काम करें-जिसमें प्रत्येक मतदाता को यह बताया जाय कि एक लोकतान्त्रिक देश का मतदाता होने की क्या जिम्मेदारियां हैं। नहीं तो अभी जो अधिकांश मतदान हो रहा है वह सम्प्रदाय के आधार पर, जातीय आधार पर, चामत्कारिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, गांव के मुखिया के कहने से, इलाके के दबंग के कहने से, पैसा या शराब लेकर, जातीय भवन बनवाकर, मन्दिर, मसजिद या अन्य किसी धार्मिक स्थान में पैसा लगवाकर आदि-आदि तरीकों और प्रलोभनों से ही हो रहा है।

वर्तमान में अन्ना को लोकसभा की तीन सौ सीटें यदि लानी हो तो यही सब करना होगा। और यही सब करके चुनाव अन्ना जीतते हैं तो जो नेता वर्तमान में हैं उनमें और इनमें भला क्या अन्तर रहेगा!

देश को अब जरूरत उसके मतदाता के जागरूक होने की है जो सम्पूर्ण इच्छाशक्ति से आहूत अभियान से ही सम्भव है न कि किसी आन्दोलन या अनशन से। राजनीति की तो हरगिज नहीं।

दीपचन्द सांखला

3 अगस्त, 2012

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