Thursday, August 29, 2019

स्थानीय प्रशासन! यूं ही नहीं हटा सकते स्ट्रीट वेन्डर्स को

पिछले वर्ष की अगस्त की तरह इस 22 अगस्त को बीकानेर के जूनागढ़ के सामने गाड़ों पर लगने वाले चाट बाजार को स्थानीय प्रशासन ने अचानक से फिर हटा दिया। लगता है स्थानीय प्रशासन 5 वर्षों बाद भी 'स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट 2014' (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एण्ड रेगुलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) से अनभिज्ञ है। अनभिज्ञ ये स्ट्रीट वेन्डर्स भी हैं, अन्यथा इन्हें प्रशासन की इस कार्यवाही के खिलाफ दूसरे दिन किए प्रदर्शन के बजाय कोर्ट में जाना चाहिए था। स्थानीय मीडिया ने भी प्रशासन की इस बेसुरी कार्यवाही में अपना सुर फिर मिलाया। 23 अगस्त 2018 के 'विनायक' ने अपने सम्पादकीय में इस एक्ट पर जानकारी साझा की थी। उसे ज्यों-का-त्यों आज पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। 
स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट-2014 और थड़ी-गाड़ेवालों के हक-हकूक
पिछले सप्ताह मीडिया में फोटो सहित सुर्खियां थीं कि जूनागढ़ के सामने लगने वाले खान-पान के संध्या बाजार के गाड़ों को यातायात पुलिस ने अपने थाने में लाकर खड़ा कर लिया। जैसा कि सुनते आ रहे हैंशहर की सड़कों पर लगने वाले प्रत्येक गाड़े का हफ्ता या मंथली तय है, उसे उगाहने और पहुंचाने वाले भी तय हैं। बावजूद इसके बिना इसका खयाल किए कि खान-पान की ये वस्तुएं दूसरे दिन खराब हो जाएंगी। दूसरे तरीके से कहें तो इन दिहाड़ियों की एक दिन की ना केवल मजदूरी मार दी गई बल्कि कच्चे सामान का नुकसान जो करवाया वो अलग।
चूंकि इन थड़ी-गाड़े वालों का कोई संगठन नहीं है, इसलिए ये दुगुनी-तिगुनी मार के शिकार हो जाते हैं, वह भी उगाही देने के बावजूद। अन्यथा ठीक इनके समानान्तर ऑटो रिक्शा वालों को देख लें-नाबालिग चलाते हैं, बिना लाइसेंस वाले चलाते हैं, परिवहन विभाग के पूरे कागजों के बिना चलती है, और तो और बिना स्टैण्ड के खड़े रहते हैं और बिना साइड के चलते हैं! चूंकि संगठित हैं इसलिए पुलिस वालों को भाव नहीं देते और होमगार्ड से आंख दिखाकर बात करते हैं।
थड़ी-गाड़े वालों की दुर्दशा केवल बीकानेर में ही हो ऐसी बात नहीं, कमोबेश पूरे देश में इनकी और हाथरिक्शा वालों की गति यही है। शायद इसीलिए जाते-जाते ही सही, संप्रग-2 की मनमोहनसिंह सरकार ने इन थड़ी गाड़े वालों के हित में मार्च 2014 में 'द स्ट्रीट वेन्डर्स' (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एण्ड रेगुलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) एक्ट-2014 पारित कर दिया। लेकिन जिन स्थानीय निकायों को इसे लागू करवाना है, वे आज भी उसे अछूत मानते हैं।  मनमोहन सरकार बदनाम भी खूब हुईं लेकिन आरटीआई, मनरेगा और स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट जैसे दमित-पीडि़त हित के कई कानून वह पास करवा गई। बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो इस 'स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट 2014' को लागू करने की जिम्मेदारी नगर निगम की है। चार वर्ष बीत गये लेकिन सर्वे जैसा प्रथम चरण का कार्य भी उसने पूरा नहीं किया है। 'वेन्डर्स जोन' और 'नॉन वेन्डर्स जोन' इस सर्वे से ही तय होने हैं और निगम को एक 'टाउन वेंडिंग कमेटी' भी गठित करनी होती है, जो सर्वे के परिणामों के आधार पर वेंडिंग जोन के अनुसार पहले से ही थड़ी-गाड़ा लगाने वालों के लिए नई-पुरानी जगह तय करेगी। इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें ऐसी जगह भेज दिया जाए, जहां कोई ग्राहक ही नहीं पहुंचे। ये वेंडिंग जोन उन चौड़ी सड़कों पर भी बन सकते हैं जहां इनके खड़े होकर आजीविका पालने से यातायात में कोई बाधा ना हो। बाकायदा इनका पंजीकरण होगा और निश्चित अवधि में स्थान-विशेष का निगम को भुगतान भी करना होगाइतना ही नहीं, इस एक्ट के अध्याय 2 के सेक्शन 3 के बिन्दु तीन में स्पष्ट लिखा गया है कि बिना सर्वे और बिना सर्टिफिकेट जारी किये जमे-जमाए इन वेन्डर्स को ना तो हटाया जा सकता है और ना ही स्थान बदलने के लिए मजबूर किया जा सकता है। इस तरह यातायात पुलिस की पिछले सप्ताह की कार्रवाई गैरकानूनी कही जा सकती है। 
इस एक्ट के अनुसार तो जूनागढ़ के सामने लगने वाला खान-पान का संध्या बाजार वेंडिंग जोन के हिसाब से सही है, ठीक इसी तरह पब्लिक पार्क में भी एक वेंडिंग जोन विकसित किया जा सकता है। जबकि पिछले दिनों सुना यह भी था कि पब्लिक पार्क में लगने वाले ठेले-गाड़ों को निकाल बाहर किया जाएगा। क्यों भाई! कोई धंधा करके कमा रहा है, आपको क्या तकलीफ है? क्या आप चाहते हैं कि ये लोग उजड़ कर चेन स्नेचिंग, उठाईगीरी, ठगी और चोरी-चकारी करें। स्थानीय निकाय-प्रशासन की जिम्मेदारी यह है कि वे खान-पान का काम करने वालों की निगरानी रखें कि वे स्वच्छता और शुद्धता के मानकों पर खरे हैं या नहींऔर अपने ग्राहकों के साथ किसी भी प्रकार की धोखाधड़ी तो नहीं कर रहे हैं।
कुछ चन्द स्थानों का उल्लेख हाल ही में मिली नकारात्मक सुर्खियों के चलते कर दिया। जरूरत निगम क्षेत्र के सभी हिस्सों में रोटी-रोजी कमाने वाले ऐसे थड़ी-गाड़ेवालों की व्यवस्था 'स्ट्रीट वेन्डर्स एक्टÓ के अनुसार कर उन्हें सम्मान के साथ रोटी-रोजी कमाने में सहयोग करने की है। मीडिया भी इस तरह के मामलों में ना केवल संवेदनहीन दिखाई देता है बल्कि बहुधा अपनी समझ की कमी भी जाहिर करता है। इस तरह के काम-धंधों से आजीविका कमाने वालों को लेकर खबरें लगाते हुए मीडिया या तो यह कहता है कि ये सौंदर्य में बाधा हैं। या फिर उन्हें यातायात में बाधा बता कर उखाड़ फेंकने की पैरवी करता है, जबकि होना यह चाहिए कि थड़ी-गाड़े वालों की रोटी-रोजी और सौंदर्य-यातायात इन सब के बीच संतुलन रखते हुए उन्हें खबरें लगानी चाहिए। 
देश में रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं। सरकारी नौकरियों में लगातार कटौती हो रही है, इन परिस्थितियों में कोई इज्जत के साथ अपना और अपने परिवार का पेट पालना चाहता है-उसके लिए बजाय अनुकूलताएं बनाने के ये शासन-प्रशासन मय पुलिस जब चाहे ना केवल उन्हें हड़काने-बेइज्जत करने की कार्रवाई करता है बल्कि उन्हें आर्थिक नुकसान पहुंचाने से भी बाज नहीं आता।
शहर के प्रथम नागरिक होने के नाते महापौर को इसे अपनी महती जिम्मेदारी मानना चाहिए और इस बात की वे पुख्ता व्यवस्था करें कि स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट-2014 बीकानेर में समयबद्धता के साथ लागू हो। संगठित, समर्थ और दबंगों से संबंधित कामों में कुछ देरी भी हो तो उनके कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट-2014 से लाभान्वित होने वाले लोगों को एक्ट का लाभ प्राथमिकता से मिलना चाहिए, जिसके कि वे हकदार हैं।
—दीपचन्द सांखला
29 अगस्त, 2019

Thursday, August 22, 2019

गोवंश और हिंदू होने का धर्म

विद्यार्थी जीवन में एक किस्सा सुना करते थेपरीक्षा में गाय पर निबन्ध लिखना था, छात्र ने इतना ही लिखा 'गाय हमारी माता है, आगे कुछ नहीं आता है'। कॉपी जांचने वाले अध्यापकजी ने उस पर लिख दिया कि 'बैल हमारा बाप है नम्बर देना पाप है'। पचास वर्ष पूर्व के इस किस्से में अध्यापकजी को ध्यान ही नहीं रहा कि बेचारा बैल बाप कैसे हो सकता है। इसे अध्यापकजी का अधकचरा ज्ञान मानें या तुकबंदी की हड़बड़ी। सब स्कूलों में यह किस्सा आम था। बात को टेर देने के लिए किस्से से शुरुआत चाहे की हो, गाय का हमारे यहां धार्मिक महत्त्व रहा है।
यह महत्त्व जब तक धार्मिक रहा तब तक सब ठीक-ठाक रहा, जब से उसका साम्प्रदायीकरण हुआ, तब से ना केवल खेती-पशुपालन में लगा किसान परेशान है बल्कि स्वयं गाय और उसका वंश भी दुर्गति का शिकार है। और अब तो करेला नीम चढ़ा यह कि साम्प्रदायिकता राजनीति से लेपी जाने लगी है।
'भारत एक कृषि प्रधान देश है' जैसा जुमला सुनते-सुनाते इतना घिस गया है कि किसान, पशुपालक और गोवंश व्यापार से आजीविका चलाने वाले कमजोर वर्गों के भारतीय बड़ी भारी तकलीफ में आ लिये हैं। अधिकांश खेतिहर-किसान उपज का पूरा मूल्य ना मिलने से पहले ही परेशान हैं। कोढ़ में खाज यह कि पूरक आमदनी की पशु आधारित उसकी आजीविका गोवंश के सांप्रदायिक राजनीतीकरण से बुरी तरह प्रभावित हुई है। भारत की पशुधन आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था के चलते ही बीकानेर कभी एशिया में ऊन की सबसे बड़ी मण्डी रहा तो इसी बदौलत उत्तरी भारत में गुजरात का ब्रांड 'अमूल' और राजस्थान में उरमूल का ब्रांड 'सरस' आज हमें सुलभ होता है।
बुआई में ट्रैक्टर और ढुलाई में ऑटोरिक्शा का जब से चलन बढ़ा तब से बैलों की जरूरत खत्म हो गई। ऐसे में बछड़ों की नियति भी दूध ना देने वाली गायों (बाखड़ी) के साथ बूचडख़ाने जाने की रह गई। इन्हीं सब के चलते 90 प्रतिशत मांसाहारियों की इस दुनिया में ब्राजील के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा गोवंश मांस निर्यातक है। इतना ही नहीं, केन्द्र में संघ पोषित शाह-मोदी सरकार में गोवंश निर्यात की मात्रा प्रतिवर्ष बढ़ रही है। दुनिया में खाये जाने वाले कुल गोवंश मांस का 20 प्रतिशत की आपूर्ति अकेले भारत  करके जहां दूसरे नंबर पर टिका है वहीं पाकिस्तान मात्र 0.62 प्रतिशत की आपूर्ति करके 14वें स्थान पर है। ऐसा तो तब है जब देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू है और मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि कुल मिलाकर भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी मांसाहारी है। कश्मीरी पंडितों के अलावा पूर्वी उत्तरप्रदेश से लेकर बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और बंगाल के ब्राह्मणों का कुछ समुदाय ही जब घोषित मांसाहारी है तो दूसरे वर्गों का तो कहना ही क्या! 2014 के रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के सर्वे के अनुसार बंगाल की मात्र 1ï.4 प्रतिशत, तेलंगाना की 1.3 प्रतिशत, आंध्रप्रदेश की 1.75 प्रतिशत, तमिलनाडु की 2.35 प्रतिशत, झारखंड की 3.25 प्रतिशत, बिहार की 7.55 प्रतिशत आबादी ही शाकाहारी है।
यह सब बताने का मकसद इतना ही है कि सदियों से जैसी हमारी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्थाएं रही हैं, राजनीति के लिए उसे ध्वस्त ना होने दें। अलावा इसके हम समग्र भारतीयता के सन्दर्भ में शाकाहारी होने का जो दुराग्रह रखते हैं, वह देश के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। दलित और मुसिलम समुदायों के पीढिय़ों से गोवंश व्यापार से आजीविका में लगे लोगों को आतंकित कर उन्हें रोजी-रोटी से महरूम करना न्याय संगत नहीं है। उल्लेखनीय है कि बड़े बूचडख़ानों के अधिकांश मालिक उच्चवर्गीय हिन्दू-जैन हैं, गोवंश मांस का निर्यात लगातार बढ़ रहा है। गौर करने लायक बात यह भी है कि परम्परागत तौर पर पशुधन व्यापार में लगे कमजोर वर्गों के समुदाय तथाकथित गोरक्षकों द्वारा मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं से आतंकित होकर इस धंधे को छोड़ रहे हैं, बावजूद इसके गोवंश मास का निर्यात बढ़ रहा है तो कैसेï? यह समझ से परे है। 
दूसरी ओर लगातार बढ़ रहे आवारा गोवंश से किसान परेशान हैं। भारत के अधिकांश खेतों में चहारदीवारी और तारबन्दी नहीं होती जिसके चलते आवारा गोवंश अक्सर खड़ी तैयार फसलों को नष्ट कर रहे हैं, ऐसे में किसान दोहरी मार झेल रहा है, एक तो उसकी फसलें आवारा गोवंश द्वारा कभी भी नष्ट हो सकती है, वहीं अपने नाकारा गोवंश को वह बेचना भी चाहे तो खरीदेगा कौन? शहरों का हाल और भी बुरा है, सड़कों पर आवारा गोवंश आम शहरियों की परेशानी का सबब है, इनकी मार से जब-तब मानवमौतों के समाचार सुनने को मिलते हैं। गोशालाओं में जाएंगे तो हर गोशाला में क्षमता से लगभग दुगुने-तिगुने गोवंश मिलेंगे तो सरकारी अनुदानों के चलते नंदीशाला के नाम पर नई दुकानदारियां शुरू हो गईं हैं। तय मानकों के अनुसार शायद ही कोई गोशाला या नंदीशाला मिलेगी।
गोरक्षा की आड़ में बेरोजगारों को नया अवैध धंधा मिल गया है। ऐसे समाचार भी हैं कि गोवंश का अवैध परिवहन करने वालों से ये तथाकथित गोरक्षक प्रति ट्रक प्रति इलाका पांच से दस हजार रुपए तक वसूली करने लगे हैं, नहीं देने पर जाति-धर्म पता करके भीड़ इक_ी कर जो मरजी आये करते हैं। ऐसी घटनाएं आम हो गयी हैं। ऐसी अराजकता समाज के लिए अच्छी इसलिए नहीं है कि इस तरह के दुस्साहस से ही जब आजीविका चलानी है तो केवल गोरक्षा के नाम पर ही क्यों, अन्य तरीके ईजाद होने में देर नहीं लगेगी। हिन्दू होने का धर्म भारतीय सनातन का निर्वहन करना है ना कि समूह विशेष के सत्ता लालच की पूर्ति करना।
धर्म के नाम पर ऐसी गुंडई उचित नहीं है। जिन्हें इस बिना पर राज हासिल करना है, वे राज का सुख लेते हैं, भोगता समाज है। इन सबका धर्म से कोई लेना देना नहीं है। संघ-जनसंघ (वर्तमान में संघ-भाजपा) के बारे में स्वामी करपात्रीजी महाराज 1970 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू धर्म' में इसे अपने इन कथनों के साथ स्पष्ट कर चुके हैं।
'संघ में जितना चन्दा मांगा जाता है उतना चन्दा कहीं भी नहीं मांगा जाता। पैसे-पैसे तक का चन्दा इकट्ठा किया जाता है। हस्ताक्षर आन्दोलन में, गोरक्षा आन्दोलन में लाखों के चन्दे बटोरे गये।' (पृष्ठ 198)
'संघ के चरित्र एवं संस्कार सब मन:कल्पित होने से निरर्थक एवं हानिकर हैं। संघ के संसर्ग से जाल फरेब, झूठ, बेईमानी, विश्वासघात, धोखाधड़ी का राष्ट्र में फैलाव हुआ है। यह प्रत्यक्ष है।' (पृष्ठ 209)
'गोरक्षा जैसे कार्य के लिए सत्याग्रह तक में संघ की प्रवृत्ति छल-छद्म से रिक्त नहीं होती।....संघ का हिन्दुत्व, संघ की संस्कृति सर्वथा धार्मिक तथा शास्त्रीय परम्परा से बहिष्कृत है।' (पृष्ठ 216-217)
'एक नेता ऐसे भी मुझे मिले जिसने कहा कि गो हत्या बन्द हो जाने पर हम लोग जनता से क्या कहकर वोट मांगेंगे।' (पृष्ठ 223)
—दीपचन्द सांखला
22 अगस्त, 2019

Thursday, August 8, 2019

कश्मीर

केन्द्र की शाह-मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा की अनुशंसा के बिना जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की कड़ी और दो सम्प्रभु राष्ट्रों के बीच हुए अनुबंध की उपज संविधान के अनुच्छेद 370 को कश्मीर घाटी की जनता की इच्छा के खिलाफ खुर्दबुर्द कर दिया है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में बात करें तो इन पैंसठ वर्षों में घिसते-घिसाते यह अनुच्छेद लगभग खत्म हो लिया था। अपनी अस्मिता की पहचान बनाए घाटी के कश्मीरी इसे उसी तरह चिपकाये थे जैसे बन्दरिया अपने मृतप्राय बच्चे को चिपकाए घूमती है। इस बिम्ब का मकसद ये बताना भर है कि कश्मीरियों को लगभग नजरबन्द करके की गई यह कारस्तानी जहां संविधान सम्मत नहीं है वहीं अनैतिक भी है। क्योंकि संविधान निर्माण के समय अनुच्छेद 306ए से 370 बने इस अनुच्छेद के खण्ड (1) के अन्तर्गत निदेशिका भाग-एक के उपखण्ड 3 में स्पष्ट लिखा है कि 'परन्तु यह और कि जम्मू कश्मीर राज्य के क्षेत्र को बढ़ाने या घटाने या उस राज्य के नाम और सीमा में परिवर्तन करने वाला कोई विधेयक उस राज्य के विधान मण्डल की सहमति के बिना संसद में पुनस्र्थापित नहीं किया जायेगा।'
अलावा इसके अभी 2017 में ही तत्संबंधी एक याचिका पर फैसला देते हुए देश के उच्चतम न्यायालय ने माना है कि अनुच्छेद 307 संविधान का स्थाई हिस्सा है।
खैर, दबंगई में कुछ किए के परिणाम कम से कम लोकतंत्र में अच्छे नहीं माने गये हैं। अलावा इसके गांधी ने भी अपने एक सटीक जंतर में कहा है कि शुद्ध साध्य शुद्ध साधनों से ही हासिल किये जा सकते हैं। जो कश्मीरी पिछले लगभग दो सौ वर्षों से सत्ता द्वारा लगातार सताये जा रहे हैं, यह विधेयक उनके घाव में घोबा किया जाना ही माना जायेगा, इस तरह यह कृत्य अमानवीय भी है।
आज अपनी बात इतनी भर रखते हुए इस घटनाक्रम पर अशोक कुमार पाण्डेय की सुविचारित लेकिन तल्ख उस टिप्पणी को साझा कर रहा हूं, जो उन्होंने 370 पर आये विधेयक के बाद सोशल साइटस के लिए लिखी है। पाण्डेय कश्मीरी इतिहास और राजनीति के विशेषज्ञ हैं, पिछले वर्ष आयी उनकी पुस्तक 'कश्मीरनामा' इन दिनों सर्वाधिक चर्चा में है।                                                            —दीपचन्द सांखला

# # #
कश्मीर की एक यात्रा में मुझसे बात करते हुए एक कश्मीरी मित्र ने कहा था कि अगर सब ठीक ठाक होता तो बहुत पहले खुद कश्मीरी ही मांग कर चुके होते कि 370 हटा दिया जाए ताकि पूंजी आये और नौकरियां मिलें। 
यहां यह 'सब ठीक ठाक होना' बेहद महत्त्वपूर्ण है। असल में एक बहुत बड़ा खेल परसेप्शन का भी है न। आखिर यह परसेप्शन ही है कि जो लोग दिल्ली में रहते सारी उम्र किराए के मकानों में गुजार देते हैं, उन्हें लगता है कश्मीर में कौडिय़ों के मोल जमीन मिल जाएगी। खैर इस पर बात आगे। चीजें ठीक ठाक न होने के कारण ही आम कश्मीरी के लिए 370 उस वादे का प्रतीक है जो भारत सरकार ने कश्मीर से किया था। यह उसके लिए धीरे-धीरे उसकी अस्मिता का प्रतीक बनता गया और इसीलिए तो इस निर्णय के पहले इतनी सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ी कि कश्मीर जैसे चूहेदानी में बदल गया है। सब जानते हैं कि यह कश्मीरियों की इच्छा के विरुद्ध है। 
जनतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि है। यह हमेशा राष्ट्रीय नहीं, स्थानीय भी होती है। दुखद यह कि यह बात सबरीमाला में तो सीमाएं तोड़ के स्थापित की जाती है, कश्मीर में नहीं। 
मैं संविधान विशेषज्ञ नहीं हूँ। 370 के ही तहत 370 के प्रावधानों को राष्ट्रपति कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से हटा सकते थे। इसके पहले 370 के अधिकतर महत्त्वपूर्ण हिस्से राष्ट्रपति द्वारा ऐसे ही हटाए गए थे। संविधान सभा भंग होने के बाद असेम्बली की सहमति ली गई थी। लेकिन बाकी हिस्सों को हटाने (असल में 370 को संशोधित करने) के लिए संविधान सभा को विधानसभा और विधानसभा को राज्यपाल मान लेना कितना सही या गलत है यह कोई संविधान विशेषज्ञ ही बता पायेगा। इतना तो है कि इस पूरी प्रक्रिया में कोई कश्मीरी शामिल नहीं है।
बायफर्केशन की मांग पुरानी है। बल्कि तीन हिस्सों में बांटने या राज्य के भीतर ही जम्मू और लद्दाख को स्वायत्त बनाने की मांग तो बलराज पुरी जैसे प्रोग्रेसिव लोगों ने भी की थी। लेकिन जम्मू कश्मीर को एक साथ रख केंद्रशासित प्रदेश बनाने के पीछे का लॉजिक केंद्रीय नियंत्रण के अलावा क्या है, मेरी समझ में नहीं आया। बहस होगी सदन में तो और कुछ समझ आये शायद। 
सबसे बड़ी बात यह कि इससे आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाएगा, यह मैं नहीं समझ पा रहा। कोई रचनात्मक पहल तो है नहीं। वही सैन्य समाधान है जो अब तक था और नाकामयाब रहा। बल्कि यह फैसला भारत समर्थक पार्टियों को पूरी तरह से हाशिये पर डाल देगा तो कट्टरपंथी और अलगाववादी ताकतों का असर और बढ़ेगा। बाकी तो भविष्य ही बताएगा। यह भी कि कश्मीरी पंडितों की अलग राज्य की मांग नहीं मानी गई है। जमीन तो वे पहले भी खरीद सकते थे लेकिन उनके लौटने के लिए अलग से क्या हुआ है, मुझे नहीं पता। 
अगर शांति न हुई और मामला सुप्रीम कोर्ट (जो 2017 में ही दुहरा चुका है कि 370 परमानेंट हिस्सा है संविधान का) या इंटरनेशनल कोर्ट में गया तो सुलझने के बजाय चीजें उलझेंगी। ऐसे में अडानी-अम्बानी से लेकर टाटा, बिड़ला तक सेना के साये में व्यापार करने जाएंगे या नहीं, देखना होगा। अब तक टूरिज्म कश्मीरियों के पास था इसलिए टूरिस्ट पवित्र थे, आगे क्या होगा, पता नहीं। 
जमीन खरीदने के लिए बेचैन लोग पैसे बचाना शुरू कर दें। यह याद रखें कि कब्जा नहीं करना, खऱीदना है और कल अगर कोर्ट ने कुछ पलट दिया तो एक्को पैसा नहीं मिलेगा। फिर अभी से पहाड़ों पर चलने की प्रैक्टिस कर लें। इस साल अक्टूबर से ही मार्च तक का राशन, सूखी सब्जियां, मांस वगैरह इकट्ठा करने की प्रैक्टिस करें। उन्हें सूखा करके कैसे रखते हैं, उसकी प्रैक्टिस करें। रात के बारह बजे सेना / टेररिस्ट दरवाजा खटखटाये तो क्या करना है जान लें। शादियां करने को बेचैन लोगों से यह कि अगर तुम लोग दिल्ली-यूपी-बिहार-तमिलनाडु वगैरह में अपने लिए एक अदद बीबी नहीं ढूंढ़ पाए तो कश्मीर की सुंदरियां तुम्हें क्या भाव देंगी!
हां, अक्टूबर नवम्बर में जो लोग छठ मनाने जा रहे हैं उन्हें बस इतनी सलाह कि पानी में सूरज निकलने के बाद जाएं और पॉलीथिन पहनकर जाएं। गन्ना, दौरी वगैरह यहीं से लेकर जाएँ और...खैर जाने दें। 
आखिरी बात। जिन्हें लगता है कि यह कोई एकीकरण है और 'अब कश्मीर हमारा है' उनके लिए यह कि अब तक भी हमारा ही था भाई /बहन। कोई धारा जोड़ी नहीं गई नई। अब तक भी सरकारी भवनों पर तिरंगा ही फहराता था।  371 के तहत सिक्किम, नागालैंड, असम, मिजोरम, मणिपुर में भी बाहरी जमीन नहीं खरीद सकते तो वह कम हिंदुस्तान नहीं हो गया। जिन्हें लगता है यह गोवा जैसा काम है, उन विद्वानों को बताना चाहूंगा कि गोवा में विदेशियों का कब्जा था। याद दिलाना चाहूंगा कि पटेल के करीबी अयंगर ने कहा था 370 तोड़ने नहीं जोड़ने वाली धारा है। गुलजारी लाल नन्दा ने इसे वह सुरंग बताया था जिससे भारत कश्मीर से जुड़ता था। 
बाकी इतिहास की हर घटना एक मोड़ होती है। मंजि़ल नहीं। नशे में झूमते लोगों को एक दिन रोता भी देखा है इतिहास ने। आखिर कश्मीरी भी 1948 में कबायलियों को भगाकर हिंदुस्तानी झंडा लिए जश्न मना ही रहे थे।
कल क्या होगा कोई नहीं जानता। मुझे अपने देश की फिक्र है और उसमें कश्मीरी शामिल हैं। मैं उनकी जान को लेकर चिंतित हूं। मैने उनके घरों में कहवा पीया है। खाना खाया है। सुंदर क्षण बिताए हैं। मैं उन घरों को खुशहाल और शांत देखना चाहता हूंआपकी आप जानें।
7 अगस्त, 2019

Thursday, August 1, 2019

भारतीय स्त्री की नियति : दोयम हैसियत

मुसलमानों में तीन तलाक की प्रवृत्ति पर अंकुश के नाम पर 'मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक' संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया है। इस सरकार द्वारा पारित अन्य विधेयकों की तर्ज पर संसदीय समिति को विचारार्थ भेजे बिना इसे भी पारित करवा लिया गया। भारतीय संसदीय प्रणाली में संसदीय समिति की सुदृढ़ परम्परा रही है जिसके चलते विधेयकों की कपट-छाण होती रही है। इस विकेन्द्रीकृत लोकतांत्रिक प्रक्रिया को शाह-मोदी की सरकार अपनी मनमानी में बड़ी बाधा मानती है। यही वजह है कि अपनी दबंगई और व्हिप के बल पर ये अपनी हेकड़ी चलाते रहे हैं। इस विधेयक के कानून बनने के बाद मुसलमानों में भी विवाह विच्छेद अब न्यायिक प्रक्रिया के तहत ही हो सकेंगे। 'तलाक-तलाक-तलाक' ऐसा कह कर पत्नी को छोड़ा तो पति को तीन वर्ष की सजा तथा जुर्माने का प्रावधान इस नये कानून में किया गया है। चूंकि यह व्यवस्था मुस्लिम समाज में ही है इसलिए इससे प्रभावित भी वही होंगे। ऐसी स्थिति में तथाकथित मुख्यधारा के हिन्दू समाज में व्याप्त बिना तलाक के पत्नी को बेघर कर देने जैसी बुराई को मुस्लिम समाज भी अपनायेगा ही। इससे स्त्री की स्थिति और भी बुरी होनी है।
खैर, मुसलमानों में जिस तरह आवेशवश एक सांस में तीन बार तलाक बोल कर स्त्री को बेघर करने की प्रवृत्ति विकसित हुई उसे इस पितृसत्तात्मक समाज में शरीअत की भावना को नजरअंदाज कर जिस तरह स्वीकार किया, उसमें यह नौबत आनी ही थी। मुस्लिम सामाजिक संहिता शरीअत का ना केवल अपना महत्त्व है बल्कि इसे कानूनी मान्यता भी काफी कुछ हासिल है। शरीअत के अनुसार 'तलाक-तलाक-तलाक' एक साथ ना बोल कर तय अवधि में अलग-अलग समय बोल कर अलग होने की व्यवस्था है।
दरअसल यह समस्या धर्मविशेष से जुड़ी ना होकर पितृसत्तात्मक जातीय समाज व्यवस्था की बुराई है। इस समाज व्यवस्था में जहां लिंग के आधार पर स्त्री की दोयम हैसियत है, वहीं ऊंच-नीच की व्यवस्था में बंधी जातीयता भी एक कारण है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था जहां दुनिया के लगभग सभी देशों में मिलती है वही कोढ़ में खाज जैसी जाति व्यवस्था से ग्रसित हमारा भारतीय उपमहाद्वीप ही है। यहां जातियां पदानुक्रम में बंटी हुई हैं। पहली, दूसरी व तीसरी हैसियत और इस तरह दसियों बिसातों में बटी जातियों की स्त्रियों की हैसियत उसकी अपनी जातीय हैसियत से भी एक दर्जा नीचे की पायी जाती है। इस पितृसत्तात्मक जातीय व्यवस्था का पोषण आजादी बाद के वर्षों में भले ही ना किया गया हो लेकिन उसे राज्य की तरफ से मजबूती कभी नहीं दी गयी। जबकि हमारे संविधान के अनुसार पितृसत्तात्मक तथा जाति जैसी दोनों व्यवस्थाओं की जड़ता को खत्म किया जाना था।
वर्तमान की शाह-मोदी के नेतृत्व वाले संघ पोषित सरकार को अपने पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे के अनुसार चलना है। संघ का एजेन्डा संविधान की भावना के विपरीत जातीय बिसात और पितृसत्तात्मकता दोनों का पोषण चाहता है। ऐसे में वर्तमान सरकार से इससे विपरीत उम्मीदें बेमानी है। मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध आक्रामक रुख के चलते ही जिस संघ ने अपने को खड़ा किया, अब जब उसके पास सत्ता है तो उससे तीन तलाक जैसे सख्त विधेयक की ही उम्मीद थी। संघ यह अच्छे से जानता है कि मतदान वाली लोकतांत्रिक प्रणाली में बहुसंख्यकों के तुष्टीकरण से उसे राजनीतिक लाभ होगा। सरकार और संघ दोनों की मंशा स्त्री को मजबूती देना होता तो वे सबसे पहले विधायिका में स्त्रियों को कम से कम 33 प्रतिशत आरक्षण की बात करते, यह विधेयक वर्षों से संसद में अटका पड़ा है। अलावा इसके जिन क्षेत्रों में स्त्रियों के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव है, उसे समाप्त किया जाता। जब सब कुछ राजनीतिक नफे-नुकसान को देखकर तय किया जाना है तो उसमें क्यों तो स्त्री की और क्यों दबी-कुचली जातियों को उठाने की बात की जाय।
जिन आंकड़ों के आधार पर इस विधेयक को लाने का तर्क दिया गया उसमें मुख्य है हिन्दुओं में तलाक की दर जहां 2 प्रतिशत है वहीं आसान तीन तलाक के चलते मुसलमानों में यह दर 3.7 प्रतिशत है। ऐसे में हम यह भूल जाते हैं कि हिन्दू समाज का ही एक हिस्सा आदिवासी समाज में शादी व परिवार आदि की व्यवस्था वैसी ही नहीं है जैसी तथाकथित मुख्यधारा के हिन्दू समाज में है। इसी तरह मुख्यधारा से भिन्न पारिवारिक व्यवस्था दलित समुदाय की कुछ जातियों में भी है, जहां जोड़ा बनने और छूटने की व्यवस्था अपनी भिन्नता लिए है। इस तरह हिन्दू समाज का यह बड़ा तबका हिन्दुओं के तलाक के आंकड़ों में शामिल नहीं है जबकि मुसलमानों में पति-पत्नी के अलग होने की एकमात्र व्यवस्था एक तीन तलाक ही है, इसके चलते उनका हर विवाह-विच्छेद आंकड़ों में दर्ज होता है।
बिना औपचारिक प्रक्रिया का निर्वहन किये पत्नी को छोड़ देने का अवैधानिक चलन हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों में बदस्तूर जारी है। 2011 की जनगणना के अनुसार 19 लाख हिन्दू और 2 लाख 80 हजार मुस्लिम स्त्रियां ऐसी हैं जिन्हें उनके पतियों द्वारा बिना किसी कानूनी, सामाजिक-धार्मिक रीति के बेघर कर रखा है।
भारतीय समाज में स्त्री की दुर्गति के लिए कानून और व्यवस्था से ज्यादा समाज व्यवस्था जिम्मेदार है, जिसमें कारगार सुधारों की जरूरत है। लेकिन पिछली सरकारों ने भी इस ओर खास ध्यान नहीं दिया वहीं पितृसत्तात्मक और जाति व्यवस्था की पोषक संघपरस्त वर्तमान सरकार से ऐसी कोई उम्मीदें करना निराशा को न्योतना है।
—दीपचन्द सांखला
1 अगस्त, 2019