Monday, July 17, 2023

हल्लाबोल

 पिछले कुछ दिनों से बीकानेर के मीडिया में एक प्रदर्शन काफी सुर्खियां बटोर रहा है। कर्मचारी संगठनों ने उसे नाम दिया है-'हल्लाबोल'। यह 'हल्लाबोल' शब्द अपने आप अराजकता का बोध करवाता है। 25-50 कर्मचारी अपने कुछ नेताओं के साथ इकट्ठा होते हैं और प्रतिदिन किसी-न-किसी जनप्रतिनिधि के यहां पहुंच जाते हैं और जिसके पास भी पहुंचते हैं वह जनप्रतिनिधि और नेता 'हल्लाबोल' के समर्थन में बोलने लगता है। कल मानिकचन्द सुराणा ने भी यही किया। मानिकचन्द सुराना शहर के सबसे परिपक्व राजनीतिज्ञ माने जाते हैं और मंत्री भी रहे हैं। सुराना अभी मंत्री होते और ऐसी ही परिस्थितियां बनतीं तो क्या वे इसी तरह समर्थन करते? शायद नहीं।

अपने एक पूर्व के आलेख में 'पद टूटने पर हाय तौबा भला क्यों?' पर इन कर्मचारी नेताओं की कोई प्रतिक्रिया सहज नहीं थी। क्योंकि उसमें कुछ इस तरह के प्रश्न उठाये गये हैं जो उन्हें असहज करते हैं। इधर-उधर बात करने की बजाय इन कर्मचारी नेताओं को उस सम्पादकीय पर अपनी प्रतिक्रिया लिख कर देनी चाहिए थी। इस आन्दोलन में लगे कर्मचारियों का तर्क है कि पद टूटने से नहर संबंधी जो नये काम सौंपे गये हैं या सौंपे जाने हैं उनमें बाधाएं आयेंगी। उनकी यह चिन्ता अजब इसलिए लग रही है कि ऐसा उस विभाग के कर्मचारी कह रहे हैं जो राज्य भर में भ्रष्टाचार के मामले में बदनाम माना जाता है और योजना की लेट लतीफी में जिस विभाग ने सभी हदें पार की हों। विभाग के सभी अधिकारी-कर्मचारी काम न करने वाले हैं या भ्रष्ट हैं-ऐसा नहीं मानते! वह बीकानेर शहर के कुछ ऐसे कर्मचारी नेताओं और अधिकारी संघ के नेताओं से भी वाकफियत रखता है जो कार्यालय में अपना कर्तव्य निर्वहन भी करते हैं-और कर्मचारी हित की बात भी। लेकिन ऐसे नेता हैं कम ही। ऐसे नेताओं को कम-से-कम कर्मचारियों के अधिकारों और सुविधाओं के बीच एक स्पष्ट रेखा खींचनी होगी कि हक क्या हैं और सुविधाएं क्या है। सुविधाओं की मांग हकों की तरह नहीं की जा सकतीं। वो तो तब हरगिज नहीं जब इस देश की लगभग आधी आबादी जीवन यापन की न्यूनतम जरूरतों से महफूज हो।

अधिकतर कर्मचारी नेता बनते ही इसलिए हैं कि उन्हें दफ्तर में हर तरह की छूट मिल जायेगी-ऐसे ही कई नेताओं की बातें दबे मुंह और खड़े कान कही-सुनी जाती हैं-जो कर्मचारी हित की बात कम और दलाली किस्म के काम ज्यादा करते हैं-ऐसे भी बहुत कर्मचारी नेता मिल जायेंगे जिन्होंने लम्बे समय से अपनी ड्यूटी का एक भी काम न किया हो। जो ऐसे नहीं हैं और अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं वे कृपया हमारी इस बात को दिल पर न लें।

रही बात हमारे जनप्रतिनिधियों की तो उनमें से आजकल अधिकतर आत्मविश्वासहीन तो है ही विवेकहीन भी हैं। तभी पचीस-पचास के हल्ला-भर बोल देने से या हो सकता है कभी हजार-पांच सौ भी इकट्ठा हो लें तब भी क्या वे सार्वजनिक धन की बर्बादी को रोकने के विरोध में खड़े हो जायेंगे? अफसोस! होते हैं। आजकल वैसे भी जिसकी पावली चलती है वह अपने या अपने समूह के हित में निर्णय करवा ले आते हैं। इस तरह के कृत्यों से अधिकतर जनप्रतिनिधि अछूते नहीं हैं चाहे वे किसी भी पार्टी के हों। लेकिन मीडिया वालों को क्या हो गया? पता नहीं सच्ची और कड़वी बात कहना कब शुरू करेंगे!

दीपचन्द सांखला

7 जून, 2012


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